वशिष्ठ एवं योगवशिष्ठ के दृष्टि में राम

वशिष्ठ जी ब्रह्मा जी के सुपुत्र थे एवं सप्तर्षियों में से भी एक थे। श्रीरामचन्द्र जी के जन्म के समय से ही कुछ विशिष्टतः का आभास हुआ था। फिर भी श्रीरामचन्द्र जी की यथार्थतः को नहीं समझ पाये थे, जबकि अवतरण की भविष्यवाणी (आकाशवाणी) के समय ब्रह्मा और शंकर जी भी उपस्थित थे। अब विषय को इसी ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय में विस्तृत रूप में देखेंगे। यहाँ पर इतना ही बताना उचित समझूंगा की वशिष्ठ जी जैसा अहिंसा के पुजारी, जो अपने समक्ष ही अपने आठों पुत्रों को राजा विश्वामित्र द्वारा समाप्त करते हुये देखे थे, फिर भी शान्त रहे। इतनी ऊँची अहिंसा को मान्यता देने वाले ब्रह्मर्षि श्री वशिष्ठ जी भी हिंसा के समर्थन में विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा एवं ताड़का, सुबाहु तथा मारीच आदि को मारने या समाप्त करने हेतु दशरथ जी से सिफारिश करके राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र को दिलवाए थे। अन्ततः यह बता देना चाहता हूँ कि सत्य-न्याय एवं धर्म विरोधी हिंसक की हिंसा ही सर्वोत्तम अहिंसा है क्योंकि परमब्रह्म परमेश्वर या परमात्मा के पूर्णावतार रूप श्री विष्णुजी, श्रीरामचन्द्र जी महाराज एवं श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज के अवतरण का यह एक प्रमुख कारण था जिसमें इन तत्त्ववेत्ता पूर्णावतारी सत्पुरुषों नें अपने संपूर्ण कार्यों का आधा हिस्सा ही दुष्ट, अत्याचारियों, मिथ्याचारियों, सत्य-न्याय एवं धर्म विरोधी हिंसकों का सफाया करने-कराने में लगाया था। अन्ततः बता देना चाहता हूँ कि परमात्मा के पूर्णावतारी तत्त्ववेत्ता सत्पुरुषों द्वारा किया गया एवं कराया गया कार्य ही सर्वोत्तम् है; उसमें भी उसी के आज्ञा एवं निर्देशन में तो सोना में सुगन्ध जी है।

सत्य एवं अवतारी के पश्चात् अहिंसा ही
सद्भावी भगवद् प्रेमी पाठक बन्धुओं ! अब तक हम लोगों ने अहिंसा के जिस पहलू को जाने-देखे हैं, उसमें सत्य-न्याय एवं धर्म के परिप्रेक्ष्य में अहिंसा को धक्का और चोट अवश्य लगा है परन्तु नाजानकारों एवं नासमझदारों ने इसको ऐसे स्थान पर प्रतिस्थापित कर-करा दिया था, जहाँ इसकी समाप्ति पर विचार की भी आवश्यकता नहीं महसूस हो पाती है। हाँ यह कहा जाय की सत्य-न्याय एवं धर्म तथा पूर्णावतारी तत्त्ववेत्ता सत्पुरुष के भू-मण्डल पर अवतरण के अनुपस्थिति में अहिंसा ही सर्वोच्च पद को सुशोभित करती है। यह भी बात सत्य है कि शान्ति और आनन्दमय जीवन हेतु अहिंसा ही किसी से भी श्रेष्ठतर सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त श्रेष्ठतर अवश्य है परन्तु दुष्ट मिथ्याचारी, अत्याचारी, अन्यायी, अधार्मिक एवं भ्रष्टाचारी प्रभावी रूप ले लेते हैं, जिसका परिणाम अतिभयंकर होता है, जिसको सत्ययुग के देवताओं, त्रेतायुग में देवताओं, ऋषि-महर्षियों एवं आध्यात्मिक सन्त-महात्मा एवं सिद्धों तथा द्वापर युग में देवताओं, ऋषि-महर्षियों एवं समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं एवं सज्जनों के हर प्रयत्नों के बावजूद भी असुरों, मिथ्याचारियों, अन्यायियों, अत्याचारियों, भ्रष्टाचारियों एवं अहंकारियों का प्रभाव इतना बढ़ा कि हा-हा कार और त्राहिमाम्-त्राहिमाम्-त्राहिमाम् की आवाज चारों तरफ से ही उठने लगी थी, जिसके परिणाम में परमात्मा को पूर्णावतार लेकर इन सबों का सफाया कर-करवा कर शान्ति और आनन्द तथा मुक्ति और अमरता से युक्त सत्पुरुष समाज कायम कर अमन-चैन का राज्य करके सत्य-न्याय एवं धर्म को पुनः प्रतिस्थापित करना-कराना पड़ा। अन्ततः सारांश में यह बता दूँ कि अहिंसा सिद्धान्ततः तो श्रेष्ठतर अवश्य लगता है परन्तु व्यवहार में प्रभावहीन होता है, जो उग्रतम् हिंसा रूप प्रलय तक का भी आह्वान कर-करवा देता है। गांधी जी के अहिंसा के पीछे भी क्रान्तिकारियों के हिंसात्मक कार्यवाही की कम मर्यादा नहीं है। ४२ से ५४ तक की क्रान्ति का भी कम स्थान नहीं है। हिन्दुस्तानी फौज यदि न बिगड़ी होती तो शायद स्वतंत्रता और पीछे अवश्य ही हट गयी होती। वर्तमान में अथवा कभी भी कोई सरकार ही अहिंसा की चापलूसी बातें जितनी ही करें परन्तु अहिंसा को व्यवहारिकता में लागू न कर पायी थी, न कर पायी है। चापलूसी में हामी टीपी भरती है तो गोली, बन्दूक, रिवाल्वर, रायफल, बम, एटम बम, हाइड्रोजन या उद्जन बम, न्यूट्रान बम यानि किसी भी प्रकार के शस्त्रास्त्रों का निर्माण तथा आरक्षी एवं सेनाओं को सुपुर्दगी क्यों? अतः “अहिंसा मात्र गाने के लिए है, जीने के लिए नहीं।” हिंसा का भय न हो तो अहिंसा कोई सोचे भी नहीं। केवल परमात्मा के पूर्णावतार मात्र में ही यह प्रभाव होता है, यहाँ की प्रजा में हिंसा नाम तब तक समाप्त समझा जाता है, जब तक उसका यथार्थतः सिद्धान्त सत्य-न्याय एवं धर्म पूर्णतः लागू रहता है।

(3)अस्तेय (चोरी न करना):- अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। चोरी न करने हेतु सर्वप्रथम यह देखना पड़ेगा कि चोरी क्या है? तो देखने, जानने में आता है कि किसी के भी सम्पत्ति को बिना उसको जनाये या बिना उसके जाने उठा या ले लेना तथा अपना बनाकर छिपे रूप में उपभोग करना ही चोरी होता है। चोरी करना सामाजिक रूप से घृणित कर्म है । चोरी करने वाला व्यक्ति समाज में कभी भी अच्छी स्थिति एवं आदर सम्मान तो पा ही नहीं सकतावह (चोर) अपनी सामान्य मानवता भी खो देता है । कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि मेरी सन्तान चोर-डाकू बने । चोर को देखने मात्र से ही अन्य व्यक्तियों के अन्दर स्वतः ही घृणा बुद्धि उत्पन्न हो जाती है यह ऐसा घृणित कर्म है कि कोई व्यक्ति ही नहीं चाहता कि उसके साथ कोई चोरी करे । चोरी घृणित कर्म तो है ही परन्तु चोरी और डकैती एवं लूट से भी बदतर एवं सामाजिक दृष्टि में तो घोर घृणित कर्म सरकारी कर्मचारियोंअधिकारियोंविधायकोंसांसदों और मंत्रियों तक लिये जाने वाला घुसखोरी है जिससे सामाजिक व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाती है ।
मुजफ्फरपुर जेल २४/११/१९८२ ई॰

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