अध्यात्म (आत्मा) और तत्त्वज्ञान (परमात्मा)

अध्यात्म
सद्भावी सत्यान्वेषी बंधुओं! अध्यात्म जीव का आत्मा से मिलन तथा दरश – परश और मेल – मिलाप करते हुए आत्मामय कायम करने – कराने का एक क्रियात्मक साधना पद्धति है। जिस प्रकार शिक्षा से संसार और शरीर के मध्य की समस्त जानकारी होती है तथा स्वाध्याय शरीर और जीव के बीच की स्व का एक अध्ययन विधि – विधान है, ठीक उसी प्रकार अध्यात्म जीव और आत्मा के मध्य तथा आत्मा से सम्बंधित क्रियात्मक अध्ययन पद्धति ही अध्यात्म है । दुसरे शब्दों में आत्मा से सम्बंधित क्रियात्मक अध्ययन पद्धति ही अध्यात्म है । अध्यात्म सामान्य मानव से महामानव या महापुरुष या दिव्यपुरुष बनाने वाला एक योग या साधना से सम्बंधित विस्तृत क्रियात्मक एवं अनुभूतिपरक जानकारी है, जिसके अंतर्गत शरीर में मूलाधार स्थित जीव का भ्रूमध्य स्थित आज्ञाचक्र में पहुँच कर आत्म ज्योति या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर या ब्रह्म ज्योति रूप ब्रह्म या अलिमे नूर या आसमानी रोशनी या नूरे इलाही या Divine Light या Life Light जीवन ज्योति या सहज प्रकाश या परम प्रकाश या भर्गो ज्योति या स्वयं ज्योतिरूप शिव का साक्षात्कार करना एवं स्वाँस – निःस्वाँस के माध्यम से जप का निरन्तर अभ्यास पूर्वक आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रह्ममय होने – रहने का एक क्रियात्मक अध्यन पद्धति या विधान होता है ।
स्वाध्याय तो मनुष्य को पशुवत् एवं शैतानियत के जीवन से ऊपर उठाकर मानवता प्रदान करता-कराता है परंतु यह आध्यात्मिक क्रियात्मक अध्ययन विधान मनुष्य सांसारिकता रूप जड़ता से मोड़कर आध्यात्मिकता से जोड़कर चेतनता रूप दिव्यता (Divinity) प्रदान करता – कराता है । पुनः शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द की अनुभूति कराने वाला चेतन विज्ञान ही अध्यात्म है, जिसका एकमात्र लक्ष्य शरीरस्थ जीव को शारीरिकता – पारवारिकता एवं सांसारिकता रूप जड़ जगत् से लगा-बझा सम्बन्ध काटकर या जड़ जगत् रूप से सम्बन्ध मोड़कर चेतन आत्मा से सम्बन्ध जोड़-जोड़ कर जीवों को आत्मामय या ब्रहमय या चिदानंदमय या दिव्यानन्दमय या चेतनानन्दमय बनाना ही है |
अध्यात्म अपने से निष्कपटता पूर्वक श्रद्धा एवं विश्वास के साथ चिपके हुये, लगे हुये लीन साधक को अपार शक्ति – साधना – सिद्धि (प्रदान करता हुआ सिद्ध, योगी, ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि, तथा अध्यात्मवेत्ता, योगी-महात्मा रूप महापुरुष बना देने या दिव्य पुरुष बना देने वाला एक दिव्य क्रियात्मक विज्ञान है , जो शारीरिकता – पारिवारिकता एवं सांसारिकता रूप माया - मोह ममता – वासना आदि माया जाल से जीव का सम्बन्ध तोड़ता हुआ दिव्य ज्योति से सम्बन्ध जोड़कर दिव्यता प्रदान करते हुये जीवत्त्व भाव को शिवत्त्व या ब्रह्मत्त्व भाव में करता – बनाता हुआ कल्याणकारी यानी कल्याण करने वाला मानव बनाता है, जो समाज कल्याण करे यानी शारीरिकता – पारवारिकता एवं सांसारिकता में फँसें – जकड़े जीव को छुड़ावे तथा आत्मा या ईश्वर या ब्रह्म से मिलाये और आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रहममय बनावे ।
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! स्वाध्याय तो कर्म का विरोधी नहीं बल्कि कर्म को गुणों से गुणान्वित कर, अच्छे कर्मो को करने तथा दूषित भाव – विचार व्यवहार – कर्म से दूर रहने को जनाता-सिखाता तथा नैतिकता से युक्त करता हुआ उसे परिष्कृत एवं परिमार्जित रूप में ग्रहण करने को सिखाता है जबकि अध्यात्म कर्म का घोर विरोधी एवं जबर्दस्त शत्रु होता है। कर्म और योग या अध्यात्म दोनों ही एक दूसरे का विरोधी, शत्रु तथा विपरीत मार्गगामी होते हैं। कर्ममंत्र और जप के माध्यम से इन्द्रियों को मजबूत बनाने का प्रयत्न करता है, तो योग – साधना या अध्यात्म आसन और प्रत्याहार के माध्यम से इन्द्रियों को कमजोर बनाने तथा विषय वृत्तियों से मोड़-खींच कर उनको अपने –अपने गोलकों में बन्द करने – कराने की क्रिया – प्रक्रिया का साधनाभ्यास या योगाभ्यास करने – कराने की विधि बताता एवं कर्म से मोड़ कर योग – साधना में लगाता है ।
कर्म का लक्ष्य कार्य है जीवात्मा में से जीव का सम्बन्ध काट-कटवा कर चेतन से मोड़कर संसार – शरीर में माया – मोह ममता – वासना आदि के माध्यम से प्रलोभन देते हुये भ्रमित करते – कराते हुये माया – जाल में फँसाना – जकड़ता व चेतन आत्मा में से बिछुड़ा – भुला – भटका कर शरीरमय बनाता हुआ पारवारिकता के बन्धन में बाँधता हुआ ,जड़ –जगतमय बना दिया जाना ताकि आत्मा – परमात्मा तो आत्मा – परमात्मा, इसे अपने स्व रूप का भी भान यानि आभाष न रह जाय। यह शरीरमय से भी नीचे उतर कर जड़वत् रूप संपत्तिमय या संपत्ति प्रधानजो की मात्र जड़ ही होता हैबनाने वाला ही कर्म विधान होता है, जिसका ठीक उल्टा अध्यात्म विधान होता है अर्थात् चेतन जीवात्मा जड़-जगत् को मात्र अपना साधन मान–जान-समझ कर अपने सहयोगार्थ चालित परिचालित करता या कराता हैजबकि कर्म चेतन जीवात्मा को ही जड़वत् बनाकर अपने सेवार्थ या सहयोगार्थ अपने अधीन करना चाहता हैचेतन को सदा ही जड़ में बदलने की कोशिश या प्रयत्न करता रहता है तथा योग-साधना अध्यात्म, जड़- जगत् में जकड़े हुये, फँसे हुये अपने अंश रूप जीव को छुड़ा कर, फँसाहट से निकाल करचेतन कराता हुआ कि फँसा हुआ थाछुड़ायेगा। इसलिये जीव अपने शारीरिक इन्द्रियों को उनके अपने – अपने गोलकों में बन्द करके तब श्वाँस  – निः श्वाँस कि क्रिया को करने – पकड़ने हेतु मन को बाँध कर स्वयं अहं रूप जीव मूलाधार स्थित कुण्डलिनी के सहारे-आज्ञा चक्र में पहुँच कर आत्म-ज्योति रूप आत्मा या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म या स्वयं ज्योति रूप शिव का साक्षात्कार कर ,आत्मामय या ब्रह्ममय बनता या होता हुआ अहं रूप (जीव ) हँस   रूप शिव – शक्ति बन जाता या हो जाता है । यहाँ पर शिव – शक्ति का अर्थ शंकर – पार्वती से नहीं मानकर स्वयं ज्योति या आत्मज्योति या ब्रह्मज्योति रूप ब्रह्म शक्ति से मानना चाहिये ।
सृष्टि कि उत्पत्ति और लय-प्रलय
शिव का अर्थ कल्याण से होता है। हँस रूप ब्रह्म – शक्ति या शिव-शक्ति कि उत्पत्ति परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द – ब्रह्म या परमब्रह्म से ही होती है तथा सृष्टि के अन्त में सामान्यतः ब्रह्माण्डीय विधि-विधान से तथा मध्य में भी भगवदावतार के माध्यम से तत्त्वज्ञान (Supreme KNOWLEDGE) के यथार्थतः  विधि – विधान से परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द – ब्रह्म या परमब्रह्म से सोsहँ तथा हँसो  से ॐ की उत्पत्ति की प्रक्रिया या रहस्य जना – बता दिखा सुझा – बुझा कर पुनः लय विधान से क्रमशः अपने लय रूप में 'अद्वैत्तत्त्वबोध' करते कराते हुये जिज्ञासु को भगवान से बात-चीत करते – कराते जब  अहँ एवं सोsहँ – हँसो को, समस्त मैं – मैंतू – तू को अपने मुख से निकालते हुयेपुनः अपने ही मुख में समस्त मैं – मैं तू तू को चाहे वह मैं – मैं तू- तू  अहँ रूप जीव का हो या हँस रूप जीवात्मा का या केवल सः या आत्म शब्द आत्मा का ही क्यों न हो, सभी को ही अपने मुख में ही प्रवेश कराते हुये ज्ञान-दृष्टी से या तत्त्व -दृष्टी से दिखाते हुयेबातचीत करते – कराते हुये जीव (अहँ )जीवात्मा (हँसो ) व आत्मा (सः या आत्म शब्द ) सृष्टि के सम्पूर्ण को ही एक अपने से अनेकानेक सम्पूर्ण सृष्टि में अपने अंश–उपांश रूप में बिखेर देते हैं। ऐसा ही अपने उत्कट निष्कपट परम श्रद्द्धालू एवं सर्वतोभावेन समर्पित – शरणागत जिज्ञासुओं को अज्ञान रूप माया का पर्दा हटाकर अपना कृपा पात्र बनाकर अपना यथार्थः यानि वास्तविक तत्त्व रूप को दर्शा देते हैं तथा अपने अनन्य भक्तों को अपने में भक्ति –सेवा प्रदान करते हुये अपना प्रेम –पात्र बना लेते हैं, तब मध्य में भी लक्ष्य रूप रहस्य को समझा – बुझा कर मुक्ति और अमरता का भी साक्षात् बोध कर –करा देते हैंतो मध्य में भी अन्यथा सामान्य सृष्टि लय विधान से अन्त में अपने में लय – विलय हो जाया करती है। यही सृष्टि उत्पत्ति और लय है। तत्त्वज्ञान के माध्यम से विलय तथा महाविनाश के माध्यम से महाप्रलय होता है।
अध्यात्म अपार सिद्धिशक्ति तथा एश्वर्य प्रदान करने वाला विधान होता है; जिससे प्रायः सिद्ध – योगीसिद्ध – साधक या आध्यात्मिक सन्त – महात्मा को विस्तृत जन- धन – समूह को अपने अनुयायी रूप में अपने पीछे देखकर एक बलवती अहंकार रूप उल्टी मति-गति हो जाती है; जिससे योग-साधना या आध्यात्मिक क्रिया की उल्टी गति रूप सोsहँ  ही उन्हें सीधी लगने लगती है और वही उल्टी साधना सोsहँ से अपने अनुयायियों को भी जोड़ते जाते हैं, जबकि उन्हें यह आभाष एवं भगवत् प्रेरणा भी मिलती रहती है की यह उल्टी है । फिर भी वे नहीं मानते। उल्टी साधना का ही प्रचार करने-कराने लगते हैं । अहँ रूप जीव को आत्मा में मिलाने के बजाय सः रूप आत्मा को ही लाकर हँस के स्थान पर सोsहँ या 'मैं –वह हूँ' के स्थान पर 'वही मैं हूँ' का भाव भरने लगता हैं जिससे की उल्टी मति से अवतार और भगवान ही बनने लगते हैं, जो इनका बिल्कुल ही मिथ्या ज्ञानाभिमान ही होता है। ये जबरदस्त भ्रम एवं भूल के शिकार हो जाते हैं। आये थे भक्ति करनेबन गये भगवान। यह उनका बनना उन्हें भगवान से विमुख कर सदा – सर्वदा के लिये पतनोन्मुखी बना देता हैं ।
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बंधुओं ! अध्यात्म विधान स्वाध्याय से ऊपर यानि श्रेष्ठतर तथा तत्त्वज्ञान से नीचे होता हैपरन्तु आध्यात्मिक सन्त-महात्मा मिथ्याज्ञानाभिमान के कारण आत्मा को ही परमात्मा ,ब्रह्म को ही परमब्रह्म ,ईश्वर को ही परमेश्वर, Divine Light या Life Light को ही (GOD), नूर को ही अल्लाहतआला या खुदा, आत्म – ज्योति या दिव्य ज्योति या ब्रह्म ज्योति या नूर या डिवाइन या जीवन ज्योति या स्वयं ज्योति या सहज प्रकाश या परम प्रकाश तथा हँसो के उल्टे सोsहँ के अजपा जप प्रक्रिया को ही परमतत्त्वम् रूप आतमतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द – ब्रह्म या परमब्रह्म तथा उनका तत्त्वज्ञान पद्धति, चिदानन्द को ही सच्चिदानन्दब्रह्मानन्द या आत्मानन्द को ही परमानन्द या सदानन्द, चेतन को ही परमतत्त्व, ब्रह्मपद या आत्मपद को ही परमपद या भगवद्पदशिवलोक या ब्रह्म लोक को ही अमर लोक या परम आकाश रूप परमधाम, अनुभूति को ही बोध, आध्यात्मिक सन्त – महात्मा या महापुरुष को ही तात्त्विक सत्पुरुष –परमात्मा या परमपुरुष या भगवदावतार रूप परमेश्वर या खुदा –गॉड –भगवान , दिव्य दृष्टि को ही ज्ञान- दृष्टि, दिव्य चक्षु को ही ज्ञान चक्षु,डिवायन आई को ही गाँडली आई ,अपने पिण्ड को ही ब्रह्माण्ड,अपने शरीरान्तर्गत जीवात्मा हँस को ही परमब्रह्म और सर्वसत्ता सामर्थ्य रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवतत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म, शान्ति और आनन्द को ही परमशान्ति और परम आनन्द कहते – कहलाते हुये तथा स्वयं गुरु के स्थान पर सद्गुरु बनकर अपने को भगवदावतार घोषित कर-करवा कर अपने साधना –विधान या आध्यात्मिक क्रिया- विधान से हटकर, पूजा- उपासना विधान आदि से युक्त होकर अपने जबर्दस्त भ्रम एवं भूल का शिकार अपने अनुयायियों को भी बनाते जाते हैं। हँसो के स्थान पर उल्टी साधना सोsहँ करने – कराने में मति – गति हीइन आध्यात्मिक सन्त – महात्माओं की उल्टी हो गई होती है या हो जाती है और वे इस बात पर थोड़ा भी ध्यान नहीं दे पते हैं की उनका लक्ष्यगामी सिद्धान्त अध्यात्म या योग है जिसकी अन्तिम पहुँच आत्मा तक ही होती हैपरमात्मा या परमेश्वर या परमब्रह्म या खुदा-गॉड-भगवान तक इनकी पहुँच ही नहीं है। आदि में शंकर, सनकादि, सप्तऋषि, व्यासादि, यीशु, मूसा, मोहम्मद साहब, आधशंकराचार्य, महावीर जैन, बुद्ध, कबीर नानक दरिया, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, अरविन्द, योगानन्द, आनंदमयी, मुक्तानंन्द, शिवानन्द आदि आदि वर्तमान के भी प्रायः सभी अध्यात्मवेत्तागण आत्मा को ही परमात्मा या ईश्वर को ही परमेश्वर आदि घोषित करते-कराते रहे हैं जिसमें शंकरवशिष्ठव्यासमोहम्मदतुलसी आदि तो अपने से पृथक परमात्मा या परमेश्वर या अल्लाहतआला के अस्तित्व को काफी  देर बाद में चल कर स्वीकार किये अथवा श्रीराम या श्रीक़ृष्ण की लीलाओं के बाद समयानुसार सुधर गये। बाल्मीकि भी इसी में हैं तथा जीव – आत्मा से परमात्मा या परमब्रह्म या परमेश्वर या अल्लाहतआला या खुदा-गॉड-भगवान का हीएकमात्र भगवान का ही, भक्ति प्रचार करने – कराने लगे। प्रायः अधिकतर आध्यात्मिक सन्त-महात्मा प्राँफेट-पैगम्बर मिथ्याज्ञानाभिमान के भ्रम एवं भूल वशशिकार हो जाया करते हैं तथा आत्मा – ईश्वर आदि को ही परमात्मा – परमेश्वर आदि कहने – कहलवाने घोषित करने - कराने हैं
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! वर्तमान समस्त योगीमहर्षिसाधकसिद्ध तथा आध्यात्मिक सन्त – महात्मनों से सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का अनुरोध है कि योग – साधना या अध्यात्म कोई विशेष छोटा या महत्वहीन विधान या पद नहीं है। इसकी भी अपनी एक महत्ता है। इसलिए अध्यात्म या योग को ही तत्त्वज्ञान या सत्यज्ञान पद्धति घोषित तथा आत्मा को ही परमात्मा या ईश्वर को ही परमेश्वर या ब्रह्म को ही परमब्रह्म तथा सोsहँ – हँसो एवं आत्म-ज्योति को ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द –ब्रह्म या परमब्रह्म घोषित न करें और मिथ्या ज्ञानाभिमानवश अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान कथन रूप झूठी बात कह कर अध्यात्म के महत्व को न घटायें। अध्यात्म को तत्त्वज्ञान को चोला न पहनावें अन्यथा अध्यात्म पाखंडी या आडंबरी शब्दों से युक्त होकर अपमानित हो जायेगा। आत्मा को परमात्मा का या ब्रह्म को परमब्रह्म का या ईश्वर को परमेश्वर का चोला न पहनावें क्योंकि इससे आत्मा कभी परमात्मा नहीं बन सकताईश्वर कभी भी परमेश्वर नहीं बन सकता। इसलिये परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रह्म का चोला आत्मा – ईश्वर या ब्रह्म को पहनाने से पर्दाफास होने पर आप महात्मन् महानुभावों को अपना मुख छिपाने हेतु जगह या स्थान भी नहीं मिलेगा।इसलिये एक बार फिर से ही सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द अनुरोध कर रहा है कि अपना-अपना नकली चोला उतार कर शीघ्रतिशीघ्र अपने शुद्ध अध्यात्मवेत्ताआत्मा वाला असल चोला धारण कर लीजिये तथा परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रह्म का चोला एक मात्र उन्हीं के लिये छोड़ देंक्योंकि उस पर एक मात्र उन्हीं का अधिकार रहता है। इसलिये अब तक पहने सो पहने, अब झट- पट अपने अपने नकली रूपों को असली में बदल लीजिये। अन्यथा सभी का पर्दाफास अब होना ही चाहता है! तब आप सभी बेनकाब हो ही जायेंगे। नतीजा या परिणाम होगा कि कहीं मुँह छिपाने का जगह नहीं मिलेगा। इसलिये समय रहते ही चेत जाइये । चेत जाइये। अब परम प्रभु को खुल्लम खुल्ला अपना प्रभाव एवं एश्वर्य दिखाने मे देर नहीं है। उस समय आप लोग भी कहीं चपेट में नहीं आ जायें। इसलिये बार बार कहा जा रहा है कि चेत जायेँ ! चेत जायेँ ! चेत जायेँ !!! अब नकलपाखण्डआडंबरज़ोर-जुल्मअसत्य –अधर्मअन्याय-अनीति बिल्कुल ही समाप्त होने वाले हैं।अब देर नहींसमीप ही है! इसे समाप्त कर भगवान अब अतिशीघ्र सत्य –धर्म न्याय –नीति का राज्य संस्थापित करेगा हीदेर नहीं।
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बंधुओं ! सृष्टि कि रचना या उत्पत्ति दो पदार्थों से हुई है जो जड़ और चेतन नाम से जाने जाते हैं। इस जड़ से सम्बंधित या चेतन नाम से जाने जाते हैं। इस जड़ से सम्बंधित सम्पूर्ण जानकारी तो भौतिक शिक्षा के अन्तर्गत आती है और चेतन तथा चेतन से सम्बंधित या चेतन प्रधान जीव-आत्मा आदि के सम्बन्धके बारे में क्रियात्मक जानकारी मात्र ही अध्यात्म है। अध्यात्मस्वाध्याय और तत्त्वज्ञान के मध्य स्थित जीव का परमात्मा से तथा परमात्मा का जीव से सम्पर्क बनाने में आत्मा ही दोनों के मध्य के सम्बन्धों को श्वाँस-निः श्वाँस के एक छोर (बाहरी) पर परमात्मा तथा दूसरे छोर (भीतरी) पर जीव का वास होता है। आत्मा नित्य प्रति हर क्षण ही निर्मल एवं स्वच्छ शक्ति (सः) रूप में श्वाँस के माध्यम से शरीर में प्रवेश करती है और शरीरान्तर्गत गुण दोष से युक्त सांसारिक होकर जीव रूप से निः श्वाँस से बाहर हो जाया करती है। यही निः श्वाँस स्थित हँ को श्वाँस स्थित सः से निरन्तर के जाप से दोनों का आज्ञा चक्र में मेल – जोल कराया जाना ही धारण और ध्यान है। जब अहँ रूप जीव गुरु कृपा से सः रूप आत्म – शक्ति का साक्षात्कार करता है तथा सः युक्त हो शान्ति और आनन्द की अनुभूति पाता हैतब यह जीव आत्मविभोर हो उठता है। इस जीव को आत्मामय या ब्रह्ममय या चिदानन्दमय हीपूर्व की अनुभूति, जिससे की यह जीव संसार में बिछुड़ा-भटका कर तथा सांसारिक में फँसा दिया गया थाअपना पूर्व का सम्बन्ध याद हो जाता है की शारीरिक –पारिवारिक –सांसारिक होने पूर्व मैं जीव इसी आत्मा या ब्रह्म के साथ संलग्न था; जिससे  सांसारिक पारिवारिक लोगों ने नार – पुरइन या ब्रह्म नाल काट-कटवा कर मुझे इस आत्मा या ब्रह्म से बिछुड़ा दिया था, जिससे मैं जीव शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द के खोज में इधर – उधर चारों तरफ भटकता और फँसता तथा जकड़ता चला गया था। यह तो परमप्रभु की कृपा विशेष से मनुष्य शरीर पाया। तत्पश्चात् परमप्रभु की यह दूसरी कृपा विशेष हुई कि मुझे गुरु जी का दर्शन हुआ हुआ तथा परमप्रभु कि तीसरी कृपा हुई कि मेरे अन्दर ऐसी प्रेरणा जागी किजिससे गुरुजी कि आवश्यकता महसूस हुई और गुरु जी के सम्पर्क में आया। तत्पश्चात् परमप्रभु जी के ही कृपा विशेषजो गुरु कृपा के रूप में हमें आत्म रूप सः से पुनः साक्षात्कार तथा मेल-मिलाप कराकर पुनः मुझ शरीर एवं संसारमय जीव को संसार एवं शरीर से उठाकर आत्मामय जीव रूप में स्थापित कर – करा दिया। गुरु कृपा से अब पुनः हँस हो गया। ध्यान दें कि हँस ही जीवात्मा हैजो अध्यात्म कि अन्तिम उपलब्धि है। अध्यात्म हँस ही बना सकता हैतत्त्वज्ञानी नहीं! तत्त्वज्ञान आत्मा के वश कि बात नहीं होता और अध्यात्म कि अन्तिम बात आत्मा तक ही होती है। आध्यात्मिक सन्त – महात्मन् बंधुओं को मिथ्या ज्ञानाभिमान रूप भ्रम एवं भूल से अपने को सदा सावधान रहते हुये बचाये रखना चाहिए और आत्मा को ही परमात्माईश्वर को ही परमेश्वर, ब्रह्म को ही परम ब्रह्म आदि तथा आध्यात्मिक सोsहँ-हँसो-ज्योति को ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् और योग-साधना या अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान कह-कहवा कर अध्यात्म के महत्व को मिथ्यात्त्व से जोड़कर घटाना या गिराना नहीं चाहिये। सन्त महात्मा ही झूठी या असत्य कहें या बोलना शुरू करें तो बहुत शर्म कि बात है और तब और समाज कि गति क्या होगी ?
तत्त्वज्ञान
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक श्रोता बंधुओं ! तत्त्वज्ञान ही वह अशेष ज्ञान पद्धति है जिसे यथार्थतः जान लेने के पश्चात् कुछ भी जानना और पाना शेष नहीं रह जाता ।तत्त्वज्ञान एकमात्र परमप्रभु हेतु आरक्षित एवं सुरक्षित पद्धति है जिसका एकमात्र प्रयोगकर्ता परमात्मा –खुदा-गॉड-भगवान ही जब परम आकाश रूप परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरित होता हैहै। भगवदावतार के सिवाय किसी को भी तत्त्वज्ञान के वास्तविक रहस्य का पता ही नहीं होता। यही कारण है कि भगवदावतार के पहचान का एकमात्र आधार तत्त्वज्ञान ही बना। वास्तव में तत्त्वज्ञान वह ज्ञान है जिसके अन्तर्गत पूरे ब्रह्माण्ड के जड़-चेतन तथा दोष –गुण के साथ ही साथ सम्पूर्ण कर्म विधान तथा परिपूर्णतः योग साधना या अध्यात्म विधान के अलावा परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् या खुदा-गॉड-भगवान यथार्थतः जानकारी, प्रत्यक्षतः दर्शन एवं स्पष्टतः बात-चीत करते-कराते हुये परिचय –पहचान के साथ प्राप्त होता है साथ ही साथ इसमें अद्वैत्तत्त्वबोध भी समाहित होता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जड़-चेतन तथा परमत्त्त्वम् आदि जो कुछ भी हैसब ही रहस्यात्मक जानकारी कराने कि क्षमता एकमात्र इसी तत्त्वज्ञान विधान में ही समाहित रहता है ।दूसरे शब्दों में बड़े ही सहजता के साथ कहा जा सकता है कि एकमात्र एक खुदा-गॉड-भगवान के द्वारा ही भू-मण्डल पर सदा-सर्वदा के लिये प्रमाणित एवं सत्यापित भगवत्त परिचय एवं पहचान तथा उनके कार्य करने का विधान ही वास्तव में तत्त्वज्ञान है । भगवान ने इसलिये तत्त्वज्ञान पद्धति एकमात्र अपने लिये आरक्षित एवं सुरक्षित कर लिया। अन्ततः यह तत्त्वज्ञान ही अशेष ज्ञान पद्धति है ।
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक श्रोता बंधुओं ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पाँच भागों में स्पष्टतः हर स्तर से जानने में आ रहा है तथा बना भी है। ये क्रमशः संसारशरीरजीवआत्माऔर परमात्मा हैं। प्रथम चारों का ही आदि-अन्त (उत्पत्ति-लय) परमात्मा से ही परमात्मा में ही सुनिश्चित है। परमात्मा से ही चेतन आत्मा तथा जड़ –जगत की उत्पत्ति होती है और अन्ततः परमात्मा में ही जड़-जगत् तथा चेतन आत्मा लय-विलय भी कर जाती है। यह आदि-अन्त सहित सम्पूर्ण रहस्य विधान एकमात्र तत्त्वज्ञान में ही सदा सर्वदा समाहित रहता है। जिस प्रकार परिचय –पत्र तथा परिचय –पत्र धारक दोनों के एक साथ रहने पर ही परिचय पत्र की सार्थकता जाहिर  स्पष्ट होती हैअलग – अलग यानी दोनों के प्रथक्- प्रथक् रहने पर तत्त्वज्ञान की उपयोगिता नहीं महसूस होती,ठीक उसी प्रकार भू-मण्डल पर परमधाम से भगवदावतार के बगैर तत्त्वज्ञान भी अनुपयोगी रूप में सद्ग्रन्थों में छिपा पड़ा रहता है जिसका परिणाम यह होता है की तत्त्वज्ञान लोगों के बीच जब भी प्रकट होता है तो जनमानस परम आश्चर्य में पड़ जाता है क्योकिं तत्त्वज्ञान की वार्ता पूर्व में कभी कोई सुना तो होता नहीं । अवतार के साथ ही तत्त्वज्ञान का महत्व भी स्थापित होने लगता है ।
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! तत्त्वज्ञान के प्रति आश्चर्य व्यक्त करना कोई महत्त्व नहीं रखता। क्योंकि यह तो आश्चर्यों में का परम आश्चर्यमय विधान है। भगवान तो जहाँ कहीं भी रहेगाउसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सदा सर्वदा ही समाहित रहता हैठीक उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की आश्चर्य से भी आश्चर्यमयी रहस्यात्मक जानकारी भी सदा-सर्वदा तत्त्वज्ञान में समाहित होता या रहता है । जिसमें से जबजैसाजितनी और जिसकी आवश्यकता पड़ी कि तबवैसाउतना ही विषय-वस्तुव्यक्ति-वस्तुशरीर –सम्पतिसिद्धि-शक्ति –सत्ता भगवान से सदा –सर्वदा प्रकट या प्रकट या उपलब्ध होता रहता है। इसकी वैसी और उतनी ही जानकारी भी तत्त्वज्ञान से सदा-सर्वदा प्रकट होता रहता और जाना जाता है। भगवद्ज्ञान या सत्यज्ञान या तत्त्वज्ञान एक ही बात है। परिस्थितियों के अनुसार पृथक् – पृथक् शब्दों में उच्चारित या व्यवहरित होता है। इसमें कोई किसी भी प्रकार का अन्तर या भेद नहीं है। यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई आश्चर्य हैतो उसमें सबसे बड़ा या परम आश्चर्य परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द –ब्रह्म रूप परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या खुदा-गॉड-भगवान तथा उससे सम्बंधित एकमात्र उसी का परिचय –पहचान रूप तत्त्वज्ञान या भगवद्ज्ञान या सत्यज्ञान ही होता है।
शारीरिक –पारिवारिक एवं सांसारिकों में आश्चर्यमयी बात तो जीव तथा जीव से सम्बंधित जानकारी ही होती है। उससे बड़कर आश्चर्य कि बात आत्मा तथा आत्मा से सम्बंधित जानकारी होती है तथा सबसे बड़कर यानि परम आश्चर्य कि बात परमात्मा तथा परमात्मा से सम्बंधित जानकारी होती है। इसलिये यहाँ सूझ एवं बूझ से काम लेने कि बात होनी चाहिये। यदि कोई बात आश्चर्यमयी है तो आश्चर्यमयी होने का मतलब झूठ नहीं होताअपितु आश्चर्य का मतलब कल्पनातीत प्राक्ट्य सत्य एवं विश्वास से है। अर्थात् जब कोई आश्चर्य कि बात सामने प्रत्यक्ष या प्रकट होती है जिसकी सम्भावना ही न हो और जो सत्य एवं विश्वसनीय लग रही हो परन्तु उसकी असम्भाव्यता ही उसके सत्यता एवं विश्वसनीयता में संदेह उत्पन्न कर रही होतब उसी स्थान एवं समय व परिस्थिति में एक तरफ प्रत्यक्षतः सत्य एवं असम्भाव्यता तथा दूसरी तरफ उसकी असम्भाव्यता तथा उससे उत्पन्न संदेह यानि दोनों में जब एक दूसरे के प्रतिकूल खींचतान होती हैतब वहीं आश्चर्य प्रकट होता है। इससे तो स्पष्ट हो जाता है कि आश्चर्य का मतलब झूठ नहीं। असम्भाव्यता के बावजूद सत्य का विश्वसनीयता पूर्वक प्राकट्य होना ही आश्चर्य है ।
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! वास्तव में तत्त्वज्ञान जड़ जगत् से सम्बंधित समस्त कर्म विधान तथा चेतन आत्मा से सम्बंधित योग – साधना या अध्यात्म भीपरिपूर्ण रूप में ही दोनों का ही आदि – अन्त से युक्त होते –रहते यानी दोनों कि ही उत्पत्ति तथा दोनों का ही अन्त इसी तत्त्वज्ञान से ही तथा तत्त्वज्ञान में ही होता है ।
इस प्रकार तत्त्वज्ञान के अन्दर दोनों ही समग्र एवं परिपूर्ण रूप में समाहित रहते हैं, जो उसके लिये उचित या ठीक ही है। परन्तु व्यवहारतः मुख्य परेशानी कि बात तो यह होती है कि तत्त्वज्ञानदाता के पास कोई यदि कर्म-काण्डी कुछ जानने-समझने आता हैतो वह यह तो पता ही है कि उसकी जितनी भी बातें या शंकायें थीसभी सटीक एवं पुष्ट व्यावहारिक प्रमाणों के साथ समाधान हो जाती हैंजिससे वह यह तो कबूल या स्वीकार करता है कि इनके (ज्ञानदाता के) पास अथाह जानकारी है या प्रायः ये सबसब कुछ ही जानते हैं। परन्तु वह कर्मकाण्डी उस समय भ्रम का शिकार हो जाता हैजब वह किसी योगी-साधक या आध्यात्मिक के साथ वार्ता को सुनता हैक्योंकि कर्मकाण्डी योग या आध्यात्मिक साधना का विरोधी तथा आध्यात्मिक कर्मकाण्ड के घोर विरोधी होने के कारणदोनों हो अपने विरोधी बातों से युक्त उन्हें जब देखते है तो अपने अपने विरोधी बातों के कारण भ्रमित हो जया करते हैं। वे यह नहीं देखते कि जिन शंकाओं को लेकर वे आये थेउनका समाधान उन्हें बोधगम्य तरीके से मिला है। उनकी कोई एसी शंका नहीं रही है जो सहजता पूर्वक एवं बोधगम्यता रूप में उन्हें न प्राप्त हुई होचाहे वे कर्मकाण्डी हों या योगी-साधक अथवा आध्यात्मिक। उन  कर्मकाण्डी और आध्यात्मिक बंधुओं को तो को तो यह सोचना चाहिये कि यह कोन हैजो, जो कोई भी जिस किसी प्रकार कि भी शंका लेकर आता हैउसे सटीक सहजता पूर्वक एवं बोधगम्य तरीके से समाधान देता हैचाहे कर्मकाण्डी की शंका रही हो या योगी-साधक-आध्यात्मिक की। यह तो उनके पल्ले ही नहीं पड़ती। पल्ले पड़ती है विरोधी बात-व्यवहार और जानकारी जो उन्हें भ्रमित किये वगैर नहीं छोड़ती !
किसी भी व्यक्ति को अपनी शंका समाधान से मतलब रखना चाहिये। यदि दूसरे के भी शंका-समाधान से भी मतलब रखना है तो रहस्य भाव में ही सुन्न जाननाउचित मनन-चिन्तन द्वारा उसके सत्यता को जानना – समझना चाहिये। ऐसा प्रायः देखा जाता है कि अपने शंका – समाधान से किसी को भी असंतुष्टि नहीं होती । सभी के सभी ही संतुष्ट हो जाते हैं । परन्तु अपने विधान के प्रतिकूल आचरण –क्रिया कलाप एवं व्यवहार कर्मकाण्डी, योगी- साधक –आध्यात्मिक जैसा ज्ञानदाता को करते – कराते हुये देख-देखकर सदा ही भ्रमित होते रहते हैं। यदि यह भी देखने की कोशिश करते कि इसकी यथार्थता क्या हैतो अवश्य ही पाते कि ज्ञानदाता सब कुछ करता हुआ भी अकर्ता तथा कुछ नहीं करने के बावजूद भीं सब कुछ का करता है। अर्थात् ज्ञानदाता आध्यात्मिकों के लिये श्रेष्ठ तम् कर्मकाण्डी जैसा बोलते – चलते –करते हुये भी अध्यात्म तथा कर्मकाण्ड से सर्वथा परे भगवद् लीलामय भी रहता हुआ अपना लक्ष्य कार्य सम्पादन करता रहता है जो अति रहस्यात्मक एवं परम गोपनीय विधान से करता है । अपने भगवद् लीला का रहस्य वह सदा ही गोपनीय रखता है । कभी कभी अपने अनन्य भक्तों से ही कुछ रहस्यात्मक भेद बताता है । अन्यथा भगवद् लीला का रहस्य किसी को भी बताना उसका एकमात्र अपना निजी विधान है जिसको चाहे न बताये ! यह परम गोपनीय विधान होता है ।
 सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! वास्तव में भगवदावतार तो उसी बीहड़ परिस्थितियों यानि संसार से सत्य-धर्म-न्याय –नीति पर जब असत्य –अधर्म –अन्याय-अनीति का ज़ोर जुल्म दुराचार –अत्याचार दूषित भाव-विचार दूषित व्यवहार एवं दूषित कर्म का ही चारों तरफ बोलबाला एवं साम्राज्य हो जाता है तथा सत्य –धर्म-न्याय –नीति असहाय एवं दूषित होता हुआ समाप्ति के अन्तिम रूप में पहुँच करदम घूँटता रहता है और चारों तरफ ही शैतान तथा शैतान मण्डली अपने ज़ोर जुल्म अत्याचार –भ्रष्टाचार के माध्यम से सत्य –धर्म-न्याय –नीति को भूमण्डल से ही सफाया करने पर उतारू यानी आमादा या तैयार होता –करता हैठीक उन्हीं परिस्थितियों के मध्य खुदा-गॉड-भगवान का परम आकाश रूप परमधाम से इस भू-मण्डल पर अवतरण होता है तथा किसी शरीर को ग्रहण या धार कर उस शरीर के जीव-आत्मा को अपने आप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रह्म परम ब्रह्म में विलय कर-करा कर उस शरीर विशेष से स्वयं सर्वेक्षणनिरीक्षण तत्पश्चात् परीक्षण करता - कराता हुआगुप्त रूप से यत्र-तत्र –सर्वत्र भ्रमण करता – रहता है । तत्पश्चात् उचित समय एवं परिस्थितियों के अनुसार अपने क्रिया –ज्ञान-बल –एश्वर्य आदि का प्राकट्य करता हुआ अपने वास्तविक परिचय –विधान व कार्य विधान रूप तत्त्वज्ञान या भगवद्ज्ञान या सत्यज्ञान के माध्यम से ही परिचय देता हुआ अपना मुख्य कार्य सत्य –धर्म-न्याय –नीति में से पहले चरण के दो को (सत्य और धर्म का) लेकर सांसारिक जन मानस में बीजारोपण यानी सत्य –धर्म की स्थापना का कार्य आरम्भ करता-कराता है । प्रभावकारी रूपों में सत्संग करता-कराता हुआ जन मानस में सत्य –धर्म को जगाकर प्रचार –प्रसार करता – कराता है। तत्पश्चात् दृढ़तापूर्वक सहज रूप से साक्षात् बोधमय तरीका अपना कर शंका-समाधान के माध्यम से लोगों में भरे हुए असत्य एवं अधार्मिक भाव को प्रभावकारी ,व्यावहारिक एवं शास्त्रीय प्रमाणों के द्वारा शंका-समाधान करता कराता हुआ जनमानस के अन्दर प्रविष्ट भ्रमों का निवारण करता कराता है। हालाँकि शैतान और शैतान मण्डली इन कार्यक्रमों (सत्संग एवं शंका-समाधान वाले कार्यक्रमों)का मनगढ़ंत अनेकानेक बातों –विधानों से आलोचना निन्दाविरोधसंघर्ष एवं लड़ाई –झगड़ा किये वगैर नहीं मानते ।फिर भी भगवदावतार रूप तत्त्वज्ञानदाता सहिष्णुता का सिद्धान्त अपने व्यवहार में प्रयोग करता कराता यानी सब कुछ झेलता सहता हुआ सर्वप्रथम सत्य –धर्म का प्रभावी तरीके से बीजारोपण कर कुछ मजबूत साधन तैयार करता या बनाता या उत्पन्न करता है। तत्पश्चात् उन्हीं साधनों के माध्यम से दुष्ट – दलन पहले सुधार का भरपूर अवसर देते हुएन सुधरने पर अन्त में संहार की प्रक्रिया अपनाता है। भगवदावतार वास्तव में न तो किसी का विरोधी है और न ही किसी का निन्दकबल्कि वह तो सत्य –धर्म का संस्थापक –पोषक एवं अच्छा प्रचारक –प्रसारक तो होता ही है और सामान्य तरीके से नहीं बल्कि हलचल मचाताघोषित करता कराता हुआ सत्संग कार्यक्रमों की रचना एवं उसका प्रभावी तरीके से उस क्षेत्र में घोषित करता कराता हुआ पहले पहल तो पूरे क्षेत्र में ज्ञान –क्रांति का हलचल मचा-मचवा देता है तथा समस्त मिथ्याभिमानियोंअभिमानियोंआडंबरियोंपाखण्डियों तथा तांत्रिकों-यांत्रिकोंविद्वानों वैज्ञानिकोंयोगियोंअध्यात्मिकोंआचार्यों –पण्डितोंअधिकारियों-कर्मचारियोंनास्तिकों आदि –आदि प्रायः सभी के कानों तक किसी भी संबन्ध में शंका-समाधान तथा शास्त्रार्थ हेतु चुनौती पूर्ण घोषणायें भी कर-करा देता है  कि भगवदावतार हो गया है जो जैसा चाहे जान-समझ कर या जिस प्रकार भी चाहे भगवत् परीक्षण विधान एवं तत्त्वज्ञान का परीक्षण कर – करा सकता है । इस प्रकार से जिस भी क्षेत्र में भी प्रवेश करता हैभगवद्ज्ञान की एक क्रान्तिपूर्वक हलचल सी मच जाती है। इस प्रकार सत्य –धर्म –संस्थापन तथा उसका प्रचार-प्रसार करता – कराता है । 
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! तत्त्वज्ञान को अपने मति-गति के अनुसार प्राप्त करनेपरीक्षण करने तथा अपने जीवन में उसे उतारने या लेकर चलने का कभी भी प्रयत्न करना होता हैसोचना व कल्पना भी नहीं करना चाहिए। भगवत् प्रदत्त ठीक प्राकृतिक विधान ही है की बड़ी विषय-वस्तु छोटी या समान गुण –व्यवहार वाले विषय-वस्तुओं को अपने में विलय या विलीन या मिलान कर –करा लेता है। इस प्रकार तत्त्वज्ञान पूरे ब्रह्माण्ड में ही अतुलनीय है। जब ब्रह्माण्ड की कोई या किसी विषय वस्तु या शक्ति – सत्ता से तुलना नहीं की जा सकती है (क्योंकी सम्पूर्ण ब्रम्हाण्डीय विधि – विधान ही इसी तत्त्वज्ञान से उत्पन्न तथा इसी तत्त्वज्ञान में विलय कर जाता है ) फिर इसमें तत्त्वज्ञान के तुलना की बात करना -कराना तुलना की तो दूर रहा, सोचना भी नहीं चाहिए।
अब यहाँ पर थोड़ा बहुत मनन-चिन्तन की तथा सूझ-बूझ की आवश्यकता है की ऐसा और एस क्षमता वाले तत्त्वज्ञान को कोई भी अपने मति-गति के अनुसार पाना या अपने मति-गति के अनुसार परीक्षण करना चाहे तथा अपने मति-गति के अनुसार अपने पास इस तत्त्वज्ञान को रखना तथा ले चलना चाहेतो वह मात्र मूढ़ एवं जढ़ी ही कहलाने लायक नहीं हैबल्कि विकृत मष्तिस्क तथा दिमागी भ्रष्ट एवं शैतान प्रेरित मति –गति वाला ही है जो ऐसा सोच सकता हैअन्यथा ऐसी कल्पना भी अकल्पनीय ही होनी चाहिए । इसलिये समस्त जिज्ञासु एवं ज्ञानियों को चाहिये की तत्त्वज्ञान पद्धति के सिद्धान्त के अनुसार ही इसे जानें-पायें और सर्वतोभावेन यानी तन-मन-धन से ही अपने को इसके प्रति समर्पित कर दें ।
संसार में भी प्रायः ऐसा देखा जाता है कि सामान्य व्यक्तियों या वस्तुओं से कुछ लाभ लेना होता है,तो लाभ के अनुसार उन व्यक्तियों या वस्तुओं के अनुसार होकर ही लाभ लिया जाता है। जब सांसारिक तुच्छ सामानों हेतु ऐसा विधान है तब तो तत्त्वज्ञान जैसी सर्व-शक्ति–सामर्थ्य एवं समस्त ज्ञान का भण्डार होने – रहने वाला किसी के अधीनकिसी के अनुसार या किसी के पास कैसे जा –रह या हो सकता है। थोड़ा भी सोचा जाय कि एकमात्र भगवदावतार के सिवाय पूरे सृष्टि या ब्रह्माण्ड में भी कोई ऐसा है क्या कि इस तत्त्वज्ञान को अपने मति-गति के अनुसार ही जानेपावेपरीक्षण करे तथा जैसा मन करे चलावे। तो ऐसा न कभी कोई थान है और न कभी कोई हो ही सकता है! यह एक मात्र भगवत् परिचय एवं पहचान तथा भगवत् कार्य विधान होने के कारण भगवान से पृथक हो ही नहीं सकता। जबजहाँजैसे भी भगवान या भगवदावतार रहता हैयह तत्त्वज्ञान उन्हीं के साथ हीतब वहाँ वैसा ही रहता है। यह तत्त्वज्ञान तथा भगवान दोनों ही दो नहीं हैंअपितु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू तत्त्व है तो दूसरा उसका ज्ञान या एक पहलू ज्ञान है तो उसका दूसरा पहलू तत्त्व। इस प्रकार तत्त्व और ज्ञान का एक दूसरे के साथ ऐसा अन्योन्यान्य सम्बन्ध होता है जिसे दो कहना भी भ्रम ही पैदा करने जैसे लगता है। यह दो होते हुये भी एक ही होता है तथा एक ही होता हुआ भी दो प्रकार से प्रयुक्त होता है या कहा जाता है। ठीक ही है एक ही सिक्के का दो पहलू ।
इस प्रकार तत्त्वज्ञान को कभी भी अपने अनुसार नहीं सोचना-समझना चाहिए। हमसे कोई ऐसा कार्य-व्यवहार तो नहीं हो रहा है जो भगवान तथा सद्गुरु के विधान से रत्तीभर भी पृथक या विरोधाभास या भ्रमवश की जा रही है और यदि है तो तुरन्त ही क्षमा माँगता हुआ क्षमा या क्षमा याचना का निष्कपटता पूर्वक अन्यन्य श्रद्धा –भक्ति –निष्ठा के साथ अन्यन्य भक्ति, अन्यन्य सेवा एवं अन्यन्य सेवा एवं अन्यन्य प्रेम व्यवहार से रहता हुआसदा ही यह प्रयत्न करते रहना चाहिए कि हम हर पहलू से भगवदावतार रूप सद्गुरु या परमप्रभु के प्रसन्नता एवं प्रेम पात्र बने रहें जिससे कि परमप्रभु सदा ही अपने प्रेमपात्र के साथ लीला व्यवहार करते रहे। तत्त्वज्ञान ग्रहीता को तो सदा ही अपना सौभाग्य मनाते रहना चाहिए कि परमप्रभु ने उसे अपनी विशेष कृपा दृष्टि का पात्र बना-बनवाकर ही अपना तत्त्व रूप तत्त्वज्ञान के माध्यम से स्वयं ही जनाया, दर्शाया तथा स्वयं बात –चीत करते –कराते    हुये अद्वेत्तत्त्व बोध तक करा दिये । ऐसे परमप्रभु को अपने साथ किस प्रकार रखा जाय ! कैसे भक्ति –सेवा –प्रेम दिया जाय कि परम आनन्द रूप सदानन्द रूप सच्चिदानन्द प्रभो सदा ही आनन्दमग्न रहें !
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! प्रायः ऐसा देखा जाता है कि सभी मनुष्य ही शान्ति आनन्द एवम् पद-प्रतिष्ठा हेतु संसार में अनेकानेक कठिनाइयों को झेलते हुये अथक परिश्रम करते रहते हैं तब भी ये चारों नहीं प्राप्त कर पाते । शान्ति और आनन्द योगी –साधक या आध्यात्मिक साधना में रहने वाले पाते हैंतो पद और प्रतिष्ठा शारीरिक –पारिवारिक –सांसारिक जनों के पास ही जाती है । ऊँचे से ऊँचे पदों पर पद – स्थापितों को शान्ति और आनन्द नहीं मिलता । वे सर्वदा अशान्त या बेचैन तथा अनेकानेक सुख साधनों से युक्त होने-रहने के बावजूद भी आनन्द शून्य ही रहते हैं । कर्म विधानपद और प्रतिष्ठा दिलाता है तो अध्यात्म विधान शान्ति और आनन्द । कर्म विधान वाला को तो शान्ति और आनन्द तो प्राप्त हो ही नहीं पाता,अध्यात्म विधान में लीन सिद्ध –साधकयोगी तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्मागण माया जाल में फँसने –भटकने के डर से पद –प्रतिष्ठा से दूर ही रहते हैं । इस प्रकार शान्ति और आनन्द तथा पद और प्रतिष्ठा ये चार ऐसे संकेत प्रदान कर रहे हैं कि किसी भी सांसारिक में से किसी को ही ये चारों एक साथ कदापि नहीं उपलब्ध हो सकते ।परन्तु क्या ही आश्चर्यमयी बात एवं आश्चर्यमयों में भी परम आश्चर्यमय विधान तत्त्वज्ञान का है कि वास्तव में जो कोई ही निष्कपटतापूर्वक श्रद्धा एवं विश्वास के साथसर्वतोभावेन अपना तन –मन –धन भगवद् अर्पण करता हुआ अनन्य भक्तिअनन्य सेवाअनन्य प्रेम भाव से भगवदावतार के प्रति पूर्णतः शरणागत भाव में शरीर पर्यन्त रहने का संकल्प देता तथा उस संकल्प देता तथा उस संकल्प का पालन करता हैतो वह चार ही क्या, ’तत्त्वज्ञान उसे कितना और क्या देता हैकहाँ और कैसे पहुँचाता  है –यह बिल्कुल अकथनीय बात है एक ही बात कही जा सकती है कि प्राप्तकर्ता को पूरे ब्रह्माण्ड में ही कुछ जानना और पाना शेष ही नहीं रह जाता ! यह अकाट्य सत्य बोधगम्य बात है। परम शान्तिपरम आनन्दपरम पदसच्चिदानन्दअद्वेत्तत्त्व बोधपरम गतिपरम हंसपरम भावपरम सत्यपरम तत्त्वअर्थात् परम’ को हीजो किसी में हो, ’परम कि प्राप्ति तत्त्वज्ञान सहजतापूर्वक प्रदान करता है। इतना ही नहीं जिस मुक्ति और अमरता को प्रदान करने का अधिकार शंकरजी व आदि–शक्ति भी नहीं रखतेऔर की बात क्या कहा जायउस मुक्ति-अमरता का भी साक्षात् बोध यहाँ तत्त्वज्ञान अपने शरणागत को सहजता के साथ करा देता है। तत्त्वज्ञान और कुछ नहीं बल्कि एकमात्र परमसे ही युक्त करता हुआ,परम भाव का ही साक्षात् बोध अपने शरणागत रहने वाले को करा देता है –हर स्तर में परम ही परम ।   
 सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! मानव शरीर प्राप्त करना सृष्टि में भी एक अपूर्व सौभाग्य की बात हैक्योंकि देवता लोग इस मानव शरीर को प्राप्त करने के लिये तरसते हैं क्योंकि मुक्ति और अमरता देने दिलाने वाले तत्त्वज्ञान की प्राप्ति एक मात्र मानव शरीर से ही संभव हैअन्यथा किसी भी शरीर से नहीं। यह बात अलग की है कि परम प्रभु किसी भी जीव को ही चाहे तो उसे मुक्त और अमर बनाने के लिये उसकी कृपा विशेष ही काफी हैलेकिन यह कृपा विशेष अपवाद स्वरूप ही किसी किसी को मिल जाया करती हैपरन्तु वैधानिक रूप में मुक्ति और अमरता का साक्षात् बोध करा देना तथा अंततः उसे उपलब्ध भी करा देना एकमात्र आरक्षित् अधिकार तत्त्वज्ञान को ही है और एक मानव शरीर के अतिरिक्त अन्य किसी भी शरीर धारण करने वाले जीव –जीवात्मा-आत्मा को तत्त्वज्ञान कि प्राप्ति और साक्षात् बोध हो नहीं सकता। मानव शरीर सृष्टि के अंतर्गत सर्वश्रेष्ठसर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोत्तम रचना है। ऐसे मानव शरीर को पानाजिसके लिये देवतागण भी तरसते हैंवह शरीर आप जीव-जीवात्मा को मिली ही एकमात्र अपने जीवन लक्ष्य रूप मुक्ति और अमरता का साक्षात् बोध प्राप्त करने के लिये ।
दूसरी बात यह है कि मनुष्य शरीर भी तो लोगों को मिलती और समाप्त होती रहती है। अनेकानेक मनुष्य अनेकानेक विधान के खोज के माध्यम से मुक्ति और अमरता कि खोज करते रहेलेकिन उपलब्ध नहीं हो सका। इसलिये मनुष्य शरीर पाने मात्र से ही अमरता मिल ही जायेगी –यह तो कोई गारण्टी (पक्का वचन) तो दी नहीं गई है। मनुष्य उन भगवदावतारियों से यदि उस समय मिलेजब परम प्रभु का भू-मण्डल पर अवतरण होकर भ्रमण हो रहा होतब वह तत्त्वज्ञान द्वारा ही उस मुक्ति-अमरता को प्राप्त कर सकता है। ऐसा सुअवसर भी प्रायः युग-युग में एक-एक बार ही देखने-जानने-पाने को मिलता है यानि सत्ययुग में श्रीविष्णु जीत्रेतायुग में श्रीरामचन्द्र जीद्वापरयुग में श्रीकृष्ण जी तथा इस कलियुग में सदानन्द जी भी वही तत्त्वज्ञान दे रहे हैंजिसे वे तीन दिये थे।
पहले तो मनुष्य शरीर ही दुर्लभदूसरे भगवदावतार कालीन –समय में होना तो अत्यधिक ही दुर्लभ होता हैउसमें भी भगवदावतार कि जानकारी मिलना तथा उनके सम्पर्क में आना तो उससे भी अत्यधिक दुर्लभ बात है और उससे भी दुर्लभ बात है परमप्रभु कि कृपा विशेष प्राप्तकर बोधित होना। तत्पश्चात् सबसे दुर्लभ यानि परम दुर्लभ बात यह है कि तत्त्वज्ञान हासिल करने के पश्चात् निष्कपटतापूर्वक सर्वतोभावेन भगवद् अर्पण करता-होता हुआ अनन्य भक्ति –सेवा-प्रेम भाव में परमप्रभु का कृपा विशेष से प्रेम पात्र बनकर शरीर पर्यन्त अनन्य भाव से शरणागत रहना ।
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! प्रायः ऐसा देखा जाता है कि जब बरसात का मौसम आता है और बाढ़ का पानी आ जाता है तो छोटे –छोटे गड्ढों में जल ही जल दिखाई देने लगता हैं ताल-तलैया,नदी –नाला में भी जल-जल चारों तरफ जल ही जल दिखाई देने लगता है छोटे-बड़े नदी नालों से आकर मिलने से बड़ी –बड़ी नदियाँ सागर जैसी (जो सागर न देखा होउसके लिये) दिखाई देने लगती हैं। साथ ही साथ छोटे-छोटे गड्ढों के पास मेंढक भी अनेकानेक आकर प्रायः सभी यही आवाज लगाते हैं कि टर्र टर्र टर्र यानी सभी यही कहते हैं कि हम आ गये हैंतू सब टर्र –हट जा क्योंकि जो कुछ हैं सो मै ही हूँ और कोई कुछ नहीं है ! इसी प्रकार कुछ पूर्व से ही अवतार सम्बन्धी भविष्यवाणियाँ आदि होने लगती हैं जिसे सुन-पढ़कर सामान्य साधकसिद्धयोगीमहर्षि तथा आध्यात्मिक सन्त –महात्मागण भी प्रायः सैकडों कि संख्या में ही अपने को भगवददावतार घोषित करने –कराने लगते हैं। इस प्रकार सभी केवल घोषणा करते तथा अपना-अपना प्रचार-प्रसार करते रहते हैं। लगता है कि उनके पास केवल मुख ही हैं जिससे वे बोल रहे हैं कि धरती पर एक बार केवल एक ही अवतार होता है और वह अवतार मैं ही हूँ ।
सोsहँ-हँसो  तथा आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म –ज्योति या नूर या डिवाइन लाइट या जीवन-ज्योति आदि एक मात्र मैं ही जानता हूँ। मेरे सिवा अन्य कोई नहीं जानता। आदि –आदि ऐसा सभी प्रायः घोषित करने लगते हैं ! प्रायः सब के सब एक ही श्वाँस –निःश्वाँस से हँसो का (वह भी उल्टा) सीधे कि जानकारी ही नहीं। उल्टा –सीधा जाप से नुकसान –फायदा या हानि – लाभ क्या होता हैक्या नहीं –यह भी उन्हें पता नहीं ।(प्रायः सभी ही उल्टा जाप सोsहँ-ज्योति को भगवान का नाम-रूप कहकर अपने अनुयायियों को जना –दर्शा रहे हैं ! कुछेक नाद बिन्दु तो कुछेक खेचरी करा रहे हैं तथा इसी सोsहँ-ज्योति को ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप खुदा-गॉड-भगवान तथा आध्यात्मिक सोsहँ-साधना को ही तत्त्वज्ञान कहकर अपने ही अवतारी बन जा रहे हैं। थोड़ा भी दूसरे कि नहीं सुनते कि ऐसा ही सैकड़ों कह रहे हैं तो इसमें सहीं कोन हैं। सभी के सभी ही अपना-अपना राग अलाप रहे हैं तो यही सोsहँ व ज्योति,खेचरी व अनहद के सिवाय उन्हें कुछ पता भी नहींफिर भी वे भगवान या अवतारी सद्गुरु आदि बन-बनकर समाज को ठगते और गुमराह करते आ रहे हैं ! आज भी ऐसे ही कर रहे हैं ! सत्ययुगत्रेता और द्वापर युग में भी श्री विष्णु-राम-कृष्ण जी समय भी ऐसा ही हुआ था । अब सभी का नकली नकाब हट रहा है । अब पर्दाफास हो जा रहा है । आप सभी झूठे हो –असल तत्त्वज्ञान यह है कि वास्तविक रूपअसल रूप भगवदावतार के आने पर अवतरण के पूर्व से ही अवतारी बन –बनकर  चारों तरफ घोषणाओं पर घोषणायें करते रहते हैं परन्तु समाज में अराजकता एवं आतंक तथा अत्याचार एवं भ्रष्टाचार का साम्राज्य छाया हुआ है । सब कैसे ठीक होगा क्या केवल राग अलापने से धर्म कि स्थापना हो जायेगी तथा वे भगवान बन जायेंगे अथाह धन-सम्पत्ति तथा विशालकाय शिष्य एवं अनुयायी बना बनाकर उसी में फूले हुये हैं कि हमारे पास इतनी काफी संख्या में अनुयायी हैं तो हमारे पास इतने आश्रमकेन्द्र व कार्यालय हैं तो हमारे पास इतने आश्रमकेन्द्र व कार्यालय हैंआदि आदि ।
इन मिथ्या वादियों तथा मिथ्या ज्ञानाभिमानियों को कैसे समझाया जाय कि देवताओं का अगुआ इन्द्र भगवान नहीं होता ! धन का भण्डारी कुबेर भगवान नहीं होता! योग-साधना या अध्यात्म के सर्वोच्च पद पर पदासीन सबसे लम्बे समय तक समाधि लगाने वाले शंकर जी भी भगवान नहीं होते! पुनः योग के विशेषज्ञ पतंजलि भगवान नहीं हुये !  मायावी व चमत्कारी रावण आदि राक्षस भगवान नहीं कहलाये । चौरासी हजार ऋषियों के लिये एक विश्वायतन चलाने वाले शौनक भी भगवान नहीं हुये ! ये सभी ही मायावी (धन-जन-आश्रम-मान-प्रतिष्ठा) रूपी चकाचौध के शिकार हो चुके हैं । अब इन्हें समझाना भी आसान नहीं रह गया है । हम तो इन मिथ्यावादियों एवं मिथ्या ज्ञानाभिमानियों को चुनौती के साथ सूचना भिजवा चुके हैं तथा इन लोगों को सूचित कर-करवा दिये हैं कि सोsहँ व ज्योति –साधना तत्त्वज्ञाननहीं होता । अध्यात्म जीवात्मा की साधना हैभगवान का तत्त्वज्ञान नहीं । आत्मा कभी भी परमात्मा नहीं; ईश्वर कभी परमेश्वर नहींब्रह्म कभी परमब्रह्म नहींचेतन कभी भी करतार (कर्ता) नहीं हँस कभी भी परमहंस नहींसोsहँ व ज्योति कभी भी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्नहीं; गुरु कभी भी सद्गुरु नहीं। अधिक धन –जन –आश्रमप्रसारमान –प्रतिष्ठा –साधन भगवान कि पहचान नहीं। अब से भी तो आप लोग अपने को मात्र योगी-यति-ऋषि –महर्षिगणआध्यात्मिक सन्त –महात्मा तथा आत्मा वाला गुरु रहो।मिथ्यावादिता व मिथ्याभिमान छोडोंभगवान व अवतारी न बनो। भगवान व अवतारी न बनो। गुरु ही कहलायेंसद्गुरु न बनें। आपका भी महत्व सही रहने में ही बढ़ेगा। वास्तविक अवतार प्रकट हो चुका हैआप सब लोग अब से भी तो संभल जायेंअन्यथा कहीं ठिकाना नहीं मिलेगा ।

अतः वास्तविक सत्य एकमात्र यहीं परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परम भाव –प्रभाव वाला परम ब्रह्म परमात्मा या खुदा-गॉड-भगवानही हैजिसे एकमात्र तत्त्वज्ञान से ही जाना-देखा-परखा-पहचाना जा सकता है । शिक्षा और स्वाध्याय को कौन कहेयोग-साधना अथवा अध्यात्म की भी पहुँच यहाँ तक नहीं होती । आध्यात्मिक की अन्तिम पहुँच आत्मा तक ही होती रहती है । सम्पूर्ण कर्म तथा सम्पूर्ण अध्यात्म का आदि स्रोत तथा अन्तिम लय रूप एकमात्र यही तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान ही है जो खुदा-गॉड-भगवान का ही एकमात्र परिचय-पहचान और लक्ष्य विधान है । सत्ययुग में श्री विष्णु जीत्रेता युग में भी श्री राम चन्द्र जी तथा द्वापर युग में श्री कृष्ण जी के साथ ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् था तथा वर्तमान में एकमात्र सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस ही उस परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् और तत्त्वज्ञान वाले हैं । परीक्षा कर सकते है ! वर्तमान में पूरे भू-मण्डल का ही एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस ही हैंअन्य कोई भी नहीं । जिस किसी को भी कर्म-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान---तीनों की ही सम्पूर्ण जानकारीजिससे जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान का विराट पुरुष से भी बातचीत करते हुये साक्षात् दर्शन व मुक्ति –अमरता का साक्षात् बोध भी प्राप्त होता है ,चाहिये तो उसे एकमात्र सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस (सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्) वाले से ही मिल परख-पहचान प्राप्त कर सकता है। सब भगवत् कृपा!

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