गोपालगंजजेल १३/१२/१९८२ ई॰
स्वर-विज्ञान से तात्पर्य स्वास-प्रस्वास तथा
उसके माध्यम से प्रवेश करने वाली शिव शक्ति के क्रमबद्ध प्रयौगिक अध्ययन से है।
जिसके द्वारा शिव और शक्ति की यथार्थ जानकारी और दर्शन के साथ ही साथ सरस्वती के
यथार्थ रूप स्वरसती की जानकारी होती है। यही आत्म-ज्योति रूप आत्म-शक्ति के कार्य
करने का माध्यम तथा पद्धति है जो शक्ति का भौतिक क्रिया तथा भौतिक कार्यों से
शक्ति का सम्बन्ध जानकारी के साथ करना-कराना तथा उससे आवश्यकतानुसार यथोचित लाभ
प्राप्त करना होता है। आत्म-शक्ति परमात्मा के निर्देशन में इसी स्वर-साधना से
प्रकृति का संचालन तथा नियंत्रण करती-कराती है। भौतिक कार्य सिद्धि हेतु यह अति
सुगम तथा अतिप्रभावशाली स्वर-विज्ञान की पद्धति है।
स्वर-विज्ञान अध्यात्म-विद्या नहीं होती है, अपितु कर्म एवं अध्यात्म के मध्य संबंधों तथा
क्रिया-प्रक्रिया का तथा उसके परिणामों के जानकारी की एक वैज्ञानिक पद्धति है
स्वर-विज्ञान विद्यतत्त्व के अन्तर्गत एक ऐसी पद्धति है, जिसकी जानकारी प्रत्येक मानव के लिये
अनिवार्यतः होनी चाहिये। क्योंकि एक ऐसा कोई प्राणी सारी सृष्टि के अन्दर नही होगा
जिसका सम्बन्ध या संचालन तथा नियंत्रण इससे (स्वर से) न होता हो। इस प्रकार जिससे
हमारी उत्पत्ति हो, जिसमें हमारा सरंक्षण
निहित हो तथा जिससे हमारी रक्षा होती हो और उसी को न जाना जाय,उसी को न समझा जाय,उसी से अपना सम्बन्ध कायम न किया, तो फिर दुनिया का कोई सम्बन्ध किस काम का रहा? शरीर में जब स्वर ही नहीं रहेगा तो फिर इसको
पूछने तथा जानने-मानने वाला कौन रहेगा? अर्थात् कोई नहीं।
स्वर
की जानकारी को यथार्थतः हासिल करके अपने क्रियायों-प्रक्रियायों को यदि उसी
में जोड़ दिया जाय तो सृष्टि में कोई ऐसा कार्य मात्र परमात्मा और आत्मा बनना छोड़कर
नहीं होगा, जो इच्छानुसार सम्भव न
हो जाय, स्वर साधक हो और उसके लिये कोई कार्य असंभव
ही नहीं, सिवाय अपवाद स्वरूप परमात्मा की जानकारी एवं
प्राप्ति छोड़कर क्योंकि परमात्मा की जानकारी और प्राप्ति परमात्मा होती है किसी भी
और से नहीं। जिस वस्तु की जितनी आवश्यकता होती है उसकी उसी आवश्यकता के अनुसार
जानकारी की भी आवश्यकता होनी चाहिये, अन्यथा उपलब्धि के बावजूद भी उसकी समझदारी के बगैर उसका आनन्द तो पता ही
नहीं, बार-बार उसी की चाह करता हुआ नासमझदारी वश
कष्ट, हानि, असफलता आदि पाकर स्थान-स्थान पर परेशानी और
कष्ट पता रहता है, इतना ही नहीं, बराबर ही बहुत से बन्धु तो विनाश तक के मुख
में चले जाते हैं जबकि वे अपने स्वर के द्वारा ही आत्म-शक्ति को सूचित करके
क्योंकि स्वर आत्म-शक्ति के कार्य करने का माध्यम ही होता है जिसके माध्यम से
चलकर शक्ति किसी का सहयोग तथा किसी का विरोध करती रहती है। अंततः बतलाऊँ कि
शरीर क्रियाशील होने तथा रहने के लिये जितनी आवश्यकता स्वरों (श्वांश-प्रश्वासों)
की पड़ती है उतनी ही आवश्यकता यदि उसके जानकारी की भी कर लिया जाय तो कोई व्यक्ति न
तो किसी प्रकार के कमी से परेशान होगा और न किसी असफलता से न तो किसी रोग-व्याधि
से परेशान होगा और न किसी प्रकार के आपत्ति-विपत्ति से ही। अर्थात् जीवन का हर
पहलू ही इच्छापूर्ति तथा अभीष्ट सफलता से युक्त हो जायेगी। बशर्ते अपनी समस्त
क्रियायों-प्रक्रियाओं को नहीं आत्मा-परमात्मा से, तो कम से कम स्वरों से ही जोड़ कर उसी के
अनुसार कर दिया जाय तो भी काम बने।
सद्भावी बंधुओं! हमें तो वर्तमान समाज को
देखकर इतना आश्चर्य हो रहा है, इतनी हँसी आ रही है कि उतना लिखना तो लिखना है कि मैं बोल या कह नहीं
पाऊँगा क्योंकि यह प्रत्यक्षानुभूति की बात है अभिव्यक्ति की नहीं। आश्चर्य और हँसी
की बात यह है कि क्या हो गया दुनिया वालों को कि बात करके या व्यवहार द्वारा अथवा
कृति में भी सम्पर्क में आने पर तो सभी ही श्रेष्ठता, उच्चता तथा उत्तमता को स्वीकार करते हैं फिर
भी मेरे सत्य-धर्म-न्याय एवं नीति के अनुसार नहीं चल प रहे हैं। दुष्टों से, अत्याचारियों से तथा भ्रष्ट कर्मचारियों एवं
अधिकारियों आदि से इतना दलित एवं जगह-जगह पर प्रताड़ित तथा पीड़ित हो चुके हैं कि
लाख कहने और समझाने तथा व्यावहारिक स्तर पर दिखलाने के बावजूद भी कि हम लोग किसी
भी जुल्मी से काम या कमजोर नहीं है क्योंकि हम लोग परमात्मा या परमसत्य के साथ हैं
तथा हम लोगों का भू-मण्डल पर आगमन ही इन लोगों को ‘ठीक’ करने के लिये हुआ है। सर्वप्रथम दुष्टता, अत्याचार एवं भ्रष्टाचार को तत्पश्चात्
दुष्टों, अत्याचारियों एवं भ्रष्टाचारियों को ‘ठीक’ करना तथा सज्जनों की रक्षा-व्यवस्था हेतु
सत्य-धर्म की स्थापना के साथ ही सत्पुरुषों का राज्य कायम करना या समस्त भ्रष्ट
कर्मचारियों, अधिकारियों, प्रशासकों, विधायकों, सांसदों तथा मंत्रियों तक को (ठीक) करते
हुये सत्पुरुष बनाना मात्र ही हम लोगों को परमप्रभु रूप सभी के कल्याण कारक परमात्मा
या परमसत्य के तरफ से एकमात्र यही कर्तव्य निर्धारण हुआ है जिसमें हम लोगों को
अपना तन-मन-धन मुसल्लम ईमान के साथ ‘परम’ के लिये यानी परमार्थ
हेतु ‘परम’ के निर्देशन एवं आज्ञा तथा शरणागत रूप में
ही सेवा-भक्ति के रूप में लगते-लगाते रहना है। इतना के बावजूद भी वर्तमान में शरीर
और सम्पत्ति या कामिनी कांचन या परिवार और संसार में जकड़कर इतना जढ़ी बन गये हैं कि
इन्हें इस जढ़ता से विलग (प्रथक्) करके शान्ति और आनन्द तथा कल्याण वाले आत्मा की
तो इन्हें आवश्यकता ही नहीं महसूस हो रही है साथ ही सर्व शक्ति-सत्ता सामर्थ्य
वान् रूप परमात्मा या परमसत्य या परमशान्ति, परमानंद या सच्चिदानंद अपने जीवात्मा के
स्वामी रूप परमब्रह्म परमेश्वर की भी आवश्यकता नहीं रह गयी है। हमारे समक्ष अब तक
एक भी ऐसा व्यक्ति, विद्वान, विचारक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, मांत्रिक, तांत्रिक एवं धर्म-प्रचारक रूप आध्यात्मिक
सन्त-महात्मा आदि दिखलायी दिये जो अपने पद, उपाधि या प्रतिष्ठा के अनुसार सही तरीके से
अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुये सत्य-धर्म-न्याय-नीति को या इनमें से किसी एक को
भी सही तरीके से अपने जीवन या समाज सुधार एवं समाज-कल्याण को अपना कर्त्तव्य समझकर
उस पर असल रूप में चल रहे हों। आत्मा और परमात्मा तो आत्मा और परमात्मा है, अपने स्वास-प्रस्वास रूप स्वरों की जानकारी
भी जिसके बगैर जीवन का दो-चार मिनट भी टिकना मुश्किल है जिसके बगैर कोई माता-पिता, पत्नी एवं पुत्र-पुत्री आदि भी पूछ ही नहीं
सकता, पूछेगा भी तो रोने-गाने, फुकने-तापने आदि हमारे-आप के शरीर की
समाप्ति हेतु ही पुछेंगे, फिर भी हम उन्हीं के पीछे मर रहे हैं, उन्हीं के सेवा-भाव को अपनी सेवा-भक्ति समझ
बैठे हैं। अपने आत्मा, परमात्मा की आवश्यकता
भी नहीं महसूस हो रही है। अपने स्वास-प्रस्वास रूप स्वरों की भी जानकारी नहीं कर
रहे हैं जो जीवन की अत्यावश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्यता भी है। बंधुओं घबड़ाइयें नहीं, आइये स्वरों की पद्धतियों को जानें तथा उस
पर अपन्रे जीवन को सटायें और उसके लाभों से लाभान्वित हों।
दैनिक गति-विधियों को स्वर से जोड़ना
शरीर के अन्तर्गत सबसे आवश्यक यदि कोई
पदार्थ-तत्त्व है तो सर्वप्रथम दृश्यमान में भी स्वास-प्रस्वास रूप ‘स्वर’ है इसके पश्चात् ही कोई अंग या इंद्रियाँ
है। इसलिये किसी भी अंग या इंद्रियों की सफाई तथा प्रयोग में लाने के पूर्व ‘हमें’ स्वास-प्रस्वास रूप ‘स्वर’ पर ध्यान देना चाहिये। जिससे हमारी सारी
अन्तःकरण तथा बाह्य मशीनरियाँ चालित हैं। प्रातः शयन से जगते ही सर्व प्रथम यह
देखना चाहिये कि हमारे स्वर की गति-विधि अनुकूल है या प्रतिकूल तत्पश्चात् अनुकूल
है तब तो प्रसन्नता की बात है क्योंकि प्रभु की कृपा से ही ठीक है परन्तु प्रतिकूल
होने या रहने पर प्रभु की कृपा रूप अनुकूलता हेतु थोड़ा सा उसी के विधि-विधानों से
अनुकूलता हेतु प्रयत्न करना चाहिये। यह बात अवश्य ही शिरोधार्य करना चाहिये
क्योंकि दैनिक जीवन की सारी गति-विधियाँ ही यहीं से आरंभ होकर रात्रि के शयन में
समाप्त हो जाती है। अतः हम आप सभी बंधुओं को चाहिये कि प्रारम्भिक अवस्था में ही
स्वर-परीक्षण कर लें तत्पश्चात् आने वाले हर घड़ी दर-घड़ी अपनी क्रियायों में रहते
हुये ही स्वर के तरफ मनोदृष्टि बनी रहे क्योंकि स्वर की अनुकूलता में ही क्रियाओं
की क्रियायों में रहते हुये ही स्वर के तरफ मनोदृष्टि बनी रहे क्योंकि स्वर की
अनुकूलता में ही क्रियायों की सफलता है प्रतिकूलता में नहीं। प्रतिकूलता में तो
विफलता ही हाथ लगती है जो कष्टदायी होती है। इसलिये दैनिक-गतिविधियों में विफलता
या असफलता रूप कष्टों से बचने तथा सफलता रूप आनन्द की प्राप्ति हेतु स्वर परीक्षण
तत्पश्चात् स्वर का अनुकूल होना या करना अनिवार्य रूप में स्वीकार किया जाय।
स्वर-परीक्षण की विधि:- शरीर के अंतर्गत लगभग बहत्तर हजार नाडियाँ
है। जिनमें दस नाड़ी मुख्य है, उसमें भी तीन नाडियाँ स्वर या प्राण-संचार या गति-विधि में प्रधानता के
रूप में क्रियाशील रहती है जो इंगल्ला, पिंगल्ला तथा सुषुम्ना नाम से जानी-कही जाती
है। हालांकि इंगल्ला, पिंगल्ला, सुषुम्ना --- तीनों ही अन्य विविध नामों से
भी जानी-कही जाती है जैसे- इंगल्ला नाड़ी –गंगा नदी, पिंगल्ला नाड़ी—यमुना नदी, सुषुम्ना नाड़ी-सरस्वती नदीके रूप में है।
पुनः इंगल्ला-चन्द्र नाड़ी, पिंगल्ला –सूर्य नाड़ी तथा सुषुम्ना ब्रह्म नाड़ी भी है। तीनों नाड़ियों में
दो इंगल्ला और पिंगल्ला ही स्पष्टतया दिखलायी देती है। इंगल्ला और पिंगल्ला ही
निगेटिव और पाजिटिव तथा सुषुम्ना न्यूट्रल होती है। ठीक इसी प्रकार इंगल्ला जैसा
कार्य-इलेक्ट्रान और पिंगल्ला जैसा –कार्य प्रोटान तथा सुषुम्न्ना जैसा कार्य
न्यूट्रान का होता है। इस प्रकार इन तीन नाड़ियों से ही स्वर-संचार या प्राण-संचार
की क्रिया-प्रक्रिया होती है। जिस प्रकार इन तीन नाड़ियों से ही स्वर-संचार या
प्राण-संचार की क्रिया-प्रक्रिया होता है। जिस प्रकार धन तथा ऋण विद्युत तारों से
ही विद्युत-शक्ति प्रवाहित होती है तो उस विद्युत धारा (करंट) जैसा ही इंगल्ला तथा
पिंगल्ला दो नाड़ियों से ही आत्म-शक्ति क्रियाशील होती है तो उस आत्म-शक्ति की
प्रवाह रूपी क्रियाशीलता ही प्राण है तथा जहाँ बात विद्युत की है तो विद्युत जैसा
ही आत्म-शक्ति की ही एक जड़वत् यानी चेतना हीन शक्ति मात्र है जो आत्म-शक्ति मात्र
रहा जो शरीरों के माध्यम से कार्यों को करता है यही कारण (पृथकता) है कि
शक्ति-चेतना हीन तथा आत्म-सत्ता चेतना युक्त रूप में गतिशील तथा क्रियाशील है।
आत्म-सत्ता शरीर (सजीव) के माध्यम से तथा शक्ति वस्तुओं (निर्जीव) के माध्यम से
क्रियाशील तथा गतिशील होने लगे। जिसमें जीव-शरीर-परिवार तथा समाज रूप में
आत्म-सत्ता तथा अणु-पदार्थ-वस्तु तथा संसार (जड़ जगत्) रूप में शक्ति गतिशील होने
लगी। चूँकि आत्म और शक्ति संयुक्त रूप में थे इसलिये शरीर और सम्पत्ति संयुक्त रूप
में क्रियाशील तथा गतिशील होते हैं। आइये पुनः स्वर परीक्षण वाले विषय के तरफ चला
जाय। स्वर परीक्षण की पहली क्रिया है निद्रा से जगने पर यह तुरन्त देखा जाय कि
प्राण-संचरण—इंगल्ला, पिंगल्ला तथा सुषुम्ना
में से किस नाड़ी से हो रहा है अर्थात् किस नाड़ी से स्वास-प्रस्वास की क्रिया हो
रही है। यदि बायें नथुनें से होता है तो इंगल्ला है, दायें नथुनें से होता है तो पिंगल्ला है तथा
दोनों समान गति-विधि में हो तो सुषुम्ना है। सुषुम्ना नाड़ी को ही शिव नाड़ी तथा
ब्रह्म-नाड़ी भी कहा जाता है। हाथ की अंगुलियों को नथुनों (नाक) के समक्ष करके तेज
गति में स्वास-प्रस्वास की लम्बी क्रिया करने से पता चल जाता है कौन से नाड़ी या
नथुना चल रहा है और कौन बन्द है या कौन हल्का और कौन तेज है या दोनों ही समान गति
से चल रहे हैं। स्वतः परीक्षण न हो जाने की अवस्था तक हाथ से अभ्यास जारी रखना
चाहिये। यही स्वर-परीक्षण है।
स्वर परीक्षण से भविष्य- फल का पूर्वाभास :-
स्वर पद्धति या प्राण संचार की क्रिया कोई मनमाना पद्धति नहीं है। यह
परमात्मा के निर्देशन में आत्म-शक्ति के कार्य करने की पद्धति है जो सामान्य
स्थिति में निश्चित एवं व्यवस्थित क्रम से होता रहता है या चलता रहता है। जब तक
स्वास्थ्य में कोई गड़ बड़ी नहीं होगी तब तक इसके क्रियायों में कोई गड़बड़ी नहीं हो
पायेगी। परन्तु मात्र ऐसा आभास ही है यथार्थता तो इसमें है कि स्वर की गड़बड़ी के
बगैर किसी भी प्रकार की शारीरिक या सांसारिक कोई गड़बड़ी या असफलता हो ही नहीं सकता।
किसी भी प्रकार की परेशानी या कष्ट या असफलता के पीछे स्वर की गड़बड़ी ही होगी।
इसमें सन्देह के गुंजाइश नही रहती है।
सद्भावी बंधुओं! किसी भी प्रकार की विफलता या
असफलता का पूर्वाभास यानी पूर्व जानकारी होने पर तथा सफलता में उसे परिवर्तित कर
लेने पर कोई साधक दृढ़ता एवं निर्भयता पूर्वक प्रभावी तरीके से कार्य करने लगता है
क्योंकि विफलता या असफलता का सफलता में परिवर्तन कार्य करने की क्षमता महान् साहस
को उत्पन्न करता है जो सफलता के लिये अनिवार्यतः पहलू भी होता है। स्वर-परीक्षण से
भविष्य की जानकारी, कार्यों की असफलता और
सफलता की जानकारी तथा अपने इच्छानुसार अपने होने वाले भविष्य की असफलता को भी
सफलता में परिवर्तित कर-करा लेना स्वर-परीक्षण से विशेष लाभकारी बाते हैं। इसलिये
समस्त बंधुओं को ही अपनी हर गति-विधि को स्वर या प्राण या प्राण-संचार के माध्यम
से ही कर लेना चाहिये। यदि भौतिक कार्यों की सिद्धि आत्म-शक्ति से करनी-करानी हो, तब तो स्वर के अनुसार अपने को कर देना
अनिवार्य हो जायेगा। इसमें सन्देह नहीं। यही सत्य है।
गोपालगंज जेल १६/१२/८२ ई॰
स्वर-पद्धति की प्रक्रियात्मक जानकारी:-
भगवद् प्रेमी सद्भावी बंधुओं! आइये अब देखा
जाय कि स्वर या स्वास-प्रस्वास या प्राण-संचार की क्या क्रिया-प्रक्रिया है। इसकी
पद्धति यह है कि शुक्ल-प्रतिपदा को सूर्योदय के समय इंगल्ला से स्वर प्रवाहित होती
है जब कि कृष्ण प्रतिपदा (एकम) को सूर्योदय के समय पिंगल्ला से स्वर प्रवाहित होती
है। यह स्वर प्रवाह एक-एक घण्टे के अन्तराल पर बारी-बारी चलता या होता है। अर्थात्
शुक्ल पक्ष प्रति-पदा (एकम) को सूर्योदय के समय से एक घण्टे तक इंगल्ला तत्पश्चात्
पुनः एक घण्टा पिंगल्ला इस प्रकार हर चौबीस घण्टे में इंगल्ला और पिंगल्ला की बारह
आवृत्तियाँ होती है। यह क्रम तीन-तीन दिन का होता है यानी प्रतिपदा से तीज तक
इंगल्ला तत्पश्चात् चतुर्थी से छठवीं तक पिंगल्ला पुनः सप्तमी से नवमी तक इंगल्ला
पुनः दशमी से द्वादशी तक पिंगल्ला, तत्पश्चात् पुनः द्वादशी से पुर्णिमा तक इंगल्ला नाड़ी में स्वर-संचार होता
रहता है। ठीक यही क्रम कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से पिंगल्ला से प्रारम्भ होता है।
सामान्यतः इंगल्ला और पिंगल्ला का यही विधि-विधान है। आइये अब सुषुम्ना की की बात
देखी जाय। इंगल्ला और पिंगल्ला की तीन विशिस्ट संधियाँ होती है। प्रातः मध्याह्न
तथा साय या शाम की संधियाँ। सन्धि का अर्थ मेल-मिलाप या जुड़ने से होता है।
सन्धि-बेला में सामान्यतः विधि-विधान के अनुसार सुषुम्ना में स्वर-संचार होता है
अर्थात् इंगला और पिंगला दोनों समान गति में प्रवाहित होती रहती है जिस गति
को सुषुम्ना-स्वर-संचार कहते हैं। अर्थात् सुषुम्ना-स्वर-संचार वह है जिसके
अन्तर्गत पृथक्-पृथक् रूप में इंगला और पिंगला दोनों का संचार बन्द होकर, दोनों ही एक साथ ही सहमति में प्रवाहित होती
रहती है। हालांकि ऐसा भी हो सकता है कि इंगला या पिंगला में से कोई हल्का रूप
तथा सुषुम्ना प्रधान हो अथवा इन दोनों में से कोई प्रधान और सुषुम्ना हल्का होता
है। जो ही प्रधान होता है वही प्रभावी होता है जो सामान्य या हल्का होता है वह
अपने गुण से कायम रहता है फिर प्रभावी होता है जो सामान्य या हल्का होता है वह
अपने गुण से कायम रहता है फिर भी प्रभावी नहीं होता। सामान्यतः गति में सबका
अपना-अपना गुण-प्रभाव पृथक्-प्रथक् होता है जो अब देखा जायेगा।
इंगला, पिंगला और सुषुम्ना के गुण
सद्भावी बंधुओं! दैनिक जीवन में कदम-कदम पर
होने वाली दुर्घटनाओं से बचने तथा सफलता हासिल करने हेतु यह अत्यावश्यक है कि
स्वर-संचार पर सर्वप्रथम विशेष दृष्टि देनी होगी। अपने जीवन के समस्त कार्यों को
सर्वप्रथम दो भागों में विभाजित करना होगा। पहला-मुलायम तथा शुभ कार्य तथा दूसरा
---कठिन तथा क्रूर या अशुभ कार्य। पहला मुलायम तथा शुभ कार्यों कि पुष्टि या सफलता
इंगला-स्वर-संचार के द्वारा तथा कठिन या क्रूर तथा अशुभ कार्यों की पुष्टि या
सफलता पिंगला-स्वर-संचार के द्वारा होता रहता है। विफलता या असफलता तथा
दुर्घटनायें विपरीत या प्रतिकूल नाड़ी स्वर-संचार से होता है। इसके साथ ही यह बात
विशेषतः ध्यान देने की है कि ब्रह्म-ध्यान, पूजा-पाठ, संद्योपासना आदि भक्ति-भाव मात्र के लिये ही
सुषुम्न्ना-स्वर-संचार शुभ है। शेष सांसारिक कार्यों हेतु तो यह सबसे खतरनाक, घातक तथा विनाशक का कार्य कर ही कराती है।
इससे कभी भी सांसारिक लाभ नहीं मिल सकता है। यह सांसारिकता की कट्टर शत्रु तथा
संद्योपासना, भक्ति-भाव हेतु शीघ्रातिशीघ्र
फलदायी है। इससे सांसारिक क्रियायों में सदा ही सावधान रहना चाहिये। यह अपने
गुण-कार्य में सबसे प्रभावी होती है। सांसारिकता की सिद्धि हेतु इंगला नाड़ी और पिंगला नाड़ी-यही दोनों ही नियत है। इसलिये इन्ही के अनुकूल होकर या इनको अपने अनुकूल
बनाकर ही कार्य करना चाहिये। अपने जीवन के कार्यों को दो भागों में विभाजित करने
में असमर्थ हो तो यहाँ पर कार्यों की सूची देखनी होगी कि स्वरोदय में कार्यों की
सूची किस प्रकार है? कौन से कार्य किससे
होते हैं? यह जानकारी करना अत्यावश्यक है अन्यथा
स्वर-पद्धति दोष का भागी नहीं।
इंगला-स्वर-संचार से मुलायम कार्य करें
सद्भावी बंधुओं ! शुभ अथवा मुलायम या
कोमल कार्यों को इंगला-स्वर-संचार में ही सिद्धि दायक या सफलता प्रदान करने वाला
होता है। यदि ऐसे कार्यों को करना आवश्यक है तथा इंगला-स्वर संचार के स्थान पर
पिंगला-स्वर-संचार हो रहा है तब या तो तब तक अपने कार्यों के अनुसार कर लेना
अनिवार्य होगा। यह बार-बार कहना पड़ रहा है, हो सकता है कि मेरे लिखावट में पुनरावृत्ति
दोष दिखलायी देता हो, तो पुनरावृत्ति दोष न
देखकर उसे आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य और प्रभावी समझना चाहिये। एक बार पुनः कह दे रहा हूँ कि
विपरीत स्वर संचार में कार्यों को कदापि न करें। यदि उसी समय कार्य करना अनिवार्य
हो तो स्वर-संचार को अपने अनुकूल अवश्य कर लिया करें। अन्यथा कुप्रभावों से बचना
प्रभु कृपा ही होगी?
स्वरोदय कार्य सूची:-
जल पीना, पेशाब करना, दूर यात्रा पर जाना, प्रिय मिलन में जाना, शुभ यात्रा करना, जल बरसाना, दक्षिण, पश्चिम की यात्रा करना, पुत्री उत्पन्न करना, दान-दक्षिणा देना, पढ़ना, शरीर में शीतलता कायम रखना, देव-स्थापना, बावली खुदवाना, कूप खोदवाना, सरोवर आदि का प्रतिष्ठापन, शान्ति कर्म-करना, पुष्टि करना, दिव्य औषधि धारण करना, सेवा, कृषि बीज-बोना, प्रथम गृह-प्रवेश, स्थिर कार्य करना, आभूषण धारण करना, विद्या का आरम्भ, गुरु का पूजन करना, जन्म, यज्ञोपबीत-धारण करना, चौपायों का घर में आगमन, काल ज्ञान प्राप्त करना, गीत, वाद्य, नृत्यादि, स्वामी का सम्बोधन करना, विषादि को बाहर करना, योगाभ्यास आदि समस्त शुभ तथा शान्त और स्थिर
कार्यों को इंगला-स्वर-संचार में ही करें। अब आइये पिंगला-स्वर-संचार के
गुण-कार्य देखे जाय।
पिंगला-स्वर-संचार के गुण व प्रभाव से
क्रूर कार्य:-
सद्भावी बंधुओं! पिंगला नाड़ी, सूर्य नाड़ी भी कही जा सकती है। शरीर में
गर्मी या तेज आदि की पूर्ति, इसी नाड़ी के द्वारा जब प्राण-संचार या स्वर-संचार होता है, तो होता है। कठिन या क्रूर या गरम या
प्रभावी कार्यों को हमेशा-हमेशा ही इसी पिंगला-स्वर-संचार के माध्यम से ही
करना-कराना चाहिए। स्वर-संचार यदि अनुकूल नाड़ी में होकर प्रतिकूल नाड़ी में हो रहा
हो, तो तब तक कार्यों को स्थगित रखें जब तक कि
स्वर-संचार अनुकूल नाड़ी से या पिंगला नाड़ी न होने लगे। यदि कार्य तत्काल करना
आवश्यक हो, तो
स्वर-संचार-परिवर्तन-प्रिक्रिया से पिंगला-स्वर-संचार को अपने अनुकूल करने के
पश्चात् ही कार्यों को प्रारम्भ करना चाहिए। अन्यथा इसके कुप्रभाव का परिणाम
भुगतना पड़ता है। यदि कभी-कभार बच भी गये तो उसे प्रभु कृपा समझें ।
स्वरोदय कार्य सूची:- भोजन करना, शौच करना, कठिन विद्यायों का पठन-पाठन, स्त्री-प्रसंग करना, जल-पोत पर चढ़ना, विध्वंस करना, विषदेना, क्रूर एवं साहसिक कार्यों हेतु यात्रा करना, पुत्र उत्पन्न करना, स्नान करना, भोजन-पचाना, मदिरा-पीना, शास्त्रों का अभ्यास करना, शिकार करने जाना, पशुओं को बेचना या बेंचने जाना, यन्त्र-तन्त्र का व्यवहार करना, यक्ष बेताल एवं भूतों को रोकना, दुर्ग या पर्वतारोहण, पत्थर तोड़ना, लकड़ी काटना, ईट-पाथना, रत्नों का कार्य करना, चोरी करना, रथ, हाथी आदि की सवारी करना, तीर चलाना, पूरब उत्तर की यात्रा
करना, व्यायाम करना, मारण और उच्चाटन साधन करना, नाड़ी के जल में तैरना, लिखना, औषधि का प्रयोग करना, ध्युत-कर्म करना, गृह-प्रवेश करना, मोहन, शत्रु उच्चाटन, वशीकरण मंत्रों का प्रयोग करना, आकर्षण, बरसा रोकना, अग्नि उत्पन्न करना, क्रय-विक्रय करना, शत्रु-निग्रह, शयन, स्त्रियों का वशीकरण, राज-दर्शन, यज्ञादि तेज युक्त कार्य करना, प्रेत का आकर्षण, तेज कार्य करना, भोग आदि समस्त क्रूर एवं कठिन कार्य करना
आदि सभी कार्य ही पिंगल्ला-स्वर-संचार में ही करें या इन उपर्युक्त कार्यों में
पिंगल्ला-स्वर-संचार को अपने अनुकूल करके ही कार्यों को प्रारम्भ किया जाय। यदि
कार्य सिद्धि या सफलता की आवश्यकता हो तो यह नियम शिरोधार्य करना ही होगा।
स्वर-संचार के अनुसार कार्यों में सफलता पर सन्देह का विचार ही नहीं करना चाहिए।
सन्देह कार्यों में साहस घटाता है।
सुषुम्ना-स्वर-संचार का फल
सद्भावी बंधुओं! जैसा कि पिछले प्रकरणों में
लिखा जा चुका है कि सुषुम्ना स्वर-संचार सांसारिक कार्य अथवा कर्म का ही कट्टर
शत्रु तथा धर्म का जिगरी-दोस्त होता है। तत्पश्चात् पुनः छिन में
इंगला-स्वर-संचार तथा छिन में पिंगला-स्वर-संचार अथवा दोनों-इंगला और
पिंगला से ही सम-स्वर-संचार होता हो, तो इसे सुषुम्ना-स्वर-संचार कहा जायेगा। यह समस्त सांसारिक
कार्य-सिद्धियों का हरण करने वाली होती है इसलिये जब तक सुषुम्ना-स्वर-संचार की
गति-विधि रहे तब तक किसी भी कार्य की शुरुआत खतरनाक ही सिद्ध होगा। इसमें सन्देह
की गुंजाइश ही नहीं है इसलिये स्वर-संचार-परिवर्तन-पद्धति से स्वर-संचार के अनुकूल
अथवा स्वर-संचार के अनुकूल होकर अथवा बनाकर ही कार्य करें।
स्वर-संचार में पञ्चतत्त्व का स्थान
सद्भावी बंधुओं! अब तक हम लोगों ने
स्वर-संचार प्रक्रिया में इंगल्ला, पिंगल्ला तथा सुषुम्ना का स्थान तथा प्रभाव और उसका फल देखा गया। अब हम
लोग पञ्च तत्त्वों (पदार्थ-तत्त्वों) का स्थान तथा प्रभाव देखें। संपूर्ण सृष्टि
जिसमें जड़-जगत् की रचना या उत्पत्ति ही पञ्च तत्त्वों (पदार्थ-तत्त्वों) से हुई है
जिसमें मानव शरीर भी एक रचना है,कृति है अर्थात् यह मानव-शरीर की रचना भी इन्हीं पञ्च पदार्थ तत्त्वों से
ही की गयी या हुई है। इसलिये शरीर की सांसारिक कोई भी गति विधि तथा क्रियाशीलता
पञ्च-तत्त्वों से प्रभावित हुये बगैर कैसे रह सकता है। अर्थात् नहीं रह सकता।
चूँकि संसार (जड़-जगत्) पञ्च-पदार्थ-तत्त्वों
का ही परिवर्तित रूप है और शरीर भी पञ्च-पदार्थ-तत्त्वों का ही परिवर्तित रूप है।
इससे शरीर एक इकाई तथा संसार एक वृहदाकार रूप में हैं । यही कारण है कि शरीर संसार
में चिपकी रहती है यानी संसार के प्रति अभिमुख रहती है और रहना भी चाहती है जिससे
सांसारिक कहलाने लगती है। परन्तु जो मानव शरीर जैसे ही अपनी दृष्टि जड़-जगत् रूप
संसार से मोड़ लेता कार स्वर-संचार-प्रक्रिया में भी जोड़ देता है वह परमात्मा, आत्मा से तो नहीं; फिर भी आत्म-शक्ति के संचार रूप
प्राण-संचार-शक्ति से युक्त तो हो ही जाता है। जड़-जगत् चालित होता है जिससे
अर्थात् परमसत्ता रूप परमात्मा द्वारा जिस माध्यम से जड़-जगत् रूप संसार चालित या
गतिशील होता है वही है आत्म-शक्ति। तत्पश्चात् आत्म-शक्ति जिससे या जिस प्रक्रिया
से कार्य करती है या चालित होती है उसी का नाम है प्राण-संचार-प्रक्रिया या
स्वर-संचार-प्रक्रिया जो शरीर परमात्मा, आत्मा की जानकारी से अलग रहते हुये भी, कम से कम प्राण-संचार-प्रक्रिया या
स्वर-संचार-प्रक्रिया से संबंध नहीं जोड़ लेता, वह अभागा, नीच, अधम एवं आत्मघाती आदि उपाधियों से युक्त
रहते हुये पशु-पक्षी, कीट-पतंग जैसे जड़-जगत्
रूप संसार के प्रति अभिमुख रहते हुये स्वतः एक जढ़ी एवं मूढ़ का जढ़वत् जीवन यापन
करता है। परन्तु जो मानव, नहीं परमात्मा-आत्मा तो कम से कम स्वर-संचार या प्राण से भी अपना सम्बन्ध
जोड़ लेता है तो पञ्च-पदार्थ-तत्त्वों का परिवर्तित रूप, रूप-संसार (जड़-जगत्) का जड़वत् प्रभाव न पड़कर, बल्कि उसी स्वर-साधक के प्रभाव से ही संसार
(जड़-जगत्) तथा हर अज्ञानी समाज (ज्ञान और योग से रहित समाज) प्रभावी हुये बगैर
बाकी नहीं रह पाता। स्वर-साधक, स्वर-साधना से संसार को
स्वर-साधना के माध्यम से अपने अनुकूल ही देखता है, कहीं यदि संसार प्रतिकूल होना भी चाहा तो
इसी स्वर-साधना से अपने अनुकूल कर लेना भी स्वर-साधक के लिए थोडा भी परेशानी की
बात नहीं होती या रहती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति तत्त्वज्ञानी, यदि तत्त्वज्ञानी नहीं बन सका तो
योग-साधनाभ्यासी या आध्यात्मिक; यदि कहीं योग-साधनाभ्यासी भी नहीं बन सका तो कम से कम स्वर-साधनाभ्यासी या
स्वर-साधक बन जाना तो अनिवार्य ही होना चाहिये। अन्यथा वह मानव शरीर पाने के
बावजूद भी मानव कहलाने के लायक (योग्य) रह ही नहीं पायेगा। इस स्वर-साधना से
ज्योतिष की उत्पत्ति होती है। इसी स्वर से ही अक्षरों (प्रत्येक भाषाओं का) की
उत्पत्ति होती है, इसी स्वर से ही
जीवनी-शक्ति चालित है, इसी स्वर से ही
जीवनी-शक्ति चालित होती है, इसी स्वर से ही सूर्य और चन्द्रमा, तो सूर्य और चन्द्रमा है, ब्रह्म या ऍटम-शक्ति क्रियाशील होते या होती
है इसीलिये मानव जीवन को सफल बनाते हुये मानव जीवन का सफल आनन्द लेना हो तो कम से
कम स्वर-साधना से युक्त होना तो सबके लिये ही अनिवार्य है। यह स्वर-साधना
अनिवार्यता के साथ प्रभावी रूप में करें। जैसा कि पिछले प्रकरणों में बतलाया जा
चुका है कि स्वर-संचार-प्रक्रिया में पञ्च-पदार्थ-तत्त्वों कि भी एक ‘अहं’ भूमिका ही होती है क्योंकि
स्वर-संचार-प्रक्रिया में प्रयुक्त होने वाली वायु पञ्च-पदार्थ तत्त्वों की ही एक
अत्यावश्यक तथा प्रभावी स्थान रखने वाली वायु तत्त्व जिससे रहित सृष्टि का एक भी
दृश्यमान पदार्थ तथा संसार कि एक भी वस्तु नहीं है। वायु ही एक ऐसा पदार्थ-तत्त्व
है जो शेष तीनों पदार्थ-तत्त्वों में समाहित है मात्र आकाशतत्त्व को छोड़कर।
स्वर-संचार जैसा कि इंगला, पिंगला तथा सुषुम्ना में स्वर-संचार को
विधिवत् स्थान प्राप्त है वैसे ही पञ्च पदार्थ तत्त्वों ने भी विधानतः दोनों –इंगला और पिंगला में ही अपना-अपना पृथक्-पृथक् गुण-प्रभाव के साथ स्थान ग्रहण करते हैं
जिस प्रकार हर चौबीस घण्टे में बारह-बारह आवृत्तियाँ इंगला और पिंगला कि होती
है। उन्हीं प्रत्येक आवृत्तियों में क्रम से पञ्च पदार्थ तत्त्वों को भी स्थान मिल
जाता है। ये पञ्च अपना-अपना उसी में स्थान ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार लगभग
बारह-बारह मिनट तक पृथक्-पृथक् प्रत्येक का अपना-अपना गुण-प्रभाव कायम रहता है। इस
प्रकार स्वर-संचार के प्रत्येक घण्टे में चाहे वह इंगला-स्वर-संचार हो या
पिंगला-स्वर-संचार, दोनों में ही क्रम से
बारह-बारह मिनट पृथ्वी-तत्त्व, जल-तत्त्व, अग्नि-तत्त्व, वायु-तत्त्व तथा आकाश तत्त्व का स्थान होता
है या रहता है, जो परिस्थिति विशेष में
परिवर्तित भी होता रहता है। इन तत्त्वों के स्थानों की जानकारी अथवा तत्त्वावलोकन
किसी कार्य सिद्धि हेतु आवश्यक होता है। इसलिये हम-आप-सभी बंधुओं को चाहिये कि
पूर्णतः सफलता या पूर्णतः कार्य सिद्धि हेतु पञ्च-पदार्थ-तत्त्वों का अवलोकन कार
सर्वप्रथम यह जानकारी कार लेवें कि किस तत्त्व की प्रक्रिया चालू है, तत्पश्चात् उसी के अनुसार कार्यों का
शुभारम्भ करें।
पञ्च-पदार्थ-तत्त्वों का शुभारम्भ परिणाम
सद्भावी बंधुओं! स्वर-संचार जिस नाड़ी में भी
प्रवाहित होवे उस पर उस पदार्थ-तत्त्व का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता है। जिसके
(पदार्थ-तत्त्व को) उपस्थिति में स्वर-संचार-प्रवाहित होता है। पृथ्वीतत्त्व और जल
तत्त्व शुभ होते हैं, हालांकि तेज तत्त्व या
अग्नि तत्त्व मिश्रित फल देने वाला होता है परन्तु वायु और आकाश तत्त्व दोनों हानि
व मृत्यु कारक आदि अशुभ कार्य करने वाले होते हैं। पृथ्वी तत्त्व दिन में तथा
रात्रि में जल तत्त्व से तो लाभ होता है, परन्तु अग्नि तत्त्व
मृत्यु कारक; वायु तत्त्व क्षयकारी
आकाश तत्त्व से तो दाह भी हो सकने की सम्भावना रहती है। पृथ्वी तत्त्व की उपस्थिति
में यदि गर्भ धारण होगा तो पुत्र होगा तथा जल तत्त्व में उपस्थिति में पुत्री; जब कि अन्य शेष तीन अग्नि तत्त्व, वायु तत्त्व तथा आकाश तत्त्व की उपस्थिति
में गर्भहानि या गर्भपात या जन्म लेते ही सन्तान की मृत्यु हो जाती है। पृथ्वी
तत्त्व की उपस्थिति में ही युद्ध में विजय, व्यापार या कार्यों में लाभ, धन-प्राप्ति, जीवन लाभ तथा मन्त्र-सिद्धि आदि शीघ्रता के
साथ प्राप्त होती है।
सद्भावी बंधुओं! पञ्च-पदार्थ-तत्त्वों की
उपस्थिति, गुण-प्रभाव, परिणाम तथा स्वर-संचार पद्धति पर विस्तृत
विवेचन करने पर स्वतः ही एक ग्रन्थ रचना हो जायेगी। तो हम यहाँ पर स्वर-संचार
पद्धति के अध्ययन पर यदि मौका मिला तो अलग से ग्रन्थ की रचना प्रस्तुत करेंगे।
यहाँ पर विस्तृत विवेचना करना मेरे समझ से यहाँ उपयोगी नहीं होगा। अत्यावश्यक
जीवनोपयोगी जानकारी कुछ दी गयी तथा कुछ आगे दी जा रही है परन्तु वृहद् जानकारी
देना यहाँ मेरे लिये उचित नहीं है।
बंधुओं आप लोगों का ध्यान पदार्थ-तत्त्वों से
हटाकर मात्र स्वर-संचार पर पुनः लाना चाहता हूँ क्योंकि सामान्य रूप में कम
परिश्रम प्रभावी लाभ वाला यह प्रकृति है। थोड़ा सा ध्यान मात्र से ही अभीष्ट लाभ, वह भी तुरन्त वाली, यही पद्धति है।
स्वर-संचार की अनुकूलता से अभीष्ट-लाभ
सद्भावी बंधुओं! अभीष्ट कार्य सिद्धि हेतु स्वर-संचार के
प्रति थोड़ा सा भी सावधानी बरती जाय स्वरावलोकन करते हुये उसी से अपने
क्रिया-कलापों को जोड़ दिया जाय तो कितनी उपलब्धि होगी, यह बार-बार कहने पर भी कहना थोड़ा ही लग रहा
है। इसी से बार-बार ही कहना और लिखना पड़
रहा है। स्वर-संचार से लाभ हेतु सर्वप्रथम स्वरावलोकन सदा ही करते रहना चाहिये। यह
कोई विकट कार्य नहीं है अन्य कार्यों को करते हुये मानसिक दृष्टि सदा-सर्वदा ही
स्वरावलोकन पर रखी जा सकती है और रखनी चाहिये। इस विधान से चलने वाला जीवन के
भौतिक कार्यों में कभी असफल नहीं हो सकता है हालांकि अपनी असावधानी से हानियाँ भी
हो सकती है।
शयन से उठने या जगने पर इंगला-स्वर-संचार
ही सिद्धि दायी होती है। इसलिये बिस्तर छोड़ते हुये या तो स्वर-संचार-परिवर्तन से
परिवर्तित करके स्वर-संचार को अपने अनुकूल बना लिया जाय तत्पश्चात् उसी के अनुसार
अपने क्रियाओं को प्रारम्भ किया जाय।
दैनिक-क्रियाएँ:- प्रातः शयन से जागने पर सर्वप्रथम
स्वरावलोकन किया जाय कि किस नाड़ी में स्वर-संचार हो रहा है तो इंगला या पिंगला में से जिस नाड़ी में स्वर-संचार होता हो, उसी तरफ के हाथ से पहले मुख का स्पर्श करते हुये हस्त अवलोकन अर्थात् अपने
हाथों का दर्शन करें। इसके साथ ही यह बात भी याद रहनी चाहिये कि नाड़ी में
स्वर-संचार प्रवेश करता हो या अन्तः कुंभक की स्थिति में यानी पूरक-कुंभक की
स्थिति में ही मुख का स्पर्श तथा हस्तावलोकनया करावलोकन होना चाहिये या करें, रेचक-कुंभक (बाह्य कुम्भक) की स्थिति में
नहीं। तत्पश्चात् आसन-प्राणायाम-धारणा और ध्यान-चारों क्रियायों से युक्त या रेचक
मुखी मुद्रा कम से कम एक घण्टा प्रातः तीन बजे से छः बजे के मध्य जब नींद से जागें तत्पश्चात् ही या शौच आदि क्रिया निवृति के पश्चात् ही किया जा सकता है
परन्तु भोजन-शयन तथा अन्य किसी भी दैनिक क्रिया जैसे-दातुन-स्नान आदि से तो कदापि
नहीं, अधिक जहाँ तक हो सके आवश्यक समझ कर इस
षन्मुखीमुद्रा को बल्कि अनिवार्यतः दैनिक क्रिया के रूप में किया जाय तो
दैनिक-जीवन का यथेष्ट लाभ में थोड़ा भी सन्देह की गुंजाइश ही नहीं रह सकती हैं।
पुनः प्रातः शयन से जागने पर बिस्तर छोड़ते
समय स्वरावलोकन करना चाहिये तत्पश्चात् जिस नाड़ी में स्वर-संचार हो रहा हो उसी तरफ
के यानी इंगला-स्वर-संचार बायाँ पैर तथा पिंगला-स्वर-संचार में दायाँ पैर आगे
करके पहला कदम रखें। कदम रखते समय पूरक या पूरक-कुम्भक की क्रिया होनी चाहिये। इस
प्रकार करने से पूरे दिन की सभी दैनिक-क्रियायें यथेष्ट-लाभदायक या सफलता प्रदान
करने वाली होने लगती है तथा चारों तरफ से ही शुभ कार्य होता है अर्थात् सभी
कार्यों में ही सफलता हासिल होने लगती है। इतना ही नहीं दिन में कभी भी किसी भी
कार्य हेतु कहीं भी गमन करना पड़े तो उसी समय मानसिक दृष्टि या सूक्ष्म दृष्टि से
स्वरावलोकन करके जो नाड़ी प्रभावित होती हो उसी पैर को आगे करके प्रथम कदम रखा जाय।
ऐसा करने से कार्य-सिद्धि होती है।
सद्भावी बंधुओं! पुनः ध्यान देवें। दिन में
या रात्री में जब भी जल-ग्रहण करना हो तथा पेशाब करना हो तो यह याद रहे कि इंगला-स्वर-संचार
में ही करना चाहिये यदि स्वर विपरीत हो तो अच्छा होगा कि क्रिया स्थगित रखें या
स्वर-संचार को अपने अनुकूल कर लेवें तत्पश्चात् क्रिया करें। ऐसा करने से
स्वास्थ्य गड़बड़ी कभी भी नहीं हो सकती है। पुनः देखें-भोजन करना तथा शौच करना, यह दोनों क्रिया-पिंगला-स्वर-संचार में
होना चाहिये। यदि विपरीत स्वर-संचार हो तो या तो क्रियाओं को स्थगित रखा जाय या
स्वर-संचार को अनुकूल कर लिया जाय। स्नान-क्रिया भी पिंगला-स्वर-संचार में ही
करें।
इच्छित- सन्तान :- बंधुओं ! इच्छित सन्तान हेतु सर्व प्रथम
स्वरावलोकन करें तत्पश्चात् पुरुष को चाहिये कि स्त्री-प्रसंग के समय
पिंगला-स्वर-संचार की स्थिति में ही अनिवार्यतः अपने को कर ले या पिंगला स्वर-संचार तक स्त्री-प्रसंग का कार्य ही स्थगित रखें। ऐसा करने से पुत्रोत्पत्ति
होता है और स्त्री-प्रसंग यदि पुरुष के इंगला-स्वर-संचार में होगा तो पुत्री की
उत्पत्ति होती है परन्तु इसके लिये एक बात और याद रखना होगा कि ऋतु-स्नान के
पश्चात् ही स्त्री-प्रसंग करना चाहिये। ऋतु आने के पांचवी रात्रि के पूर्व
स्त्री-प्रसंग कदापि नहीं करना चाहिये। ऋतु-स्त्राव से पांचवी तिथि से स्त्री-प्रसंग
करना चाहिये। इसमें यह बात अवश्य ही याद रखने कि है कि युग्म या जोड़े-दिनों
जैसे-छठवी, आठवी, दशवीं, बाहरवी, चौदहवी, सोलहवी तिथियों की रात्रि में स्त्री-प्रसंग, पुरुष-पिंगला तथा
स्त्री-इंगला-स्वर-संचार-साधन में गर्भाधान करे तो पुत्र तथा विषम या रूढ़ दिनों
जैसे-पांचवी, सातवी, नवीं, ग्यारवीं, तेरहवीं, पंद्रहवीं तिथियों की रात्रि पुरुष
इंगला-स्वर तथा स्त्री पिंगल्ला-स्वर-संचार में स्त्री-प्रसंग हो तो पुत्री
होगी। चौदहवीं रात्रि अभागों को नहीं मिलती है, कोई न कोई बाधा उसको अवश्य ही हो जया करती
है क्योंकि चौदहवीं रात्रि का पुत्र या पुत्री भी विशिष्ट होते हैं, समाज में अग्रणी होते हैं, समाज में मर्यादित, प्रतिष्ठित आदि आदि क्या कहा जाय इतना ही जन
लेवें कि सर्वगुण सम्पन्न सन्तान उत्पन्न होता है। इसमें थोड़ा भी सन्देह की बात
नहीं है।
सद्भावी बंधुओं! जैसा कि उपर्युक्त प्रकरण
में बताया गया इच्छित सन्तान कैसे? उसी में इसी बात को भी समझ लेना पड़ेगा कि पञ्च पदार्थ तत्त्वों का भी
प्रभाव पड़े बगैर नहीं रहता। जब स्वर-संचार, पृथ्वी-तत्त्व की उपस्थिति में प्रवाहित हो
और स्त्री-प्रसंग उपर्युक्त प्रकरण के अनुसार ही होगा, जब तो पुत्र उत्पन्न होगा और जल-तत्त्व की
उपस्थिति में होगा तो पुत्री उत्पन्न होगी। अग्नि-तत्त्व का गर्भ तो हानिकारक होता
है गर्भ-पात का भी भय होता है या जन्म के पश्चात् भी बालक के शीघ्र मृत्यु का भय
रहता है। यदि इस तत्त्व के उपस्थिति में सन्तान होगा तो अति सुन्दर होगा परन्तु
शीघ्रतिशीघ्र मरने वाला होगा। ऐसे बच्चों को देहातों में ‘डहंकुआ’ सन्तान कहा जाता है। डहंकुआ सन्तान अक्सर
चौदहवीं रात्रि वाला परन्तु अग्नि-तत्त्व की उपस्थिति वाला सन्तान ही होता है जो
माता-पिता को डहंकाने वाला होता है। वायु तत्त्व तथा आकाश तत्त्व की उपस्थिति में
गर्भधारण होने पर सन्तान कदापि नहीं हो सकता। फिर भी घबड़ाने की बात नहीं, क्योंकि स्वर-साधना से बंध्या को भी
पुत्र-प्राप्त होगा।
सक्षम गुरु के बगैर स्वर-सिद्धि की सफलता
संदेहास्पद
स्वर-संचार साधना की कोई सिद्धि सफल करनी हो
तो इसके लिये अनिवार्य रूप में किसी सक्षम गुरु के माध्यम से गुजरना पड़ेगा। सक्षम
गुरु की कृपा के बगैर स्वर-संचार-साधना सिद्धि सदा ही संदेहास्पद बनी रहती है।
बंधुओं! गुरु-परीक्षण कि सक्षम है या नहीं अनिवार्य है। सक्षम गुरु के बगैर
स्वर-संचार-साधना-सिद्धि सदा ही संदेहास्पद बनी रहती है। इसीलिये सद्पात्र एवं
सक्षम गुरु दोनों को ही स्वर-संचार-साधना की प्रमुखता रहनी चाहिये। गुरु को
सांसारिक कदापि नहीं होना या रहना चाहिये। सांसारिक गुरु योग-साधना या आध्यात्मिक
तथा विशुद्ध स्वर-सिद्ध नहीं हो सकता। योग साधना तथा स्वर-साधना दोनों के लिये ही ‘प्रत्याहार’ अर्थात् ‘विषया दीन्द्रिय निग्रहः’ के सिद्धान्त को पूर्णतः अपनाना होगा।
अन्यथा साधना की सफलता सदा ही संदेहास्पद रहती है। परन्तु योग-साधना तथा
स्वर-संचार-साधना का विधि-विधान तत्त्वज्ञानी हेतु आवश्यक नहीं होता क्योंकि
तत्त्वज्ञानी सृष्टि के अन्तर्गत किसी भी साधना-सिद्धि से उच्च और उत्तम होता है।
सृष्टि की समस्त साधना-सिद्दी तत्त्वज्ञान का अंशमात्र ही होता है। तत्त्वज्ञान
सबका ही उत्पत्ति और विलय रूप होता है तथा मुक्ति और अमरता का एकमात्र अधिकारी
होता है परन्तु तत्त्वज्ञानी कहीं थोड़ा भी स्वर-विधान पर ध्यान दिया तो
स्वर-सिद्धि भी उसकी पुष्टि में अपनी सेवा-समर्पण रूप सौभाग्य ही समझती है। फिर भी
तत्त्वज्ञानी को इसका नाजायज लाभ नहीं लेना चाहिये।
सावधानी :- स्वर-संचार-पद्धति शरीर और सृष्टि-संचालन की
आत्म-शक्ति की ही एक प्रक्रियात्मक पद्धति है। परमात्मा के निर्देशन में आदि-शक्ति
द्वारा लागू एक आत्म-शक्ति चालित तथा परमात्मा और आदि-शक्ति द्वारा संचालित शरीर
और सृष्टि के आपसी मेल-मिलाप से कार्य करने तथा भोग-भोगने का ही एक विधि-विधान है।
तत्त्वज्ञानी का तो इसमें कदापि नहीं फंसना चाहिये। योगी को भी सदा-सर्वदा इससे
अपने को बचाये रखने का प्रयास करते रहने चाहिये क्योंकि यह भौतिक सिद्धि मात्र का
विधान है।
स्वर-संचार सर्व-सिद्धि करी
भगवद् प्रेमी सद्भावी बंधुओं!
स्वर-संचार-पद्धति सृष्टि की भौतिक सिद्धि की सर्वोत्तम पद्धति है। बशर्ते कि अपने
को स्वर-संचार के अनुसार ही पूर्णतः कार दिया जाय। बंधुओं इस बात को तो आप को सिर
पर धारण करना ही पड़ेगा कि जिस विषय-वस्तु, शक्ति-सत्ता या शरीर-सम्पत्ति से ही लाभ
लेना होगा उससे उसी के विधान के अनुसार होना पड़ेगा। इतना ही नहीं यह यह भी जन
लेवें कि जिस स्तर का समर्पण या त्याग होगा उसी स्तर की उपलब्धि या प्राप्ति भी
होती है और होगी भी। इसलिये सर्वप्रथम तो परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप
शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म या परमात्मा के प्रति ही मुसल्लम ईमान के साथ शरणागत
होकर, उसी के अनुसार ही अपने जीवन को कर देना
चाहिये यदि परमात्मा के प्रति न हो सके या कर सके तो दूसरे नम्बर पर आत्म-ज्योति
रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म के प्रति तो समर्पित नहीं हो सके, तो स्वर-संचार से तो कदापि बाकी नहीं रहना
चाहिये अन्यथा मानव योनि का आनन्द तो दूर रहा, कीट-पतंग से भी बदतर या बुरी स्थिति ही होगी।
‘सरस्वती’ स्वरोदय की देवी तथा ‘शिव’ स्वर-संचार के अभीष्ट देवता
सद्भावी बंधुओं ! जैसा कि सर्वविदित है कि
सृष्टि कर्त्ता ब्रह्मा एवं सृष्टि हर्त्ता शंकर हैं फिर भी यह जन लेना अत्यावश्यक
है कि ब्रह्मा और शंकर तो मात्र अपने विभाग के निर्देशक होते हैं कार्य तो स्वर और
शक्ति रूपा सती ही करती है। यहाँ पर यह भी जन लें कि स्वर (उदय) तथा सती (शक्ति-संचालक)
दोनों ही मिलकर ही सरस्वती होती हैं जो स्वरोदय रूप सृष्टि तथा कार्य सिद्धि रूप
कार्य-समाप्ति (कल्याण के साथ) ही शिव का कार्य होता है। यही कारण है कि ‘स्वर’ की जानकारी या देवी जो विद्या की अभीष्ट
देवी कहलाती हैं उन्हें सरस्वती तथा जो सर्वकार्य सिद्धि रूप शक्ति का कार्य रूप
शिव (शंकर) का कार्य है इसलिये स्वर-शास्त्र शिव-शक्ति शास्त्र भी है।