‘विषयी’ कर्म-कांडियों से ‘विषय-त्यागी’ अध्यात्मवेत्ता श्रेष्ठ और उत्तम

सद्भावी बंधुओं ! यह विशेष विचारणीय बात है कि विषयी या विषय सेवी कर्म-कांडियों से विषय-त्यागी अध्यात्मवेत्ता साधकसिद्धसन्त-महात्मा श्रेष्ठ और उत्तम हैतो क्यों और कैसे इसका उत्तर तो हमारे द्वारा यही प्रस्तुत किया जा रहा है कि कर्म-कांडी व्यक्ति और वस्तु या शरीर और सम्पत्ति प्रधान होते हैं जो जढ़ तथा नाशवान होते हुये वस्तुतः अस्तित्व हीन होता है जब कि आध्यात्मिक साधक-सिद्ध-सन्त-महात्मा आदि चेतन आत्मा तथा शान्ति और आनन्द वाला चिदानन्द प्रधान होते हैं जो चेतन तथा अविनाशी होते हुये आत्म-ज्योति रूप आत्म-शक्ति के अस्तित्व वाले हैं। यह श्रेष्ठता एवं उत्तमता मात्र कथनी और लेखनी की बात नहीं हैअपितु यथार्थ व्यावहारिकता में भी स्पष्टतः दिखलायी देता है कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति एक सामान्य से सामान्य स्तर के त्यागी एवं आध्यात्मिक समाज सेवियों के यहाँ पहुँच-पहुँच कर अपनी सफलता कीयाचना करते रहते हैं और पदाधिकारियों एवं कर्मचारियों को क्या कहा जाय ?यह आज की ही बात नहींसदा-सर्वदा से चली आने वाली बात है कि राजा चाहे जितना बड़ा महाराजा या चक्रवर्ती ही क्यों न होफिर भी सामान्य से सामान्य योगी-यतियोंऋषि-महर्षियों तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं के समक्ष झुकतेसफलता कीयाचना करते हुये उनकी श्रेष्ठता और उत्तमता को स्वीकार करते रहे हैं।अर्थात् यह कोई नयी बात नहीं। इतना ही नहींबड़े से बड़ा राजा एवं रानी भी अपने राज-प्रसाद को त्याग कर सन्यास एवं अध्यात्म को स्वीकार कर यह बात स्पष्टतः सिद्ध भी कर दिये हैं। उदाहरणार्थ विश्वामित्रभरत जीभरतहरीगौतम बुद्धअशोकमीरा आदि को देखें ।
सद्भावी बंधुओं को बतला दूँअन्यथा यहाँ पर भ्रम हो सकता है कि यहाँ पर तत्त्वज्ञानी की बात तो बतायी नहीं गयी तो आखिरकार तत्त्वज्ञानी की यहाँ पर क्या भूमिका है ?

तत्त्वज्ञानी का स्थान सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम
तत्त्वज्ञान विद्यातत्त्वम् का ही पर्याय है। तत्त्वज्ञान या विद्या-तत्त्वम्, न तो कर्म-काण्ड हो होता है और न योग-साधना वाला अध्यात्म हीबल्कि दोनों का ही उत्पत्तिकर्त्तासंचालनकर्त्ता विलय रूप नियंत्रण कर्त्ता के साथ ही साथ सभी के कमियों का पूरक होता हैचाहे वह किसी भी प्रकार की कमी क्यों न हो। यथार्थ बात यह है कि विद्या-तत्त्वम् या तत्त्वज्ञान किसी का विरोधी नहीं होता है बल्कि सबका सहयोगी रूप सरंक्षक और बिना किसी प्रतिकार के ही पूरक होता है फिर भी आश्चर्य कि बात तो यह है कि सभी ही अपना शोषक समझते हैं। कर्म-कांडी कहते हैं कि यह आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक कहते हैं कि यह कर्म-कांडी परन्तु जो भी संपर्क में आता है सर्वोच्चता एवं श्रेष्ठता एवं सर्वोत्तमता को स्वीकार करते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी तत्त्वज्ञानी या तत्त्वज्ञानी इशारे पर तत्त्वज्ञान दाता के पास आता है तो चाहिये यह है कि वह किसलिये आता है जिस लिये आता है वह इनके (तत्त्वज्ञान दाता) के पास है कि नहीं तो यह देखते हुये भी कि उसके जिज्ञासा वाली बात श्रेष्ठतम एवं सर्वोत्तम रूप में है फिर भी वह अपने प्रतिकूल वाली बात भी देखने लगता है जिससे वह भ्रमित  होकर भटक जाता है जब कि उसे मात्र अपनी जिज्ञासा वाली बात मात्र से मतलब रखना चाहियेअन्य की नहीं,क्योंकि तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वम् कोई व्यक्ति और वस्तु या शरीर और सम्पत्ति सम्बन्धी बात तो नहींऔर न तो जीव-आत्मा वाला योग-साधना वाला अध्यात्म की ही बात है अपितु यह तो परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा-खुदा-गॉड की एक मात्र यथार्थ जानकारीदर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान करने-कराने वाली तत्त्वज्ञान पद्धति है जिसके अन्तर्गत संसार-शरीर-जीव-जीवात्मा-आत्मा आदि की भी यथार्थ उत्पत्तिसंचालन तथा विलय से सम्बंधित सम्पूर्ण जानकारी सैद्धान्तिकप्रायौगिक तथा व्यावहारिक रूप से भी अनायास ही मिल जाती है। चूँकि यह सांसारिक और आध्यात्मिक का विधान या पद्धति तो होता नहीं कि एकांगी रहेताकि जो आवे मात्र वही या उसकी ही बात दिखलायी दे। यह तो अवतारी वाला पूर्ण या पूर्णाग-विधान या पद्धति है जिसमें सृष्टि कि सारी बातें एवं क्रियायें भी दिखायी देना ही वास्तविक सत्यता या यथार्थतः परमसत्य की पहचान कराने वाला होता है। इस प्रकार अवतारी वाली पद्धति जो विद्यातत्त्वम् या तत्त्वज्ञान-पद्धति है इसलिये इसमें क्या-क्या हैंक्या दोष है और क्या गुणये सब कुछ भी इस पद्धति में देखी नहीं जाती है। इसमें मात्र प्रभु या परमात्मा की सेवा-भक्ति में बनाये रखेंमात्र यही प्रधानतः देखने योग्य होता है क्योंकि परमात्मा की सेवा-भक्ति का पद सृष्टि का सर्वोच्चसर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम होता है। इसलिये सर्वतोभावेन परमात्मा वाली अवतारी सत्पुरुष शरीर को आनंदित एवं प्रसन्नचित्त रखना ही अपना उच्चतम् कर्त्तव्य है। सिद्धान्त भी यही है कि जितना ही ऊँचा पद होता है उस पर टिकना या कायम रहना भी उतना ही खतरनाक या उत्तरदायी होता है। चूँकि यह परमात्मा का ही विधान या पद्धति है इसलिये सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम् होता है। यही यथार्थतः परमसत्य है।

परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण-भाव ही अंशवत् – आत्मा के प्रति प्रत्याहार
सद्भावी बन्धुओं ! अब प्रत्याहार और पूर्ण-समर्पण-भाव की जानकारी यहाँ किया जाएगा। प्रत्याहार अष्टांग योग का पाँचवा अंग है और जीव का आत्मा से मिलन ही योग है। इससे स्पष्ट होता है कि आत्मा से मिलन में जीव को पड़ने वाली बाधाओं या फँसानों को दूर करने के लिये विषयों से इन्द्रियों का विग्रह ही प्रत्याहार है। अर्थात् इन्द्रियों को अपने विषयाभिमुखी वृत्तियों से खींचकर और रोक कर धारणा में लगाना तथा आत्मा का ध्यान करना या ध्यान में आत्म-ज्योति का साक्षात्कार करना ही योग साधना है। यह प्रत्याहार-योगी-यति, ऋषि-महर्षि तथा योग-साधना वाले आध्यात्मिक सन्त-महात्मा लोग आजीवन इन्द्रियों को अपने विषयाभिमुखी वृत्तियों से मोड़कर आत्म-साक्षात्कार की साधना में लगते रहते हैं फिर भी बहुत कम ही सफल भी हो पाते हैं। जबकि ज्ञान में कोई साधना नहीं करनी पड़ती है और न ही इन्द्रियों को अपनी वृत्तियों से मोड़ना पड़ता है बल्कि इन्द्रियों की परमात्मा के सेवार्थ और भी मजबूती तथा प्रभावी रूप में परमात्मा के आनन्द और प्रसन्नता हेतु परमात्मा के ही सेवा में श्रद्धा पूर्वक लगाना तथा इसमें अपने को सौभाग्यशाली समझना ही हमारी इंद्रियाँ एवं शरीर परमात्मा के सेवार्थ उपयोग में आ रही है। परमार्थ या परमात्मा के लिये प्रयोग में पूर्ण समर्पण भाव में आने वाली इन्द्रियों तथा उनके विषय में प्रयोग होने पर किसी भी प्रकार का दोष कल्पना भी नहीं किया जा सकता है बल्कि यह तो परम सौभाग्य की बात है कि परमात्मा के उपयोग में हमारी इंद्रियाँ और शरीर आवे या लगे, इससे बढ़कर और सौभाग्य हो ही क्या सकता है अर्थात् कुछ नहीं। अतः प्रत्याहार में इन्द्रियों को बाह्य विषयों से खींचकर आत्मा के दरश-परश हेतु अन्तःवृत्ति में लगाया जाता है। जबकि पूर्ण समर्पण में परमात्मा में ही अपनी इन्द्रियों तथा शरीर को परिवार संसार से खींचकर या रोककर एकमात्र परमात्मा की सेवा-भक्ति में लगाना ही पूर्ण जिज्ञासु एवं श्रद्धालु भाव से पूर्ण समर्पण रूप में परमात्मा के आश्रय और शरण में रहना ही जीवन का चरम और परम लक्ष्य के साथ ही चरम और परम हेतु तथा सेवार्थ अपने परिवार तथा संसार को छोड़कर भी इंद्रियाँ तथा शरीर को पूर्ण समर्पण भाव से श्री कृष्णचन्द्र में लगा दीं। तो वर्तमान में बदनाम अवश्य हुईं परन्तु आज वही मंगल गान में भी गायी जाती है और कृष्ण के पूर्व ही इन लोगों का नाम भी लिया जाता है कि राधेश्याम, गोपीकृष्ण आदि कह-कह कर लोग भक्ति-गान गाते हुये आनंदित होते हैं।

सतोगुणी-तत्त्वज्ञान-रजोगुणी-अध्यात्म तथा तमोगुणी-कर्म-काण्ड
सामान्य अर्थ में गुण और दोष विचार और कर्म परख ही होता है परन्तु सृष्टि में जितनी भी बातें हैं सब ही इन तीनों-गुणों के माध्यम से ही कार्य करती है अथवा उनके कार्यों को इन्ही गुणों के माध्यम से जाना-देखा और पहचाना जाता है कि कौन किस श्रेणी का है। हालाँकि योगी-यति, ऋषि-महर्षि और आध्यात्मिक सन्त महात्मागण यह कहते हैं कि चेतन-आत्मा तीनों गुणों से परे होती है तो उनका यह कहना सही है फिर भी जब चेतन-आत्मा को सांसारिकता में जीव बनकर शरीर से कार्य करना होगा तो सामान्य दृष्टि वाले सांसारिक व्यक्ति तो इन्ही तीनों गुणों से युक्त होते हैं तो देखना और कहना-सुनना भी उन्ही को है अन्यथा आत्मा और परमात्मा स्तर या श्रेणी पर तो गुण ही नहीं होता है, उसका वर्गीकृत रूप सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण कहाँ रह गया है। यानी इन तीनों गुणों का प्रयोग मात्र कर्म और विचार के अन्तर्गत ही होता है। इससे ऊपर तो इसकी गति-विधि ही नहीं होती है फिर कोई बात क्या किया जाय। अब आइए यथार्थतः सृष्टि-विधान देखें –
सृष्टि के सम्पूर्ण विधान तथा कार्य मुख्यतः तीन भागों में बंटा होता है – ज्ञान-प्रधान और अज्ञान प्रधान तथा दोनों के मध्य मिथ्याज्ञानाभिमान-प्रधान।

तत्त्वज्ञान-प्रधान कार्य-परमात्मा का
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा का जब कभी भी पूर्णावतार होता है जैसे – श्रीविष्णु जी महाराज; श्रीरामचन्द्र जी महाराज; श्रीकृष्ण चन्द्र जी महाराज रूप पूर्णावतार के शेष जितने भी अवतारी के नाम से घोषित है सबके सब अंशावतारी ही थे। हाँ, तो पुनः आइये पूर्णावतार वाले विषय पर कि परमात्मा का पूर्णावतार जब भी हुआ है तब ही अपना यथार्थ परिचय, जो मात्र विशिष्ट जिज्ञासु, श्रद्धालु, पूर्ण समर्पण या शरणागत भाव वाले उत्कट जिज्ञासु भक्तों हेतु सुरक्षित रहता है, दिया जाता है, जो परमात्मा की यथार्थ जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान तत्पश्चात् तन-मन-धन रूप पूर्ण समर्पण शरणागत होकर अपनी इन्द्रियों को बजाय अंतर्मुखी करने के भगवद् सेवार्थ पूर्ण श्रद्धा-भक्ति के साथ ही परिवार तथा संसार को छोड़कर अनन्य भक्ति अथवा अव्यभिचारिणी भक्ति (पतिव्रता नारी से भी आगे) द्वारा परमात्मा के ही एकमात्र सेवार्थ अपने इन्द्रियों को करके उन्ही के राय या निर्देशन तथा आज्ञानुसार अपने जीवन को ले चलना ही मुक्त जीवन, परम पदारूढ़ जीवन आदि है। तत्त्वज्ञान में प्रत्याहार नाम की आवश्यकता ही नहीं, बल्कि यह बाधक ही है। परमसत्य का ज्ञान ही तत्त्वज्ञान है और सतगुण ही है। एकमात्र परमात्मा ही ऐसा है जो सत्य-प्रधान होता है वही सतोगुणी है। तत्त्वज्ञानी अपने वचनों पर दृण रहते हुये यदि शरणागत भाव से अनन्य सेवा-भक्ति के साथ रहे तो वह इतना बलवती और महान होता है और माना जाता है कि विषय तथा इन्द्रियों पर विचार भी करने की आवश्यकता नहीं रहती है क्योंकि विषय इन्द्रिय तो विषय और इन्द्रिय है महामाया भी उसे गिरा नहीं सकती क्योंकि उस अवस्था विशेष में मुसल्लम ईमान के साथ यदि वह शरणागत भाव में अनन्य सेवा-भक्ति के साथ रहता हो तब। क्योंकि ऐसी स्थिति में उत्थान और पतन दोनों समाप्त माने जाते हैं और समाप्त हैं भी। प्रत्याहार की आवश्यकता परमात्मा से दूर या अनन्य सेवा-भक्ति से रहित विक्षुब्धों के लिये हो सकता है परन्तु तभी तक जब तक परमात्मा की कृपा कायम रखने वाली रहती है तभी तक अन्यथा कोई तत्त्वज्ञानी पुरुष परमात्मा से दूर विरोधी भावना में रहकर भूमण्डल पर कहीं भी कायम नहीं रह सकता है- उसका नाश अवश्यम्भावी होता है। यही सत्य प्रधान विधान होता है।

योग या अध्यात्म प्रधान कार्य जीवात्मा का     
योग या अध्यात्म जीवात्मा की जानकारी तथा आत्म-साक्षात्कार की साधना मात्र है। इसके अन्तर्गत मूलाधार स्थित जीव रूप अहं भू-मध्य स्थिति आज्ञा-चक्र के अन्तर्गत आत्म-ज्योति रूप सः से मिलन की एक योग-साधना है जो अध्यात्म भी है। इस प्रकार यह सोsहँ-हँसो रूप आत्मा से जीव,जीव से आत्मा या हँसो रूप जीवात्मा का कार्य-पद्धति है। उसके व्याख्याता और प्रचारक योगवेत्ता अथवा अध्यात्मवेत्ता हैं। यदि योगवेत्ता या अध्यात्मवेत्ता इस पद्धति को योग या अध्यात्म ही कहेंतत्त्वज्ञान पद्धति न कहेंतब तो यह (तत्त्वज्ञान तथा कर्म-काण्ड के मध्य का) मार्ग ठीक है परन्तु योगवेत्ता या अध्यात्मवेत्ता महानुभाव अपनी उच्चतम मर्यादा स्थापित करते-कराते अवतारी का स्थान लेने हेतु इस योग या अध्यात्म मार्ग को ही तत्त्वज्ञान-पद्धति घोषित कर-करवा देते-लेते हैंतब ही ये मिथ्याज्ञानाभिमानी के श्रेणी में पहुँच जाते हैं। इन बंधुओं को नहीं अधिक तो थोड़ा विचार या चिन्तन अवश्य करना चाहिये कि परमात्मा का अवतार बनने-बनाने की बात है तो उन्हें अवश्य उत्तर मिलेगा कि कदापि नहीं। अवतार होता है,बना नहीं जाता। इन लोगों की जढ़ता कहा जाय तो शोभा नहीं देता क्योंकि क्योंकि ये चेतन-आत्मा से सम्बंधित हैं। यदि मूर्ख कहा जाय तो ये व्याख्याता या प्रवचन कर्त्ता हैं इसलिये सबसे उत्तम इनके लिये यही पड़ता है कि इन्हें-मिथ्याज्ञानाभिमानी ही कहा जाय। पाठक बंधुओं ये मात्र अहंकारी नहीं होते हैं अपितु आत्म-ज्योति रूप आत्मशक्ति से युक्त बलवती या शक्तिशाली अहंकारी होते हैं जिन्हे सिवाय सर्वशक्ति-सत्ता सामर्थ्यवान् परमात्मा के दूसरा कोई ठीक कर ही नहीं सकता। कर्म-कांडी इनसे टकराने की क्षमता नहीं रखते हैं क्योंकि कर्म-प्रधान व्यक्ति चाहे जितना बड़ा विद्वानमनोवैज्ञानिकवैज्ञानिक या मांत्रिकतांत्रिक क्यो न होवह तो इनकसे बोल ही नहीं सकते क्योंकि ये योगी या आध्यात्मिक शक्ति –सत्ता सामर्थ्य के दो युनिट शाकी से कार्य करते हैं जब कि कर्म-प्रधान कर्म-कांडी जो ऊपर अभी नाम बतलाये गये हैं वे एक ही युनिट शक्ति के अधीन कार्य करते हैं। दो युनिट शक्ति वाले समस्त योगी-यतिऋषि-महर्षि तथा आध्यात्मिक संत महात्मा गण सर्व शक्ति सत्ता सामर्थ्य रूप तीनों युनिट शक्ति वाला जब अवतार जो परमात्मा का पूर्णावतार हैलेता है वही सभी को ठीक करता है चाहे कोई अभिमानीपदाभिमानीअत्याचारीभ्रष्टाचारी या अहंकारी हो या मिथ्याज्ञानाभि मानी हों। योग या अध्यात्म के लिये प्रत्याहार अनिवार्य सिद्धान्त है योग-साधना की क्रिया का अथवा धारणाध्यान-समाधि इसके (प्रत्याहार) के बगैर हो ही नहीं सकता। जीवात्मा में यह क्षमता नहीं होता कि कामिनी और कांचन रूप मायाजाल के बीच स्वतंत्र-विचरण या स्वच्छन्द आनन्द की अनुभूति ले सके। यह तो जितना साधना से आनंदित नहीं होता है उससे तो हर समयविषयों तथा इन्द्रियों द्वारा कामिनी और कांचन रूप संसार से भयभीत रहता है। जीवात्मा का जन्म-मरण रूप परमात्मा के शरणागत हुये बगैर कभी भी और किसी भी परिस्थिति में समाप्त नहीं हो सकताचाहे वह लाख-करोड़ या अरबों –खरबों योनि क्यों न धारण करें। जन्म-मरण रूप भव-सागर से उद्धार या मुक्ति हेतु परमात्मा के अवतार रूप अवतारी तत्त्ववेत्ता सत्पुरुष के शरण में ही निष्कपटता पूर्वक पूर्ण शरणागत भाव में उत्कट जिज्ञासा एवं श्रद्धा-भक्ति के साथ सेवा-भक्ति वह भी अनन्यता के साथ शरणागत होना ही पड़ेगा अन्यथा मुक्ति से हाथ धोना ही पड़ेगा। परमात्मा के सिवाय आदि-शक्ति में भी मुक्ति और अमरता का अधिकार नहीं होता। इन योगी तथा आध्यात्मिकों को कौन कहे नारदब्रह्मा और शंकर भी मुक्त नहीं कर सकते हैं !

कर्म-प्रधान कार्य तमोगुणी –शरीर का
कर्म शरीर और संसार के मध्य का कार्य होता है। जीवधारी शरीर परमात्मा तथा आत्मा से विमुख या प्रतिकूल संसार के तरफ अभिमुख या मुख करके शरीर और संपत्ति तथा परिवार और संसार हेतु कार्य करना तथा इसी को अपने जीवन का उद्देश्य मानकर चलना अज्ञानमूलक कार्य होता है तो तमोगुणी ही है। तमोगुण का अर्थ अज्ञानान्धकार प्रधान कार्य है जो कर्म प्रधान वाले करते रहते हैं।
तम का सामान्य अर्थ होता है अन्धकार। परन्तु विशिष्ट अर्थ होता है अज्ञान रूप अन्धकार। इस प्रकार तमोगुण का वास्तविक अर्थ अज्ञानान्धकार की गुण वाला अर्थात् सांसारिक। संसार अज्ञानमूलक होता है ज्ञानी के लिये कर्म और संसार की कोई मर्यादा नहीं ।ज्ञानी तो कर्त्ता-प्रधान होता है कर्म-प्रधान नहीं। कर्म-काण्ड चूँकि पूर्णतः अज्ञान की क्रिया पद्धति है इसलिये यह तमोगुणी है।

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