मात्र अध्यात्म, तत्त्व – विद्या में बाधक एवं कर्म का घोर शत्रु

अध्यात्म विद्याविद्या-तत्त्वम् में तो बाधा ही उत्पन्न करता हैपरन्तु कर्म का तो यह घोर शत्रु ही होता हैक्योंकि कर्म जिससे किया जाता हैउन इन्द्रियों को ही बन्द करके बहिर्मुखी से अंतर्मुखी करना इसके अन्तर्गत प्रथम क्रिया है । अध्यात्म या योग में चित्त के वृत्ति का विरोध करना अथवा इन्द्रियों को बहिर्मुखी क्रियाशीलता रूप परिवार एवं संसार से खींचकर अंतर्मुखी करके आत्मा से जीव बनने वाली क्रिया-प्रक्रिया को ही उलटकर अपने जीव को आत्मा से मिलाना तत्पश्चात् आत्मामय या ब्रह्ममय आचरण करना मात्र ही योग या अध्यात्म का जीवन है । कर्म का तो यहाँ पर बिल्कुल ही जड़ ही (मूल ही) समाप्त हो जाता हैक्योंकि कर्म की महत्ता इन्द्रियों के बलवान् एवं बहिर्मुखी होने में ही निहित रहता है और जब इंद्रियाँ ही बन्द कर ली जायेगीतो कर्म की बात ही कहाँ रह जाती है ।
सद्भावी भगवद् प्रेमी बंधुओं ! आपसे एक बात बताऊँ की इन ऊपरयुक्त समस्त दोषों से युक्त रहने के बबजूद भी इन योग या अध्यात्म का अपना पृथक् रूप में एक महत्वपूर्ण स्थान रहता हैक्योंकि तत्त्वज्ञानी एवं अध्यात्म या योग से सम्बंधित रहने वाले साधकसिद्ध-योगी-यतिऋषि-महर्षि एवं साधना (श्वास-प्रश्वास एवं ध्यान) से युक्त समस्त सन्त-महात्मा के अलावा सारी सृष्टि ही सर्वशक्ति सत्ता-सामर्थ्यवान् रूप परम-ब्रह्म-परमात्मा, खुदा-गाँड (GOD) के एक युनिट-शक्ति में ही क्रियाशील होता रहता है जिसे मनोवैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक भी एकमत से स्वेकर करते हैंकि मस्तिष्क के 1/10 भाग में ही मनुष्य क्रियाशील हैशेष 9/10 भाग तो पश्च मस्तिष्क स्थित मनोविज्ञान की भाषा में अचेतन मन में अज्ञात् रूप में स्थित रहता है। जब की योग या अध्यात्म का क्रिया-कलाप दो युनिट-शक्ति में निहित एवं क्रियाशील रहता है। यही कारण है कि संसार में सांसारिक और तात्त्विक के मध्य प्रभावी रूप में आध्यात्मिक भी कायम रहते हैं। आध्यात्मिक को तात्त्विक यदि नियंत्रित न करेंतो सांसारिक लोगों कि सारी सांसारिकता ही समाप्त कर-करा देते, परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या  परमेश्वर या परमात्मा या खुदा या अल्लातsला या गॉड (GOD) अपनी सृष्टि को बिल्कुल समाप्त नहीं होने देना चाहता हैक्योंकि वह अपने भक्त एवं सेवकों के साथ इसी संसार में लीला करता है अर्थात् यह संसार परमात्मा की लीला भूमि एवं मुक्त विचरण के साथ ही परमप्रभु का कृपा-पात्र बनकर परम आकाश रूप परमधाम रूप मुक्ति और अमरता प्राप्त कराने वाला एक परीक्षा-स्थल है। यही कारण है कि युग-युग में परमात्मा को अवतार लेकर कष्ट झेलकर भी इसकी रक्षा करनी पड़ती है ।

यम
सद्भावी भगवद्प्रेमी पाठक बंधुओं ! आइये अब हम लोग यह देखें कि यथार्थतः योग और अध्यात्म क्या है ? हालाँकि यह अध्यात्म कुण्डलिनि-शक्ति एवं मूलाधार आदि चक्रों का अध्ययन एकमात्र शरीर के अन्तर्गत आन्तरिक गति-विधि में अनुभूति के अन्दर होता है जबकि यह योग का आठों अंग एक साधना या योग-क्रिया पद्धति का अध्ययन है ।
अष्टांग योग के अन्तर्गत यम पहला अंग या योग कि आठ सीढ़ियों में यम पहली सीढ़ी हैजिसका सीधा सम्बन्ध स्वभाव से होता है अर्थात् यम कोई क्रिया-विशेष नहीं होता हैबल्कि भाव को असत्य से हटाकर या खींचकर सत्य से युक्त करके सत्यमय बनानाहिंसा से हटा या खींचकर अहिंसक बनानासाम्पत्तिक दृष्टिउसमें भी चोरीलूटडकैतीअपहरणराहजनी आदि से हटा कर या खींचकर ईमानदार बनानावासना तथा ममता एवं आसक्ति से हटाकर या खींचकर ब्रह्मचर्य (स्त्री प्रसंग या स्त्री चिंतन से दूर) तथा (परमब्रह्म को जानपहचान कर ब्रह्ममय आचरण) बनाना तथा परिग्रह (सम्पत्ति संग्रह) से हटाकर या खींचकर अपरिग्रही (सम्पत्ति त्यागी) बनाना आदि यम के अन्तर्गत अथवा यम के द्वारा ही होता है । आइये जब हम लोग यम के प्रमुख अंग कितने हैं और क्या है ? इसको देखें । यम के मुख्यतः पाँच अंग हैंजो क्रमशः दिखायी देगा—
(1)सत्य: - कथनी के अनुसार ही करनी तथा करनी के अनुसार ही कथनी करना या होना ही सत्य है। शाश्वतता या अमरताएकरूपता एवं अपरिवर्तनशीलता परमभाव वाला सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामर्थ्य ही यथार्थतः सत्य है ।               
संसार में सामान्यतया ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगाजो सत्य से पूर्णतः अपरिचित हो और इसके ठीक प्रतिकूल ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं होगाजो पूर्णता के साथ ही यथार्थतः सत्य से परिचित हो।यहाँ पर परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी तथा उसके द्वारा देय तत्त्व ज्ञान-पद्धति के माध्यम से दीक्षित तत्त्वज्ञानीसांसारिक व्यक्ति में नहीं गिने जायेंगे क्योंकि प्रत्येक तत्त्वज्ञानी ही तत्त्ववेत्ता अवतारी से यथार्थतः सत्यता से पूर्णता के साथ परिचित होते हैं।
सत्य सृष्टि के अन्तर्गत सबसे मजबूतसबसे श्रेष्ठसबसे उच्चसबसे महानसबसे आकर्षकसबसे समर्थसदा-सर्वदा शाश्वत् रहने वाला अमरसदा-सर्वदा एकरूपसदा-सर्वदा अपरिवर्तनशीलसबसे बड़ा न्यायकारीसबसे उत्तमसबसे बड़ा रक्षक एवं सबसे बड़ा व्यवस्थापक तथा समस्त व्यक्ति (सांसारिकयोगीज्ञानी भी) को अपने छत्रछाया से आच्छादित किये हुये अपने आप में सर्वशक्ति-सत्ता सामर्थ्यवान् रूप भगवान या परमात्मा के रूप में सदा-सर्वदा परम आकाश रूप परमधाम या अमरलोक में विराजमान् रहता हैजो समय-समय पर सांसारिक व्यवस्था तहश-नहश हो जाने से चारों तरफ हा-हा कार या त्राहिमाम्-त्राहिमाम्-त्राहिमाम् की आवाज आसमान को विदीर्ण करती (चीरती) हुई परमधाम में पहुँचती है और नारदब्रह्मा तथा शंकर जी सहित विशिष्ट कार्यकर्ता गण के करुण पुकार पर परमधाम से भू-मण्डल पर युग-युग  में अवतरित होता है। उसके द्वारा ही अपनी यथार्थ जानकारी और परिचय देना ही विद्या-तत्त्वम् या तत्त्वज्ञान-पद्धति रूप सत्य-धर्म तथा मिथ्याभाषियों एवं मिथ्याचारियों तथा दुष्टों का सुधार एवं संहार और सज्जनों का रक्षा-व्यवस्था करता हुआ शान्ति और आनंदमय राज्य कायम करता है जो लीला है। सत्य तो यथार्थतः देखा जाय,तो विद्या-तत्त्वम् या तत्त्वज्ञान-पद्धति के माध्यम से जानी जाने वाली सर्व शक्ति सत्ता सामर्थ्य से युक्त एक विशिष्ट जानकारी हैफिर भी योगी-यतिऋषि-महर्षि एवं समस्त अध्यात्म वेत्ता ही सत्य को अपने अन्तर्गत ही वर्णन किये हैंइतना ही नहीं सत्य तो सत्य है हीयम ही अपने पाँचों अंगों सहित ही विद्या-तत्त्वम् की चीज हैयोग-साधना या अध्यात्म का नहीं। चूँकि आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति का अस्तित्व ही परमात्मा या परम-ब्रह्म या परम-ब्रह्म से पृथक् रह ही नहीं सकता या समाप्त हो जाता हैठीक वही बात है कि यम के बगैर योग या अध्यात्म का अस्तित्व ही नहीं रह पायेगा या उच्च से उच्च स्थान पर पहुँचे हुये होने के बाबजूद भी यदि यम से रहित होते ही पतनोन्मुखी या अधोमुखी होते हुये पतन या अधःपतन को प्राप्त होते होते हैं। यही कारण है कि यम को योग की प्रथम कड़ी या प्रथम अंग या प्रथम सीढ़ी स्वीकार किया गया ।सत्यादि यम को मात्र योगी-यतिऋषि-महर्षि एवं समस्त आध्यात्मिक सन्त –महात्मा को ही नहीं स्वीकर करना पड़ताबल्कि तत्त्वज्ञानियों पर भी तत्त्वज्ञानदाता द्वारा अनिवार्यता के साथ स्वीकार एवं लागू होता है। इतना ही नहींकर्म-काण्ड के अन्तर्गत भी सत्यादि यम से युक्त व्यक्ति ही मर्यादित एवं सम्मानित होते हैं। यम से रहित व्यक्ति किसी भी क्षेत्र चाहे वह कर्म का क्षेत्र-सांसारिक हो या योग का क्षेत्र आध्यात्मिक । यहाँ तक परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी के क्षेत्रान्तर्गत कार्यरत या निष्काम कर्मी के लिये भी यह (यम) अनिवार्यतः लागू होता या रहता है । यहाँ पर भी सत्यादि यम से रहित व्यक्ति को कोई स्थान नहीं मिल सकता अथवा कोई टिक नहीं सकता है। टिकने हेतु यम का पालन अनिवार्य है ।
योग या अध्यात्म के लिये जितनी आवश्यकता यम की हैकहीं उससे भी अत्यधिक आवश्यकता यम में सत्य की पड़ती है । यह बात भी है कि पातन्जलि आदि योगियों ने सत्य के पहले अहिंसा को स्थान दिया है । यह योगी या आध्यात्मवेत्ता गण कि नासमझदारी के सिवाय और कुछ नहीं है क्योंकि यथार्थतः सत्य को परमात्मा के अवतार वाले अवतारी के सिवाय और कुछ नहीं है क्योंकि यथार्थतः समझा ही कौन सकता है अर्थात् कोई नहीं और अवतार हरदम तो रहता नहीं हैयुग युग में या परिस्थिति विशेष में ही अवतार होता है और भू-मण्डल पर अवतारी सत्पुरुष कायम रहता हैतभी तक सत्य कि यथार्थतः जानकारी और पहचान भी हो सकता है अन्यथा नहीं। यही कारण है कि अवतार के भू-मण्डल पर अनुपस्थित के समय परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या खुदा या अल्लातsला या गॉड या परम अक्षर या परमसत्ता या परमभाव या अंततः परम की तलाश या खोज (शोध)करने पर भी योगी – यति ऋषि – महर्षिब्रह्मआलिम-औलियापीर-पैगम्बरप्राफेट्स एवं समस्त साधक सिद्ध और आध्यात्मिक सन्त-महात्माजन भी अत्यधिक परिश्रमकठिन तपस्या व्रत आदि के बावजूद भी परमब्रह्मपरमात्मा या परमसत्य को यथार्थ जान-देख नहीं पाये। तब अपने अन्तर्गत स्थित आत्म-ज्योति रूप आत्मा को ही परमब्रह्मपरमेश्वर या परमात्मा या परम सत्य मान लिये। घोषित भी कार दिये। इतना ही नहींलिखित रूप भी दे दिये। यह जरा सा भी विचार नहीं किये एवं इस पर थोड़ा भी ध्यान नहीं दिये कि जो भू-मण्डल पर है ही नहींउसके लिये उस समय लाख-करोड़ कुछ करे कैसे जान-देख या समझ सकते हैंऔर  परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा या खुदा या गॉड भू-मण्डल पर अवतार लेकर भ्रमण करते हैंतब उनसे मिलकर सत्यता को जानने देखने एवं पहचानने की कोशिश या प्रयत्न ही नहीं करतेजब कि कोशिश करने वाले सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी जान-देख-पहचान कर साथ देते हैं परन्तु ये सभी महानुभाव अपने योग-अध्यात्मकर्मआचार-तपस्या एवं मिथ्याज्ञानाभिमान में चूर रहने के कारण फूले रह जाते हैं और पुनः सर्व-शक्ति-सत्ता-सामर्थ्यवान् परमात्मा सत्य-धर्म की स्थापना एवं दुष्टों का दमन कर सत्पुरुषों का राज्य कायम कए अपने परमधाम रूप अमरलोक को चले जाते हैं और भक्त-जन उनके उपदेशों काअपने सकल प्रचार करते हैं,तब ये महानुभाव अपने सकल समाज के साथ पछतानेसिर पीटने एवं रोने-गाने लगते हैं कि हम जान नहीं पायेहम पहचान नहीं पायेहमने उनकी सेवा नहीं की आदि आदि । यही कारण है कि आत्म-ज्योति रूप आत्मा वाले समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्मा आदि ही सत्य कि यथार्थता को समझ नहीं पाये और सत्य से पहले अहिंसा को स्थान दे दिया । जब कि देखा जाय तो सत्य एवं धर्म के समक्ष अहिंसा का कोई स्थान नहीं है । यदि अहिंसा सत्य-धर्म से श्रेष्ठ रहतातो परमब्रह्मपरमेश्वरपरमात्मा के अवतार रूप श्री विष्णु जी महाराजश्री रामचन्द्र जी महाराजश्री कृष्णचन्द्र जी महाराज स्थान स्थान पर धर्म युद्ध न रहते और न कराते रहतेमुहम्मदसाहब भी जेहाद् (धर्मयुद्ध) नहीं कराये होते । जब कि इन सभी के धर्मयुद्ध के मूल में मात्र सत्य-धर्म की स्थापना ही था और दूसरे नम्बर पर गौण रूप में सज्जनों की रक्षा थी । अतः इससे स्पष्ट हो रहा है कि सत्य सबसे श्रेष्ठ है । इसके स्थापनार्थ कुछ भी करना या सहना पड़े सब कुछ थोड़ा ही होगा ।हिंसक एवं अत्याचारियों की सत्य-धर्म की स्थापना में हिंसा भी होता हैतो एक हिंसा में हजारों की अहिंसा छिपी रहती है । इसलिये सत्य-धर्म हर पहलुओं से श्रेष्ठतम् सर्वोत्तम एवं सर्वोच्च विधान हैजिसे यथार्थतः जान-देख-पहचान-समझकर प्रत्येक व्यक्ति को ही अपने जीवन में सटना-सटाना चाहिये। एक मात्र यहीं मानव जीवन का चरम एवं परम लक्ष्य है । यदि मानव जीवन पाकर भी उसमें भी अवतारी के समय मेंअपने को मुक्त और अमर नहीं कर या बना लेता तो उससे बढ़कर मूढ़-जढ़अधम,नीच एवं आत्मघाती या आत्महत्यारा कोई और नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा सुअवसर कोटि-कोटि जनमों के बाद भी मिलेगा कि नहीं,यह कहा नहीं जा सकता है । इसलिये अवसर से कदापि चूकना नहीं चाहिये।
(2)अहिंसा :- अहिंसा हिंसा का ही विलोम शब्द हैं । हिंसा का सामान्य अर्थ हत्या से कहा और समझा जाता है परन्तु हिंसा का विशिष्ट अर्थ किसी भी जीव को किसी भी प्रकार का छोटा या बड़ा कष्ट देना ही हिंसा है । ठीक इसके प्रतिकूल किसी भी जीव को किसी भी प्रकार से एवं किसी भी प्रकार का भी कष्ट न देना ही अहिंसा है । अहिंसा जीव-कल्याण का सर्वोत्तम सिद्धान्त है । एक जीव दूसरे जीव को किसी प्रकार से किसी भी प्रकार का कष्ट देना बन्द करके सेवा और सहयोग देकर कल्याण करने लगेंयही जीवन का और जीवन के लिये शान्ति और आनन्द है और यही जीवन का लक्ष्य है की कल्याणमय जीवन जीते हुये मुक्ति और अमरता को हासिल करेंप्राप्त करें।जो व्यक्ति इस लक्ष्य को पूरा नहीं कियाअपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेतावह मानव नहीं एक पशु हैमूढ़ हैजढ़ हैआत्मघाती है और आत्म-हिंसक है ।
मुजफ्फरपुर २२/११/१९८२ ई.


अहिंसा परमो धर्म:  भ्रामक :- अहिंसा परमो धर्म:’ के अन्तर्गत जो भाव छिपा हैवह अपने में श्रेष्ठ तो अवश्य है परन्तु अहिंसा ही परमधर्म भी होयह बात नाजानकार एवं नासमझदार व्यक्तियों द्वारा ही कहासुना एवं स्वीकार किया जा सकता है परन्तु विद्या-तत्त्वम् या तत्त्वज्ञान-पद्धति या यथार्थतः परम सत्य वाले तत्त्ववेत्ता-अवतारी सत्पुरुषों की दृष्टि में सत्यमेव जयते एवं सत्यमेव परमोधर्मः ही स्वीकार एवं मान्य है । तत्त्ववेत्ता अवतारी श्री विष्णु जी महाराज; परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता रूप श्री रामचन्द्र जी महाराज एवं परम ब्रह्म या परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता श्री क़ृष्णचन्द्र जी महाराज ने अहिंसा को नहींबल्कि अहिंसा के स्थान पर सत्य को ही स्वीकार भी किया जाता था और लागू भी किया था । समस्त महापुरुषों एवं सत्पुरुषों की यथार्थतः जीवनियों और उपदेशों के साथ ही साथ क्रिया-कलापों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि अहिंसा को परम मात्र उन्हीं महापुरुषों ने कहा,गाया एवं माना हैजो समाज में सत्य पर टिक नहीं पाये थे, सत्य हेतु सामाजिक संघर्षों को सहन नहीं कर पाये थेअसामाजिक व्यक्तियों के जोर-जुल्मों का जवाब देने में असमर्थ हो गये थे या अपनी क्षमता ही नहीं थीया जोर-जुल्मों एवं जुल्मियों का सुधार एवं उद्धार में असमर्थ रहेवहीं इस मध्यम मार्ग को स्वीकार कर अपने अहम रूप अहंकार को कायम रखते हुये यह अहिंसा परमो धर्मः घोषित कर-करा कर भगवद् प्रेमी श्रद्धालु एवं जिज्ञासु भक्तों को परमात्माखुदागॉड या परम सत्य से विचलित करते हुये भ्रमित करके अहिंसा को ही परम धर्म घोषित कर इसी में जकड़ दियेजिससे भगवद् प्रेमी श्रद्धालु एवं जिज्ञासु भक्त जन परमात्मा या परम सत्य की प्रगति से वंचित रह गये । यह बात मान्य है कि महावीर (जैन) एवं गौतम बुद्ध तथा महात्मा गांधी आदि ने भी अहिंसा को ही स्थान दिया थाफिर भी इससे क्या होता है जबकि किसी भी सत्पुरुष ने अहिंसा को परम स्वीकार्य नहीं किया है । महावीर जैनगौतम बुद्ध तथा महात्मा गांधी आदि को यथार्थतः परम सत्य की जानकारी तो थी नहींइसलिये अहिंसा को ही परम धर्म स्वीकार एवं घोषित कर लिये क्योंकि ये महानुभाव अवतार के समकालीन रहते,तब यथार्थतः की जानकारी हो पाती है। बुद्ध ने खुद ही घोषणा की थी कि सत्य-धर्म पर टिकना और लेकर चलना मेरे वष का नहीं है । इसलिये ही मध्यम मार्ग को ही स्वीकार कर रहे हैं। जहाँ तक महात्मा गांधी की बात है, तो बंधु जरा इस बात से विचार मंथन करे एवं विशेष ध्यान देते हुये समझने की कोशिश करें कि महान दस कर्म चन्द्र गांधी 'हरे राम' परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी शरीर का 'नाम' वह भी शरीर छोड़कर परमब्रह्म परमात्मा के परम धाम चले जाने के बाद तथा 'श्री मद् भगवद् गीता' जो परमब्रह्म या परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता श्री कृष्ण जी का उपदेश वह भी विशुद्ध नहीं, वेदव्यास द्वारा यत्र-तत्र योग को जोड़ या घुसेड़ देने के बावजूद वह भी अवतारी कृष्ण जी शरीर को छोड़कर परमब्रह्म को अपने धाम चले जाने के बाद मात्र इन्हीं दोनों को अपना कर तो महात्मा गांधी हो गयेजैसे बन की तुलसी घास सम्पर्क पाकर तुलसी दल या तुलसी माई हो गयी एवं तुलसियातुलसीराम हो गयेतो जरा सा सोचने की बात है कि मोहनदास कर्मचन्द तो मात्र 'हरे राम ' शब्द और 'श्री मद् भगवद्गीता' उपदेश को पाकर अपने जीवन को उसी में चिपककर 'हरे राम' जपते और निष्काम कर्म करते हुये महात्मा गांधी और राष्ट्रपिता हो गयेकहीं जो तत्त्ववेत्ता रूप अवतारी श्री रामचन्द्र जी महाराज या कृष्ण चन्द्र जी को पाये होतेतो शायद हनुमान और अर्जुन अवश्य बने होतेजो अहिंसा के स्थान पर प्रभु के अवतार रूप अपने स्वामी के सेवार्थ एवं आज्ञा पालनार्थ दुर्जनों को हिंसा को सहर्ष स्वेकर करते हुये जीवन को उसी में सटाते हुये भी आज भी मंदिर के मूर्ति के रूप में विराजमान ही नहींपूजनीय भी हैं।इसीलिये यथार्थतः परम सत्य की अनभिज्ञता के कारण ही गांधी ने सत्य के समक्ष अहिंसा को आगे रखा; अब रहते तो उनको भी अवतार के सम्पर्क से पता लग जाता कि 'अहिंसा परमो धर्मः' यथार्थ नहीं है बल्कि 'सत्य परमो धर्मः' 'अहिंसा मध्यमों धर्मः' अर्थात् 'सत्यमेव परमो धर्मः अहिंसाश्च मध्यमः'' । अन्ततः अहिंसा परमो धर्म,समाज को भ्रमित कर परमात्मा या परमसत्य से वंचित करा देता है ।

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