अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मागण समाज के सुधारक मात्र ही होते हैं समाज
के उद्धारक नहीं। समाज का उद्धारक परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या
परमब्रह्म या परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष ही हो सकता है, अन्य कोई नही। परन्तु सुधारक अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मा बन्धु ही जब अपने को तत्त्ववेत्ता या
अवतारी या मुक्ति और अमरता रूप उद्धार करने वाले उद्धारक बनने लगते हैं, तो बनना तो ठीक या
कारगर होगा, जब कि उद्धारक के कार्य रूप मुक्ति आर अमरता का बोध कराते हुये
आत्म-कल्याण तथा परिवार कल्याण से पृथक् समाज कल्याण हेतु शारीरिक पारिवारिक एवं
सांसारिक बंधनों को तोड़ते या समाप्त करते-कराते हुये धर्म के संस्थापनार्थ एवं
दुष्टों के विनाशार्थ तथा भक्त एवं सज्जन की रक्षा एवं अमन-चैन हेतु जीवन लगाते
हुये मुक्त जीवन जीते हुये परमात्मा की सेवा हेतु ही परमात्मा के कृपा पात्र बना
रहे ।
परा विद्या या अध्यात्म विद्या या योग विद्या वाले सन्त-महात्मा
बंधुओं को इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिये की योग या अध्यात्म के अन्तर्गत
सर्वोच्च, अपने समयों मेन प्रतिष्ठा एवं मान्यता प्राप्त –शंकर जी, ब्रह्मा जी, नारद जी भी अवतारी
नहीं बन सके, अवतारी परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या
परमात्मा के अवतार रूप श्री विष्णु जी महाराज ही एकमात्र अवतारी सत्पुरुष के पद को
सुशोभित करते रहे। पुनः वशिष्ठ जी याज्ञवल्य जी, अंगी, भारद्वाज, लोमश, विश्वामित्र, बाल्मीकि आदि ब्रह्मर्षि तक बन गये या ब्रह्मर्षि पद तक पहुँच गये। ये
लोग भी योग या अध्यात्म के अपने समय के सर्वोच्च स्तर पर थे, फिर भी भगवान् या
तत्त्ववेत्ता अवतारी नहीं बन पाये। यह पद परमात्मा के एकमात्र अवतार रूप श्री
रामचंद्र जी महाराज से ही सुशोभित हुआ। ऐसे ही अष्टावक्र, अंगीरस, अथर्वा, वेदव्यास, शौनक, शुकदेव, सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार, पराशर, दुर्वासा आदि अनेकों
(अट्ठासी हजार ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि) ही योग या अध्यात्म वेत्ता थे, परन्तु तत्त्ववेत्ता
अवतार वाले पद पर इनमें से किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ी, बल्कि परमात्मा या
परम ब्रह्म के अवतार रूप श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज ही एक मात्र ऐसे थे की गौओं
के चरवाहा जैसे सामान्य जीवन बिताते हुये इस सर्वोच्च उत्कृष्टतम् एवं सर्वोत्तम्
पद को शोभायमान किये। अन्ततः हम (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस, सत्य-ज्ञान परिषद
वाले) वर्तमान में समस्त योगवेत्ता या अध्यात्मवेत्ता या आत्मवेत्ता योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त –महात्मा
आदि-आदि तथा बनने वाले भगवानों एवं बनने वाले अवतारियों से भी बता ही नहीं, अपितु स्पष्ट बता
देना चाहते हैं कि अब तक बने सो बने, अब से भी तो अपने यथार्थता कि घोषणा करते हुये सत्यता को जाने देखें
तथा यथार्थतः तत्त्वज्ञान-पद्धति से बात-चीत करते हुये पहचानें तब ही माने। मनमाना
अवतारी या भगवान् बनने का स्वप्न या परिकल्पना न करें। सत्य सत्य ही होता है। सत्य
कभी भी असत्य को बर्दास्त नहीं कर सकता।अर्थात् असत्य, सत्य के समक्ष कभी
टिक नहीं सकता। असत्य को समाप्त होना ही पड़ेगा। इसलिये समस्त योगवेत्ता या
अध्यात्मवेत्ता या आत्मवेत्ता महानुभावों से सत्यता के साथ स्पष्टतः बतलादे रहा
हूँ कि अब से भी तत्त्ववेत्ता अवतारी न
बनकर, जो है। वह रहे। वह भी एक महत्वपूर्ण पद है परन्तु यह बात ठुकराकर अथवा
न मानकर मिथ्याज्ञानाभिमान के कारण असत्य से युक्त कायम रहे, तब उनके लिये भी यही
बात कि –‘जैसी करनी, वैसी भरनी’ से ही गूजरनी पड़ेगी। अब परमात्मा दोषी नहीं हो सकता, क्योंकि परमात्मा की
बात ही यहाँ बतायी जा रही है ।