ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ तो अविवाहित एवं
स्त्री-प्रसंग रहित जीवन से लगाया जाता है परन्तु ब्रह्मचर्य की यथार्थतः इसमें
नहीं है अपितु – ‘ब्रह्ममय आचरण (वृत्ति
और कृत्ति)’ ही यथार्थतः ब्रह्मचर्य
है। मात्र स्त्री-प्रसंग ही ब्रह्मचर्य भंग होने का लक्षण नहीं होता है अपितु
स्त्री चिन्तन भी उसी में आता है। अविवाहित रहते हुये भी स्त्री-चिन्तन में पड़े या
डूबे रहना भी मानसिक व्यसन है और सैकड़ों हजारों स्त्रियों के बीच या साथ रहते हुये
यदि ब्रह्मचर्य आचरण (वृत्ति एवं कृत्ति) है तो इसका ब्रह्मचर्य पर कोई असर या
प्रभाव नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ अनेकानेक स्त्रियों को रखने के बावजूद भी श्रीकृष्ण
जी महाराज के ब्रह्मचर्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे ब्रह्मचर्य के ब्रह्मचर्य बने
रहे। परन्तु अधिकाधिक मात्रा में लोग अविवाहित रहने के बावजूद भी इतने गृहासक्त
होते हैं कि ब्रह्म और परमब्रह्म नाम से कोई मतलब ही नहीं होता है। तो ऐसे लोग
ब्रह्मचर्य कहलाएं, यह कदापि मानने की बात
नहीं है। ऐसे व्यक्ति गृहस्थ जीवन में आसक्त हों और स्त्री-प्रसंग नहीं तो
स्त्री-चिन्तन भी न करता हो – यह मानना भी भ्रम, भूल, नाजनकारी एवं ना समझदारी ही मानी जायेगी।
हाँ, अपवाद हो सकता है।
ब्रह्मचर्य : दृढ़तर एवं शक्तिशाली जीवन हेतु
अनिवार्य :-
सद्भावी बन्धुओं ! यह बात अवश्य याद रखनी
चाहिए कि दृढ़तर एवं बलवती जीवन हेतु ब्रह्मचर्य अनिवार्य सिद्धान्त है। कामिनी और
कांचन से युक्त रहते हुये, अपनत्व भाव में रहते हुये, कोई यह चाहे कि परमात्मा को पा जाऊँ तो प्रभु कृपा पर यह तो मुमकिन है
परन्तु कोई यह सोचे कि परमेश्वर भी हमारा रहे और कामिनी और कांचन या शरीर और
संपत्ति और परिवार और संसार भी हमारा रहे तो इससे बढ़कर जढ़ता-मूढ़ता एवं नासमझदारी
और हो ही क्या सकता है ? अर्थात् परमतत्त्वम् रूप
(आत्मतत्त्वम्) रूप शब्दब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा को बोध दृष्टि से जान-देख
एवं बात-चीत करते हुये तत्त्वज्ञान पद्धति से पहचान भी कर लिया हो तत्पश्चात् शरीर
और सम्पत्ति, परिवार और संसार या
कामिनी और कांचन को भी अपनत्व के रूप में कायम रखना चाहता है तो कभी भी परमात्मा
को ऐसा समझौता स्वीकार नहीं होता। परमात्मा सदा एकाधिकार वाला होता है, परमात्मा के आज्ञाओं में ही अपने जीवन को कर
देने में या परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामर्थ्य के आज्ञाओं
और अपने जीवन को जब एक ही मानकर चलाया, जीवन यापन किया जाय यही ब्रह्मचर्य जीवन है क्योंकि परमात्मा को
व्यभिचारिणी भक्ति कदापि पसन्द या मंजूर नहीं होती है। उन्हे एकमात्र अनन्य भक्ति
या अव्यभिचारिणी भक्ति ही स्वीकार होती है।
ब्रह्मचर्य अथवा ब्रह्ममय वृत्ति एवं
ब्रह्ममय कृत्ति योग-साधना का अनिवार्य अंग है। यह तो स्वतः विचार करने की बात है
कि जीव (अहम्) का आत्मा (सः) या ब्रह्म से मिलना या जुड़ना ही योग-साधना है, तो जिस ब्रह्म या आत्मा से ही मिलना या जुड़ना
है, यदि वैसे ही या उसी के अनुसार अपने अपनी
वृत्ति और कृत्ति को नहीं किया जाएगा तो यह तो स्वाभाविक ही है कि ब्रह्म या आत्मा
वाला सम्बन्ध कायम नहीं रह सकता। यह दुनिया की रीति है कि “जिसकी चा हो, उसी की राह भी होगी”। ऐसे ब्रह्म को पाने की
चाह के लिए ब्रह्ममय राह पर चलना ही पड़ेगा। ऐसा अपने अन्दर संकल्प कर लेना चाहिए
क्योंकि ब्रह्मप्राप्ति के पश्चात् अपनी चाह, चाहे जिस प्रकार की भी हो, उसे समाप्त करना ही अथवा ब्रह्ममय विलय करना
अथवा होना ही पड़ेगा।
गोपालगंज जेल २८/११/१९८२ ई॰
अपरिग्रह :- अपरिग्रह का अर्थ है “सम्पत्ति-संग्रह न
करना”। लगभग ९०% अपराध का आधार-विन्दु सम्पत्ति संग्रह होता है और वर्तमान में
संसार में चोरी, डकैती, लूट एवं घूसखोरी जैसा भ्रष्ट-अपराध भी
“सम्पत्ति-संग्रह” के कारण ही हो रहा है। कोई व्यक्ति यदि योग-साधना करना चाहता है, तो सर्वप्रथम उसे यम के अन्तर्गत इन पाँच –
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को अपने जीवन का
सिद्धान्त बनाना ही पड़ेगा, अन्यथा योग-साधना तो योग-साधना है, परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी
के यहाँ भी टीके रहना या कायम रह पाना बिल्कुल ही असम्भव है और असम्भव होगा भी।
भगवद् प्रेमी सद्भावी बन्धुओं ! कामिनी और
कांचन दो ही माया का स्थूल रूप हैं। इन दोनों से युक्त रहते हुये यदि कोई यह सोचे
या चाहे की परमात्मा-आत्मा अथवा तत्त्वज्ञान योग-साधना को हासिल कर उस पर टीका या
कायम रहे – यह तो स्वप्न में भी सोचना मूढ़ता एवं जढ़ता के सिवाय कुछ भी नहीं है। इतना
ही नहीं सम्पत्ति-संग्रह एवं नारी-सम्बन्ध सांसारिक भाव में, न कि धार्मिक भाव में। क्योंकि सांसारिक भाव
में कामिनी कांचन की किसी को फँसाती एवं आत्मा और परमात्मा से दूर रखती है। यदि
परमप्रभु की विशेष कृपा से कहीं आत्मा और परमात्मा की प्रगति और सम्बन्ध हो भी गया
है, तो उस सम्बन्ध को छोड़-छुड़ाकर दूर हटाते हुये
बर्बाद करा देना अथवा विनाश के मुख में पहुँचा देना, इसके (कामिनी और कांचन के) लिए आम बात या
सामान्य बात है, जिससे रक्षा पाना है तो
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूपी सिद्धान्तों को ही अपना जीवन बनाते हुये परमात्मा के
अवतार रूप अवतारी तत्त्ववेत्ता सत्पुरुष के चरणों में पूर्णतः ईमान के साथ
सत्य-धर्म-न्याय एवं नीति की स्थापना हेतु अपने शरीर को समर्पित करके शारीरिक, पारिवारिक साम्पत्तिक एवं सांसारिक आदि
समस्त बंधनों को तत्त्वज्ञान पद्धति से बोध-दृष्टि से समाप्त या कटा हुआ देखते
हुये निर्भयता पूर्वक “मुक्त-जीवन” जीते हुये शरीर छूटने पर परमतत्त्वम्
(अत्तमतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा, खुदा, गॉड में विलय रूप मोक्ष को जो जीव का अग्रिम
या चरम या परम लक्ष्य है प्राप्त करना चाहिए।
ब्रह्मचर्य द्वारा कामिनी तथा अपरिग्रह
द्वारा कांचन का त्याग ‘मुक्त जीवन’ हेतु अनिवार्य :-
किसी भी मनुस्य को आत्मा और परमात्मा से
बिछुड़ाकर उनके स्थान पर अपने में फंसाकर सांसारिक या मायावी बनाने का एकमात्र
श्रेय कामिनी और कांचन को ही मिलता है। कामिनी और कांचन का प्रभाव अपने पर से
समाप्त हो जाये या अपने को कामिनी और कांचन के प्रभाव से मुक्त कराया जाय, इसके लिए अत्यावश्यक है कि ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह का सिद्धान्त अपनाकर अपने जीवन को उसी में लगा दिया जाय। यह एक सर्व
सामान्य बात है कि हम आप अपने जीवन को जिस वस्तु-व्यक्ति, शक्ति एवं सत्ता-सामर्थ्य में लगाएंगे, उसी के कर्म, गुण एवं परिणाम को पायेंगे। जैसे यदि हम
अपने शरीर को शरीर और सम्पत्ति या परिवार और संसार अथवा कामिनी और कांचन में
लगाएंगे तो सुख-दुःख तथा ममता और आसक्ति पायेंगे, यदि जीव या विचार में लगाएंगे, तो अहंकार और अशान्ति पायेंगे ; यदि आत्मा और योग-साधना में लगाएंगे, तो चिदानन्द या ब्रह्मानन्द या आत्मानन्द या
दिव्यानन्द और शान्ति तथा कल्याण पायेंगे और अन्त में यदि आप हम अपने शरीर को
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा या परमात्मा
की जानकारी एवं दरश-परश या पहचान कराने वाला सिद्धान्त रूप तत्त्वज्ञान-पद्धति या
विद्या-तत्त्व या सत्यज्ञान तथा इसके व्यावहारिक रूप सत्य-धर्म-न्याय एवं नीति में
लगाएंगे, तो परमशान्ति, परमकल्याण, परमानन्द, परमपद, मुक्ति, अमरता एवं सच्चिदानन्द रूप परमात्मा के
सेवा-भक्ति में ही सदा-सर्वदा के लिए, जो जीवों का अन्तिम या चरम या परम लक्ष्य है को पायेंगे। यह बात भी सत्य
ही है की कामिनी और कांचन का पूर्णतः त्याग तो हो ही नहीं सकता, यदि परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप
शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा की प्राप्ति एवं पहचान तत्त्वज्ञान-पद्धति
या विद्यातत्त्वम् के माध्यम से यथार्थतः परमात्मा या परमसत्य को जान-देख एवं
बात-चीत करते हुये पहचान कर, ईमान के साथ पूर्णतः समर्पण भाव से सत्य-धर्म-न्याय एवं नीति में तन-मन-धन
से परमात्मा की राय या निर्देशन में ही अपने को लगा नही दिया जाता ।अन्ततः यह बता
दिया जा रहा है कि सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह-इन पाँच अंगो वाले
यम में अपरिग्रह जो पाँचवे स्थान पर प्रयुक्त हुआ है, की मर्यादा कम नहीं है। यदि अपरिग्रह अथवा ‘संपत्ति-संग्रह न करना’ सिद्धांत समाज में प्रभावी रूप से लागू कर
दिया जाय, तो चोरी, डकैती एवं लूट तो बंद ही हो जायेगा, कर्मचारियों, अधिकारियों, विधायकों, सांसदों एवं मन्त्रियों तक लिया जाने वाला
घूस जो वर्तमान में शत-प्रतिशत अत्याचार एवं भ्रष्टाचार रूपी घोर अपराधों का
उत्पत्ति, संचालन एवं संरक्षण केन्द्र बना हुआ है । यह
एक मात्र अपरिग्रह रूप सिद्धांत के लागू होते ही जादुई चमत्कार की तरह नब्बे
प्रतिशत अपराध तो स्वतः ही बन्द हो जायेंगे ।इतना ही नहीं वर्तमान में दहेज प्रथा
नामक घोर सामाजिक कलंक से भी समाज फिर धुलकर स्वच्छ समाज कायम हो जायेगा,इसमें सन्देह की गुंजाइश ही नहीं है । यह
मात्र कोरी कल्पना नहीं अपितु अवश्यम्भावी तथ्य है ।
सद्भावी बंधुओं से हम स्पष्टतः बता देना
चाहेंगे कि ‘यम’ वास्तव में विद्या-तत्त्वम् या
तत्त्वज्ञान-पद्धति या परम विद्या की बात है क्योंकि किसी भी तत्त्वज्ञान या
तत्त्वज्ञान प्राप्त बन्धु के लिये तो अपने में इस यम नामक सिद्धांत को अनिवार्यतः
पालन करना पड़ता है परन्तु इसकी श्रेष्ठता एवं प्रभावशीलता को देखकर योग-साधना की
प्रथम कड़ी बना दिया। यम योग –साधना के अन्तर्गत सर्वश्रेष्ठ अथवा श्रेष्ठतम
सिद्धान्त है। हालांकि यह योग-साधना में प्रयुक्त होने वाली कोई क्रिया-प्रक्रिया
नहीं हैं, जबकि योग, साधना जीव (अहं) तथा (सः) के बीच आपसी
मेल-मिलाप की क्रिया-प्रक्रिया के सिवाय कुछ है ही नहीं। जब कि यम कोई प्रक्रिया
नहीं, बल्कि व्यावहारिकता में आत्म नियंत्रक पद्धति
है, जिसके सहारा से व्यक्ति और समाज एवं उत्थान
को प्राप्त होता है और होगा भी तथा जिसके सहारा बगैर वही व्यक्ति और समाज अधोमुखी
होकर पतन को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार इतनी कीमती या मूल्यवान् मानव शरीर
पाकर भी यदि कोई अपना सुधार-एवं उद्धार नहीं कर-करा लेता है तो इससे बढ़कर मूढ़, जढ़, सठ, अभिमानी, निन्दा का पात्र और आत्महत्यारा या आत्मघाती
कोन होगा ?
वर्तमान कालिक हा-हाकार या त्राहिमाम्-
त्राहिमाम्-त्राहिमाम् की आवाज कब तक कायम रहेगी ? तो इसके जवाब में एकमात्र यही उत्तर होगा
कि-‘विद्यातत्त्वम्’ को शिक्षा-पद्धति के स्थान पर तुरन्त एवं
प्रभाव तरीके से व्यक्ति और समाज पर लागू करके सबके जीवन को यम से युक्त कर-करा
दिया जाय। तब देखा जाय कि इसका परिणाम क्या सामने आता है, तो तुरन्त से ही,क्या दिखायी देगा कि –विश्व की
समस्यायें-जनसंख्या, बेकार और बेगार, चोरी, लूट, डकैती, राहजनी, आगजनी, अपहरण तथा समस्त अपराधों का मूलरूप घूसखोरी
आदि ही क्या, दहेज-प्रथा आदि कलंक ही
समाज से समाप्त हो जायेगा।
नियम
सद्भावी भगवत् प्रेमी पाठक बंधुओं ! अब हम
लोगों ने ‘यम’ को देखा है जो भाव-शुद्धि एवं समाज सुधार
एवं समाजोद्धार हेतु अनिवार्यतः सिद्धान्त है। अब यहाँ पर शरीर शुद्धि एवं
विचार-शुद्धि जो योग-साधना की सिद्धि के लिये अत्यावश्यक होता है, की जानकारी एवं पद्धति को देखा जायेगा। जैसा
कि पिछले प्रकरण में जाना-देखा गया है कि ‘यम’ के अन्तर्गत पाँच प्रमुख अंग हैं, ठीक वैसे ही नियम के अन्तर्गत भी पाँच प्रमुख
अंग हैं, जो क्रमशः वर्णन होगा। समस्त पाठक बंधुओं से
इतना अवश्य बता देना चाहूँगा कि अपना उत्थान तथा उसी के माध्यम से समाज का उत्थान
करने हेतु शारीरिक एवं वैचारिक शुद्धि अत्यावश्यक होता है। जिसके लिये नियम के
अन्तर्गत आने वाले पाँचों विधान कि जानकारी हासिल कर प्रक्रियाओं को करते हुए अपने
जीवन को ढालें। यह पाँच प्रकार का है जैसे -----1 शौच 2 तप 3 संतोष, 4 ईश्वर प्रणिधान और 5 स्वाध्याय। अब क्रमशः
पृथक्-पृथक् देखा जाय।
शौच
शौच का अर्थ है शुद्धि या पवित्रीकरण से है। शारीरिक शुद्धि मानव जीवन के आनन्द हेतु जितनी आवश्यक है इसकी अनुभूति लगभग
प्रत्येक को ही थोड़ा-बहुत अवश्य होती है तथा क्षमतानुसार सभी थोड़ा-बहुत करते ही
हैं। परन्तु यदि योग-साधना करना है अर्थात् अपने जीव को आत्म-ज्योति रूप आत्मा से
मिलाकर आत्मामय जीवन बिताने हेतु शारीरिक शुद्धिकरण या पवित्रीकरण तथा वैचारिक
शुद्धि अत्यावश्यक होता है। यह मुमकिन है कि हम आप चाहे जैसे भी हों ध्यान या
दिव्य-दृष्टि के द्वारा आत्म-ज्योति का दरश-परश ही हो जाय परन्तु उसके यथार्थतः
शान्ति एवं चिदानन्द रूप आनंदानुभूति का होना मुश्किल है। क्योंकि शौच एक प्रकार
की शारीरिक एवं मानसिक शुद्धिकरण या पवित्रीकरण की क्रियात्मक पद्धति है। जिस प्रकार
सांसारिक शुद्ध जीवन हेतु सफाई तथा स्वच्छता की आवश्यकता पड़ती है, ठीक उसी प्रकार जीव को आत्मा से मिलन एवं
आत्मामय रूप में कायम रहने के लिये शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि अत्यावश्यक क्रिया-प्रक्रिया है। क्योंकि शारीरिक शुद्धि के माध्यम से जीव उर्ध्व्मुखी
होता है एवं मानसिक शुद्धिकरण से जीव का आत्मा से मिलन में भावनात्मक सहयोग की भी
प्राप्ति होती है। हालाँकि भावनात्मक शुद्धि हेतु यम और शारीरिक शुद्धि हेतु नियम
की व्यवस्था हुई है। शौच मुख्यतः दो प्रकार का होता है आभ्यांतर और बाह्य अथवा
नेति और धौति। यहाँ पर अब क्रमशः दोनों को देखा जाय ।
नेति:-
शारीरिक शुद्धिकरण के अन्तर्गत नेति बाह्य
शुद्धि की क्रिया है। जिसके अन्तर्गत मल-विसर्जन, मूत्र-विसर्जन, स्नान, मुख प्राक्षालन, पाद प्राक्षालन आदि क्रियायें अति हैं। नेति-क्रिया से शरीर की शुद्धि होती है जिसके परिणाम स्वरूप इंद्रियाँ तथा शरीर
के शेष अंगों में भी शुद्धता एवं स्वच्छता के सठ स्फूर्ति बनी रहती है, जिससे मस्तिष्क सामान्य तथा शरीर को गलत
रास्ते पर नहीं भटका पता है ।बंधुओं आइये अब प्रत्येक की यथार्थता को पृथक्-पृथक्
जाना-देखा जाय ।
मल-विसर्जन :-
शौच के अन्तर्गत नेति क्रिया के अन्तर्गत
मल-विसर्जन शारीरिक शुद्धि के लिये प्रथमतः एवं अत्यावश्यक क्रिया है। शरीर के
लिये जितनी आवश्यक भोज्य या खाद्य पदार्थ की है, उससे जरा सा भी कम आवश्यक मल-विसर्जन की नहीं
है, जहाँ तक अधिक आवश्यकता भले ही पड़ जाय। मल
विसर्जन मल-विक्षेप की क्रिया में कभी भी किसी भी स्थिति-परिस्थिति में विलम्ब
नहीं करना चाहिये। भोजन भले ही एक या दो बार न मिले, परन्तु इस क्रिया को कभी भी आभास होने पर देर नहीं करना चाहिये। क्योंकि
पेट के नाडियों में मल से उत्पन्न होने वाली दुर्गंद्धित वायु नाना प्रकार के
रोगों को उत्पन्न करने लगती है। यह स्वतः ही विचार करना चाहिये कि आखिरकार मल से
उत्पन्न होने दुर्गंद्धित वायु नाना तरह के रोगों को उत्पन्न करने लगती है। यह
स्वतः ही विचार करना चहिये कि आखिरकार मल से उत्पन्न दुर्गंद्धित वायु को नाड़ियों
में ही तो विचरण करना है और वह दुरगदधित वायु है, तो नाड़ियों में तथा अन्य शारीरिक अंगों में
गड़बड़ी उत्पन्न नहीं करेगी, तो क्या करेगी? अर्थात् गड़बड़ी होनी ही
है। इसलिये आभास होने पर तुरन्त मल-विसर्जन कीक्रिया कार लेना चहिये, अन्यथा नाना प्रकार की गड़बड़ियों से बचना
असम्भव है ।
सद्भावी योग-साधना परायण साधक बंधुओं को तो
इस बात पर कितना ध्यान देना चहिये यह कह देना ही उसकी आवश्यकता को कम करना है। क्योंकि पहली बात तो यह है कि योग-साधना की सारी क्रियाएँ लगभग वायु
(स्वास-प्रस्वास)पर ही आधारित रहती हैं और यदि वायु ही दूषित और दुर्गंद्धित हो
जायेगी, तब उसमें शक्ति-संचार कराया जाय तो पहले तो
होना ही नहीं है, और यदि होगा भी तो
वामपंथी (हानिकर) ही होगी। दूसरी बात यह है की शरीर का सामान्य-प्रक्रिया में
संचालन मूलाधार-स्थित शिव-लिंग रूप मूल जिसमें कुण्डलिनि शक्ति बराबर ही
मोह-निद्रा में सोयी हुई पड़ी रहती है, जिसको जगाकर ऊर्ध्वमुखी बनाना ही योग-साधना का एक शुरुआत होता है। मल
विसर्जन में आभास के पश्चात जो भी प्रभाव पड़ता है, उसमें सबसे बड़ा कुप्रभाव तो कुण्डलिनी एवं
शिव लिंग रूप मूल पर पड़ता है और वह व्यक्ति सामाजिक रूप में जढ़ता एवं मूढ़ता से भी
युक्त होकर घृणित होता है और एक समय ऐसा आता है कि वह सामाजिक बहिष्कार यानी चारों
तरफ से घृणित होने लगता है। इस प्रक्रिया में यदि योग-साधना से सम्बंधित रहने पर
अवघड़ तथा गृहस्थ रहने पर पागल जैसा तक होने की सम्भावना बनी रहती है और होती भी है
।
मूत्र-विसर्जन :-
सद्भावी भगवत् प्रेमी पाठक बंधुओं ! शारीरिक
शुद्धिकरण में नेति-क्रिया के अन्तर्गत यह दूसरे नम्बर पर आने वाली क्रिया है। जब
जल ग्रहण किया जाता है तो नाडिया धुल कर एवं प्रयोग में आने वाले जल का शेषांश
दूषित जल ही मूत्र है और उसका शरीर से उप स्थेंद्रिय के माध्यम से बाहर निकालना ही
मूत्र-विसर्जन क्रिया है।
मल विसर्जन एवं मूत्र-विसर्जन :- ये दोनों क्रियाएँ ही स्वाभाविक हैं और
स्वाभाविक क्रियाओं में सामान्य स्थिति में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करना चाहिये। हाँ, परिस्थिति विशेष में और वह भी किसी सहयोगी
क्रिया के माध्यम से ही कोई परिवर्तन करना चाहिये अन्यथा बड़ी से बड़ी बीमारियों से
भी जूझना पड़ सकता है। इसलिये यह पहले ही विचार करके कि बीमार होने के दावा करने से
बढ़िया है कि बीमारी हो ही नहीं, इसका ही थोड़ी-बहुत सावधानी से हल कार लिया जाय ।
मुख प्राक्षालन :-
मुख प्राक्षालन मिजाज की चुस्ती एवं कार्यों
में स्फूर्ति हेतु एक बहुत ही आवश्यक क्रिया है। मुख प्रक्षालन करते समय उसकी
पद्धति को जानकार, उसी के अनुसार क्रिया
करने पर हम आप का स्वच्छता के सठ ही सठ अनेक बीमारियों से पूर्व-रक्षा भी हो जाता
है। मुख प्रक्षालन की विधि यह है की सर्वप्रथम हस्त प्राक्षालन कर लेना चाहिये तत्पश्चात् नुख प्राक्षालन में मुख
में जितना जल आसानी से अट (समा) सके या भरके, जल को हाथ में ले-ले करके आँखों को खोल-खोल
तेजी से एक-एक कुल्ला के अन्तर्गत पाँच-पाँच छींटा (छपका) मर –मर कार हाथों में
पुनः जल भर करके मुख प्रक्षालित किया जाय, तत्पश्चात् मुख मुख में भरे जल को कुल्ला
द्वारा बाहर कर दिया जाय ।इस प्रकार पाँच-पाँच छींटा मरते हुए एक-एक बार कुल्ला
करते हुए पाँच कुल्ला और अभ्यासानुसार बढ़ाया भी जा सकता है, करना चाहिये। ऐसा करने से मिजाज की चुस्ती, दिमाग की तरावट (आनन्द) एवं कार्यों की स्फूर्ति
के साथ ही आँख किम सफाई, जिससे दृष्टि-क्षमता का विकास के सठ ही सिर दर्द आदि की बीमारियों में
शीघ्रातिशीघ्र अचूक लाभ होता रहता है। ऐसी क्रिया से युक्त व्यक्ति को कितना लाभ
होता है या मिलता है। यह स्वतः ही करके अनुभूति की जा सकती है ।
हस्त प्रक्षालन:-
हाथ कार्यों को करके का प्रतीकात्मक अंग होता
है। क्योंकि किसी भी कार्य को करने में हाथों की आवश्यकता अधिकाधिक रूप में पड़ता
है। इसीलिये हाथों को हर समय ही तैयार रहना पड़ता है ।किसी भी कार्य को स्वच्छता
एवं शुद्धता के साथ करने हेतु आवश्यक होता
है कि स्वतः ही स्वच्छ रहे और स्वच्छता हेतु अत्यावश्यक है कि हस्त प्रक्षालन किया
जाय। किसी भी कार्य के पूर्व एवं पश्चात् हस्त प्रक्षालन अवश्य करना चाहिये। यही
स्वच्छता का प्रथम प्रतीक है ।
नव-ग्रह :-
हाथों के मध्य या हथेली में नव-ग्रह का स्थान
होता है, जो ग्रहों के नाम के साथ ही पर्वत शब्द से
युक्त होकर उच्चारित होता है । जैसे –शुक्र पर्वत ------अंगूठे के नीचे तथा अंगूठे
की कलाई के बीच का ऊँचा-स्थल; रामु-पर्वत ---अंगूठा तथा तर्जनी अंगुली के बीच मातृ रेखा से अंगूठे के
मूल तक का स्थान; बृहस्पति या गुरु-पर्वत
-------तर्जनी अंगुली के नीचे का स्थान; ज्ञान पर्वत -------मध्यमा अंगुली के नीचे का स्थान; रवि पर्वत ------अनामिका अंगुली के नीचे का
स्थान; बुद्ध पर्वत-----कानी अंगुली के नीचे का
स्थान; मंगल-पर्वत------भोग-रेखा और मातृ रेखा के
बीच बुद्ध पर्वत के नीचे का स्थान; चन्द्र-पर्वत-------मंगल-पर्वत और कलाई के बीच का स्थान और केतु
पर्वत----हथेली का मध्य वाला निचला भाग। इस प्रकार विचार करके देखा जाय की
हस्त-प्राक्षालन मात्र हाथ की सफाई ही नहीं है बल्कि नव-ग्रह का स्नान भी है।
कर्म-काण्ड में नव-ग्रह का अच्छा स्थान होता है ।सांसारिक कार्यों की सिद्धि में
नव-ग्रह पुजा करते भी देखा जाता है ।
लक्ष्मी-सरस्वती और ब्रह्म का सांकेतिक स्थान
भी हथेली में:-
सद्भावी बंधुओ! मंत्रवेत्ता कर्म-कंडी बंधुओ
के अनुसार हथेली के अग्र भाग में लक्ष्मी का स्थान है और मध्य सरस्वती का
वास-स्थान इसके साथ ही हथेली के मूल (कलाई के ऊपर) ब्रह्म का वास स्थान है । यही
कारण है कि प्रातःकाल शयन से जगते समय सर्व-प्रथम अपने दोनों हाथों को अपने मुख पर
फेर कर (मुख प्रक्षालन की तरह ही परन्तु खाली हाथ) दर्शन किया जाता है, जिसके साथ ही यह मंत्र भी उच्चारित किया जाता
है कि---
कराग्रे वसते लक्ष्मी,कर मध्ये च सरस्वती ।
कर
मूले ब्रह्मो स्थित: प्रभाते कर इति दर्शनम् ।।
इस प्रकार हस्त-प्रक्षालन में इन तीनों
प्रमुख देवी-लक्ष्मी तथा स्वर-विद्या की सरस्वती, जो बाद के स्वामी तथा लक्ष्मी और सरस्वती के
उत्पत्ति कर्ता एवं संचालक रूप स्वामी ब्रह्म का स्नान भी जिसमें सम्मिलित है। इन
समस्त बातों से अब अपने आप समझ लेना चाहिए कि हस्त प्रक्षालन की मर्यादा एवं
आवश्यकता कितनी है ।
पाद-प्रक्षालन :- शरीर से अन्तर्गत पाद (पैर) की मर्यादा भी
कम नहीं है। इसका एकमात्र कारण श्री विष्णु जी का निवास है। योगी-महात्मा के
अनुसार पैर ही श्री विष्णु जी का स्थान है। यही कारण है कि पाद (पैर) का तालू और
सिर के तालू का सीधी सम्बन्ध होता है। इतना ही नहीं, तलवे का सीधा प्रभाव आँखों पर भी पड़ता है। विशेष गौर करने की बात है कि आज गंगा की चाहे जितनी भी मर्यादा गायी जाय, उसके पीछे एक कारण है कि ब्रह्मा द्वारा
उपदेश (दीक्षा ) लेने के पश्चात् लिया गया श्री विष्णु जी का पाद-प्रक्षालन ही है। दूसरे तरफ भरत जी का चाहे जितनी ही महिमा गायी जाय, उसके पीछे भी उनकी, श्री रामचन्द्र जी के चरण-पादुका के प्रति
अगाध श्रद्धा-भक्ति एवं त्याग-समर्पण की ही बलिहारी है ।
अंततः बंधुओं को बतला दूँ कि धर्म के
अन्तर्गत चरण या पाद-प्राक्षालन की कितनी महिमा है, बस उतनी ही –जो जितना भी वर्णन करे सूर्य की
दीपक दिखाने है। अर्थात् धर्म के अन्तर्गत पाद प्रक्षालन का सर्वप्रथम, सर्वोत्तम भाव गाया, माना एवं व्यवहारिकता में लागू भी किया गया, और किया जा रहा है और किया जाएगा। इतना ही
नहीं परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष का पाद प्रक्षालन करने
वाला चरण रज युक्त जल ही चरणामृत है।
यथार्थ-बात :- सद्भावी भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! यह बात
अधिकतर लोगों को चोट पहुँचाये, यह तो स्वाभाविक ही है क्योंकि आज के घोर भ्रष्टाचार अन्तर्गत परमसत्य या
सार्वभौम सत्य वाली बातें, असत्य या मिथ्याभाषी एवं मिथ्याचारियों के लिए कितनी चोटिल (चोट लगाने
वाली) होगी। यह कहा ही नहीं जा सकता है क्योंकि बहुत दुष्टजन तो अपने जीव तक की
बाजी लगाकर अत्याचार एवं भ्रष्टाचार को कायम रखने हेतु टकराये और संघर्ष किए बिना
नहीं मानते, जबकि बार-बार उन्हे यह
आभास मिलता रहता है कि घुसा हुआ ‘अहं’ रूप शैतान समर्पित नहीं
होने देता है बल्कि उल्टी मति-गति कर-करा कर और अत्याचार एवं भ्रष्टाचार के तरफ
प्रवृत्ति तेज करते जाता है और तब तक तेज करता रहता है जब तक उसका नाश नहीं हो
जाता।
अन्तिम रूप में यथार्थ बात तो यह है कि
परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष के चरण-पादुका और चरणामृत की
मर्यादा है, सिर की नहीं। योगी-यति, सिद्ध ऋषि-महर्षि, ब्रह्मर्षि एवं आध्यात्मिक सन्त महात्माओं
के चरण की नहीं सिर की मर्यादा है। इसी का नाजायज लाभ कर्म-काण्डी पण्डित-जन एवं
गुरुजन लेने लगते हैं, ऐसा इन्हे नहीं होना
चाहिए। उदाहरणार्थ परमात्मा के अवतार रूप श्रीविष्णु जी से दीक्षा लेने के बाद
ब्रह्मा जो अपने सद्गुरु जी अपने सद्गुरु रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी श्रीविष्णुजी से
चरणामृत लिए, उसमें से कुछ पान किए
और कुछ अपने कमण्डल में रख लिए परन्तु भागीरथ जी के अधिक तपस्या से ब्रह्माजी
प्रसन्न हो गए और उस चरणामृत की मर्यादा की यथार्थता का
परिचय देते हुये कहा कि इसको कौन बरदास्त कर पायेगा या रोक पायेगा, एक शंकर जी हैं, जो बरदास्त या सहन
कर सकते हैं क्योंकि इस समय सबसे सिद्ध; महादेव या महेश कह-कह कर लोग उन्ही का उच्चारण करते हैं। उन्ही को
तैयार कराएं, तब भागीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी तैयार तो हो गए कि गंगा
का अवतरण हो, परन्तु परमात्मा के अवतार रूप श्रीविष्णु जी चरणामृत की मर्यादा को
समझते हुये अपने सिर पर उसे धारण कर जैसे कि गैर-उपदेशी लोग सद्गुरु के चरणामृत को
सिर पर ही रखते हैं। यथार्थतः तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष का चरण-पादुका एवं
चरणामृत की मर्यादा को ही ध्यान में बैठकर समाधि में तलाशते हैं, फिर भी नहीं जान
पाते हैं और कर्म-काण्डी अर्थात् कर्म प्रधान विद्वान, वैज्ञानिक जन
जड़-पदार्थों में मर्यादा के कारण की तलाश करते हैं, मनोवैज्ञानिक मन और मानसिकता में तलाश करते हैं, तांत्रिक जन तंत्र
में और मांत्रिक जन मंत्र में तलाश करते हैं। साथ ही साथ वैष्णव का चोला पहनने
वाले वेद, पुराण, गीता, रामायण आदि ग्रन्थों के पाठ एवं मूर्तियों में, इस्लाम वाले कुरान
पाठ और मस्जिद में तथा ईशामसीह वाले बाइबिल (धर्मशास्त्र) और ईशु-गिरिजाघर में तथा
सिक्ख बन्धु गुरुग्रन्थ साहब के पाठ गुरु-गुरुद्वारों में ही परमात्मा के अवतार को
मान-मान कर यथार्थता से दूर होते जाते हैं, जबकि उन्ही ग्रन्थों में यह स्पष्टतः उल्लिखित एवं घोषित है कि कोई
व्यक्ति ग्रन्थ-मूर्ति एवं मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर एवं गुरुद्वारा आदि में नहीं पा सकता है उसे किसी
जीता-जागता सत्पुरुषों में तलाश करना और मिलने पर पहचान करना चाहिए। जहाँ पर जीव, आत्मा तथा परमात्मा
या समस्त मैं-मैं, तू-तू का एकत्वबोध देखें।
धौती :- धौती का अर्थ धोने अथवा धुलने से होता है
। शारीरिक शुद्धिकरण में धौती अन्तः करण की शुद्धि एवं सफाई से होता है
। धौती-क्रिया के अन्तर्गत दन्त-धौती, वस्त्र धौती, वारि-धौती के साथ ही वायु-धौती भी आता है । शारीरिक शुद्धि हेतु जितनी
आवश्यकता बाह्य-शुद्धिकरण की है, उससे जरा (थोड़ा) सा भी कम आवश्यकता अन्तः शुद्धि की भी नहीं है, बल्कि उससे भी अधिक
आवश्यक एवं मर्यादित है । अब आइये बंधुओं अगली बात जानें ।
दन्त-धौती :- दन्त-धौती मुख
प्रक्षालन की ही एक अन्तः क्रिया है, जिस में मुख के अन्दर की सफाई,दांतों की सफाई आता है। दांतों का सीधा सम्बन्ध आँखो से होता है। यह
बात अब दन्त-चिकित्सकों द्वारा भी समर्थित हो चुका है। दांतों की सफाई दौंतून से
ही करनी चाहिए, ब्रश से नहीं,क्योंकि मोटी दातुन को जब दांतों से कूंचा जाता है, तब दांतों में
ज़ोर-पड़ता है, जिससे दांतों में मजबूती आती रहती है और एक तरह का दांतों से सम्बंधित
सभी नस-नाडियाँ बार बार के अभ्यास से मजबूत और कारगर होती जाती हैं परन्तु आज-कल
ब्रश की मर्यादा एवं प्रयोग इतना बढ़ गया है कि दातुन करने में लोगों की मर्यादा
में कमी आ जा रही है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए । यही शारीरिक आवश्यकता के प्रतिकूल
मान्यता है। यही कारण है कि दन्त-धौती से जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता है
और मनुष्य नाना तरह की बीमारियों का शिकार होता जा रहा है।यथार्थता तो इसमें है
कि---
मोटी दातुन जो करे,नित उठ हर्रे खाये।
वासी पानी जो पीये, ता घर बैद्य न जाय ।।
दन्त-धौती के अन्तर्गत नाड़ी-शुद्धि हेतु वर
आदि के नरम य मुलायम बरोहि (बबर) आदि के लम्बी से लम्बी दातून लेकर मुख के अन्दर
बार-बार अभ्यास आदि के द्वारा अन्दर ले जाया जाता है और नाड़ियों के साथ ही अंतड़िया
की सफाई भी किया जाता है परन्तु इस क्रिया में विशेष सावधानी की आवश्यकता पड़ती है
। इसलिए बिना समक्ष गुरु के यह के यह क्रिया नहीं करनी चाहिये, हालांकि यह क्रिया बहुत ही लाभदायक होती है
।सब कुछ के बावजूद मोटी दातुन विशेष गुणकारी है ।
वस्त्र धौती :- वस्त्र धौती का
अर्थ वस्त्र के सहारे और अंतड़ी की सफाई से है। वस्त्र धौती की क्रिया भी जटिल
क्रिया है जिसको सक्षम गुरु के बगैर नहीं करना चाहिए क्योंकि थोड़ी सी असावधानी से
अंतड़ी के बाहर आ जाने तक की हानि भी हो सकती है। इस क्रिया-पद्धति में होता क्या
है कि चार अंगुल चौड़ी और आहिस्ते आहिस्ते (धीरे-धीरे) अभ्यासनुसार बढ़ाते जया जाय
और यह बड़ना सोलह गज य पन्द्रह मीटर तक हो सकता है, लम्बी पट्टी जैसी मुलायम, हल्का और बिल्कुल ही
स्वच्छ कपड़ा लेकर हल्का गरम (सिर गरम) जल के साथ सर्व-प्रथम एक हाथ तत्पश्चात इसी
क्रम से अभ्यसानुसार सुविधाजनक रूप में कपड़े को निगला जाय । निगलने में यदि किसी
प्रकार की भी परेशानी हो, तो जबरदस्ती न किया जाय, बल्कि रूक कर जल का सहारा ले लिया जाय। इससे भी विशेष सावधानी वस्त्र
को बाहर करने में अपननि पड़ती है। वस्त्र को बाहर करते समय यदि कहीं फंस जाय तो
घबड़ाया न जाय, बल्कि रूक कर हल्के गरम जल को थोड़ा सा लेकर वस्त्र को मुलायम करने
हेतु वस्त्र के साथ निगला (पिया) जाय, पुनः आहिस्ता-आहिस्ता निकाला जाय। बहुत से साधक लोग लाल वस्त्र का
प्रयोग करते हैं, तो दूर से देखने वाले यह समझ बैठते हैं कि अमुक योगी-साधक-सिद्ध अपनी
अंतड़ी बाहर करके साफ करता है जबकि ऐसी बात नहीं हैं । एक बात बताऊँ वस्त्र जो चार
अंगुल चौड़ी पट्टी की शक्ल में उसे दोनों तरफ से एक-एक अंगुल मोड़ कर दो अंगुल चौड़ी
पट्टी की शक्ल में उसे दोनों तरफ से एक-एक अंगुल मोड़ कर दो अंगुल चौड़ी करके निगलना
चाहिए अन्यथा विशेष कठिनाई पर भी कठिनाई होने लगेगी । यह क्रिया अंतड़ी सफाई एवं
नाड़ियों की सफाई में विशेष लाभदायक या गुणकारी तो होता है परन्तु उतनी ही खतरनाक
भी होता है । यह क्रिया भी सक्षम गुरु के अनुपस्थिति में भूलकर भी नहीं करना करना
चाहिए। अब आइये इससे भी सुविधाजनक पद्धति को जाना, देखा एवं विचार करते हुए गुणकारी हो तो जीवन में
लागू करें ।
वारि-धौती :- वारि-धौती का अर्थ
जल द्वारा नाड़ियों और अंतड़ियों की सफाई करने की विधि से है । इसका दूसरा नाम गजकरणी
मुद्रा भी है। पित्त एवं कफ के सफाई की यह विशेष क्रिया है । इस क्रिया में विशेष
ख़तरा की गुंजाइश नहीं होती है हालांकि गुण में यह कम नहीं है। विशेष ख़तरा का भय न
रहने के बावजूद भी थोड़ी-बहुत सावधानी तो रखनी ही पड़ेगी, ताकि जल ऊपर
ब्रह्माण्ड में न चढ़ जाय,अन्यथा कहीं जल चढ़ गया, तो परेशानी आजीवन भी रह सकती है। इसलिए इससे भी असावधानी नहीं होनी
चाहिए। हमारे दृष्टि में नाड़ी तथा अंतड़ी की सफाई करने की यह सबसे सरल, सुविधाजनक एवं
गुणकारी क्रिया है ।
शौच-कुल्ला तथा दांतून के पश्चात् वारि-धौती-क्रिया को करनी चाहिए। वारि-धौती क्रिया में जितना जल पिया जा सके,उतना पी लिया जाता है,तत्पश्चात् जल को पेट में अलग-बगल उठाने पचकाने आदि के माध्यम से जल
को खूब (काफी) नचा दिया जाय तत्पश्चात् पेट को उल्टी गति में लाकर आहिस्ते कुल्ला
की तरह बाहर किया जाय। यदि सामान्य रूप में न हो सके, तब हाथ की तर्जनी या
मध्यमा या दोनों अगुंलियों से सुविधानुसार जिव्हा मूल पर पर उठे हुए घुंडी को
आहिस्ते से भीतर के तरफ हल्का-हल्का दबाया जाय तत्पश्चात हुलि की तरह आने वाले जल
को स्थिरता के साथ बाहर कर दिया जाय। इस प्रकार पेट के सम्पूर्ण जल को बाहर कर
दिया जाय । इसका लाभ तुरन्त मिलने लगेगा। पित्त की सफाई,सामान्य कफ खाँसी से
आराम, सिर दर्द आदि की समाप्ति आदि आदि कफ और पित्त से तो विशेष राहत मिलती
है । यह एक अतिगुणकारी क्रिया है, मगर घबड़ा कर न किया जाय। सर्वप्रथम किसी गुरु से सीखा जाय तब किया जाय
।
गोपालगंज जेल २/१२/१९८२
वायु-धौती :- भगवद् प्रेमी
सद्भावी बंधुओं ! वायु धौती से तात्पर्य वायु द्वारा नाड़ियों की सफाई से है। यह
क्रिया हानि-दोष रहित होती है, फिर भी सावधानी बर्तनी पड़ती है, तो आप कह सकते हैं कि हानि रहित है या दोष रहित है, फिर सावधानी क्यों ? तो बंधुओं सावधानी
तो हर बात में होनी या रहनी चाहिये। पानी पीना है, तो मुख के बजाय कण में पानी दल दिया जाय, तो प्यास तो नहीं ही
बुझेगी और नहीं तो परेशानी बढ़ जायेगी। इसलिये सावधानी तो बात-बात में रहनी चाहिये।
वायु-धौती में शौचादि अपने नित्य-क्रिया से निपटने के बाद
सुविधापूर्वक किसी आसन पर बैठकर सिर, गर्दन, सीना एवं कमर एक सीधी रेखा में करके श्वासोच्छवास द्वारा तेजी से
सर्वप्रथम अपने अन्दर के वायु को प्रस्वास या या उच्छवांस के द्वारा (रेचक द्वारा)
बाहर फेंका जाय और तब तक फेंकते रहा जाय, जब तक कि शरीर बिल्कुल ही वायु-शून्य महसूस होने लगे। तत्पश्चात् सुविधापूर्वक
स्वास बन्द रखा जाय, विशेष जबर्दस्ती न किया जाय, बर्दास्त के अनुसार ही रोका जाय, हालांकि अन्नानुसार समय बढ़ाते जाया जाय, परन्तु विशेष परेशानी से नहीं। तत्पश्चात् श्वास
को तेजी के साथ ही जितना लम्बा हो सके उतने लम्बा समय तक परन्तु तार न टूटे, तब तक श्वान्स लेता
रहा जाय, जब तक कि पूरी शरीर भर न जाय। यह क्रिया नित्य प्रातः चार से पाँच बजे
के बीच कम से कम आधी घण्टे भी नित्य प्रति किया जाय, तो नब्बे प्रतिशत शारीरिक गड़ बड़ी दूर हो जायेगी
और पंचांबे प्रतिशत शारीरिक गड़बड़ी या बीमारी तो होने ही नहीं पायेगी। बंधुओं के
समक्ष हमारा वायु-धौती का गुणगान इसके गुणों को बदनाम करना है क्योंकि यह इतना
अधिक गुणकारी है कि इसके सम्पूर्ण गुणों को गया ही नहीं जा सकता है। बंधुओं अब तक
रही नेति, धौती (शौच) की बात, अब देखा जाय तप आदि की बात कि ‘तप’ क्या है ?
तप :- ‘तप’ का अर्थ धर्म के क्षेत्र में कठिन श्रम या शरीर को धर्म हेतु ‘तपाना’ या कठिनाइयों को
झेलना या परेशानियों का सहन-करना अथवा परमात्मा या सत्य-धर्म-न्याय-नीति हेतु ही
शरीर को हर प्रकार से समर्पित करना है।
संसार का सम्पूर्ण कार्य-क्षेत्र दो भागों में बंटा है---उत्तमता में
पहला-धर्म-क्षेत्र और दूसरा-कर्म-क्षेत्र तथा अपने को उठाने के क्रम में पहला—कर्म-क्षेत्र
और दूसरा धर्म-क्षेत्र है। इस प्रकार धर्म-क्षेत्र का कर्म ही कर्म-क्षेत्र का
धर्म मान बैठा जाता है, परन्तु ऐसा मानना उचित या सही नहीं है, कोई ‘कर्म-मात्र’ ‘धर्म’ हो ही नहीं सकता। कर्म कुछ और है, तो धर्म कुछ और ही। कर्म का क्षेत्र कुछ और है, तो धर्म का कुछ और
ही। तप भी धर्म नहीं है, बल्कि धर्म के क्षेत्र में किया जाने वाला कर्म ही है। चूँकि ‘तप’ कर्म क्षेत्र से
ऊपर धर्म-क्षेत्र के अन्तर्गत का ‘कर्म’ है। इसलिये ‘तप’ की मर्यादा कर्म से बहुत ही मनी जाती है। परमात्मा या परमसत्य या
सत्य-धर्म को प्राप्त करने या उनके तक पहुँचने में ‘तप’ प्रथम सोपान या सीढी है। ठीक इसके उल्टा शरीर और सम्पत्ति अथवा
परिवार और संसार में फंसाने वाला ‘कर्म’ होता है। शरीर चाहे जितनी भी कष्ट या परेशानी से समाप्त ही हो जाय तो
क्या परन्तु परमात्मा या परम सत्य या सत्य-धर्म के लिए है, तो वह व्यक्ति शरीर
छोड़कर भी मर या समाप्त नहीं हो पता है, अपितु उसका जीवन या शरीर सफल हो जाता है और वह समाज में सदा-सर्वदा
के लिए इस प्रतिष्ठा के साथ कि अमुक व्यक्ति परमात्मा या परम सत्य-धर्म या
सत्य-धर्म-न्याय-नीति की स्थापना में अपनी शरीर को सदा-सदा एवं निर्भीक जीवन जीता
हुआ, अपनी निर्दोष शरीर को सत्य-धर्म की स्थापना में तपते और कष्टों के बीच
से गुजरते हुये लगा दिया। हदीश उर्फ हरीश मरा नहीं जीवन-लक्ष्य को प्रभु के आगे
लगाकर सफल किया। वर्तमान में सेवा और त्याग में प्रथम आया ।
गोपालगंज जेल ३/१२/१९८२ ई॰
‘तप’ शब्द अपने आप में एक आती जटिल शब्द है। यह कितने प्रकार का होता है ? यह तो कहा ही नहीं
जा सकता है क्योंकि परमात्मा या धर्म या परमकल्याण या मुक्ति या भक्ति के लिए किसी
भी प्रकार से शारीरिक कष्ठ झेलना ‘तप’ के अन्तर्गत ही आता है चाहे वह छोटा से छोटा कष्ट या परेशानी हो या
बड़ा से बड़ा; यहाँ तक कि परमात्मा या धर्म हेतु शरीर को सदा-सदा के लिए लगा देना, तो ‘तप’ या तपस्या का
अन्तिम रूप या गति ही है।
सन्तोष:-
सन्तोष का अर्थ ‘तुष्टि’से है अर्थात् अन्ततः इच्छा की तृप्ति और इच्छा की समाप्ति। कामनाओं
से मुक्त होना अथवा किसी भी व्यक्ति या वस्तु पर ममता और आसक्ति की अनुपस्थिति ही
सन्तोष का होना है। सन्तोष संसार की सर्वोत्तम उपलब्धि है। बहुत से अधम व्यक्ति, तो ऐसे होते हैं, जो परमात्मा या
भगवान् को भी पाकर सन्तुष्ट नहीं होते हैं। जबकि भगवान् सृष्टि की सर्वोच्च, श्रेष्ठतम और
सर्वोत्तम उपलब्धि है। जहाँ पर संतुष्टि पुष्टि के रूप में सदा-सर्वदा सेविका के
रूप में अदृश्य रूप में अनुगामिनी बनकर कायम रहती है। यही कारण है की परमात्मा या
भगवान् के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष अपने भक्तों और अनुयायियों को
बराबर कहते आये हैं कि परमात्मा का तत्त्वतः दरश-परश एवं पहचान कर लेने वाले आदमी
(तत्त्वज्ञानी ) को एक परमात्मा के प्यार, सेवा-भक्ति और आज्ञा पालन के सिवाय कुछ भी नहीं करना चाहिये और किसी
अन्य की छह या किसी अन्य की परवाह भी नहीं करना चाहिये। जो व्यक्ति पूर्ण संतुष्टि
या सन्तोष के साथ परमात्मा के इस विधान में रहता है, उसकी रक्षा-व्यवस्था सब स्वयं परमात्मा
करता-कराता है और जो व्यक्ति परमात्मा के अनन्य सेवा, भक्ति या आज्ञा पालन
से विरत होकर मनमाना कार्य करता हुआ असफलताओं में या कठिनाइयों या परेशानियों में
परमात्मा को ही लक्षित कर-कर के दोषी ठहराता रहता है, वह व्यक्ति सर्व
प्रथम तो परमात्मा को अपने अनुसार चलाना चाहता है, जो कि नहीं होना चाहिये क्योंकि परमात्मा किसी के
भी अनुसार नहीं चलता है, सबको परमात्मा के अनुसार ही चलता पड़ता है और पड़ेगा भी। परमात्मा स्वतः
यदि किसी को प्यार देने लगे या मानने-जानने लगे, तो इसका यह अर्थ भी नहीं मानना चाहिये कि
परमात्मा के विधान के ठीक उल्टी बात है। परमात्मा यदि किसी को मानना है, तो उसे (व्यक्ति)
चाहिये कि ऐसा कोई कार्य न करे, जो परमात्मा के आज्ञाओं, निर्देशनों या विधानों के प्रतिकूल हो क्योंकि परमात्मा अज्ञानियों कि
गलतियों को बर्दास्त करता है, ज्ञानियों के नहीं। क्योंकि ज्ञानियों के प्रत्येक कार्य में परमात्मा
का ही कार्य छिपा होता है। यही कारण है कि बिना परमात्मा के विशेष निर्देश के
ज्ञानियों को कोई विशेष कार्य नहीं करना चाहिये, सामान्य स्थिति में सत्य-धर्म-न्याय-नीति के
विरुद्ध किसी भी ज्ञानी को नहीं जाना चाहिये। ज्ञानियों का सबसे बड़ा धर्म-कर्म एक
मात्र परमात्मा तथा सत्य-धर्म-न्याय एवं नीति ही होना चाहिये। मात्र इसी मे
सन्तुष्ट रहना चाहिये। इसके अलावा अपनी कोई छह या कामना नहीं होना चाहिये ।
वास्तव में सन्तोष का अन्तिम सोपान या अन्तिम पहुँच परमात्मा या
भगवान्, खुदा, गॉड या सर्वशक्ति-सत्ता-सामर्थ्यवान् की प्राप्ति, पहचान और सदा-सर्वदा
के लिए मुसल्लम ईमान के साथ सेवा में सर्वतो-भाव से हाजिर (उपस्थिति) और स्वीकार्य
रहने मात्र में ही है। लोभी-लालची, कामी-व्यसनी, स्वार्थ, अहंकारी, कपटी-धूर्त, मैं-मैं, तू-तू कायम रखने वालों को सन्तोष नहीं मिल सकता है।सन्तोष कायम रखने
हेतु सर्वतोभावेन एकमात्र परमात्मा के निर्देशन में ही सत्य-धर्म-न्याय एवं नीति
हेतु अपना तन-मन-धन के साथ ही मैं-मैं, तू-तू के भाव को भी सदा-सर्वदा अद्वेत्तत्त्व बोध या एकत्त्वबोध रूप
देखते और यादरखते हुये एकमात्र तात्त्विक रूप वाले तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष
वाले परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमब्रह्म या
परमात्मा वाले, ‘मैं’ को ही यथार्थतः परमसत्य रूप तथा शेष समस्त मैं-मैं, तू-तू को उसी का
प्रतिबिम्बवत् देखते हुये समस्त जीव-जीवात्मा-आत्मा और परमात्मा का एकतत्व रूप
जानते-देखते एवं समझते हुये तत्त्व बोध ही संतोष का अन्तिम रूप है। यहाँ पर
पहुँचकर भी जिसे संतोष नहीं होता, वह स्वार्थी है, अहंकारी है, सांसारिक है, लोभी-कामी और शैतान का ही छोटा या बड़ा रूप है जो विनाश योग्य है।
यथार्थतः संतोष दो प्रकार का होता है—पहला संतोष करना और दूसरा संतोष होना। अब हम
लोग यहाँ इन्हे प्रथक-प्रथक देखेंगे।
संतोष करना :-
शरीर में जब तक हम-हमार और तू-तोहार कायम रहेगा, अपना प्रभाव कायम
रखते हुये शरीर को अपने वष में रखा रहेगा, तब तक संतोष होगा—यह कल्पना करना भी मूढ़ता ही है क्योंकि इस विधान
में (मैं-मेरा, तू-तेरा में) कमियाँ और नाना तरह की कठिनाईयाँ या परेशानियाँ आती ही
और जाती ही रहेंगी जो संतोष को भी ढिगाए और समाप्त किए बिना नहीं छोड़ती हैं। इसलिए
प्रत्येक व्यक्ति को ही सर्वप्रथम में-मैं, तू-तू की यथार्थतः जान-समझ लेना चाहिए। तत्पश्चात् यथार्थतः परमसत्य
के अनुसार ही अपनी शरीर को कर देनी चाहिए। ऐसा कर देने वाले को स्पष्टतः दिखलाई
देने लगता है कि जिसकी शरीर है उसी का संसार भी है। जिसके माध्यम से शरीर
क्रियाशील होती है, शरीर उसकी नहीं है बल्कि जो शरीर को पुष्टि-तुष्टि करता-देता है या
स्वांस-प्रस्वांस के लगाव से जो शरीर का संचालन करता-कराता है, शरीर उसी की है। इस
प्रकार हम-हमार को कायम रखने तक उनको संतोष करना पड़ता है और पड़ता रहेगा क्योंकि
हम-हमार तब तक पूर्ण नहीं हो सकता, जब तक कि अपने उत्पत्ति और विलय केंद्र को जान-पहचान कर उसी में अपने
हम-हमार को विलय नहीं कर देता। और जब तक पूर्ण की प्राप्ति और सर्वतोभावेन पूर्णतः
में ही मति-गति नहीं होगी, तब तक तो हर कमी और परेशानी में संतोष करना ही पड़ता है। संतोष करना
ही पड़ेगा। व्यक्ति और वस्तु परक दृष्टि संतोष का सबसे बड़ा शत्रु होता है। इसलिए
प्रत्येक व्यक्ति को किसी के भी शरीर और संपत्ति पर अपनी दृष्टि नहीं लगानी चाहिए।
हर कमी और परेशानी में अपनी एकमात्र सर्वोच्च और सर्वोत्तम् एवं सर्वमंगल कारक
परमप्रभु पर ही दृष्टि लगाए रखनी चाहिए। शरीर और संपत्ति की दृष्टि ही आवागमन कायम
रखता है। शारीरिक और सांपत्तिक तथा पारिवारिक और सांसारिक दृष्टि ही व्यक्तियों को
मिथ्याभासी, मिथ्याचारी, चोर, लुटेरा, डाकू, दुष्ट, राहजनी और आगजनी तथा अपहरण करता जैसे अत्याचारी एवं जुल्मी तो बनाती
ही है। कर्मचारियों, अधिकारियों, विधायकों। सांसदों और मन्त्रियों तक ली जाने वाली घूसखोरी जैसा
अपराध-उत्पादक-संरक्षक के रूप में जैसी-जैसी भ्रष्टता को स्थान मिल रहा है। इन
सबका एकमात्र कारण उपर्युक्त कथन की शारीरिक और सांपत्तिक तथा पारिवारिक और
सांसारिक दृष्टिकोण का होना ही तथा संतोष का खोना ही है। चारों युगों का वर्णन जो
आता है उसमें कलियुग तो सबसे कलंकित होता है परन्तु वर्तमान समय तो भ्रष्टता
के इतनी कगार पर पहुँच गया है कि चारों तरफ से कलियुग के स्थान पर भ्रष्ट युग
उच्चारित हो रहा है। थोड़ा सा विचार करने की बात कि परमतत्त्वम् वाली शरीर सदानन्द
तथा इसके अनुयायियों जो कि सत्य-धर्म-न्याय और नीति को सारे संसार में संस्थापित
और कायम रखने हेतु अपना सर्वस्व न्यौछावर करते हुये सकाल समाज को शान्ति और आनंदित
करने हेतु निष्काम भाव से लोक हितार्थ चलना ही है कि शरीरों को भी वर्तमान
मिथ्याभाषी, मिथ्याचारी, दुराचारी और भ्रष्टाचारी मात्र घुस नहीं पाने तथा इन सबों के अनुसार
दुराचार और भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं होना ही है कि सभी लोग बन्दी गृहों
(कारागारों) में नाना तरह के झूठे-मूठे आरोपों को लगाकर अपराधी मन और बनाकर बन्द
कर दिया गया ।उन लोगों को कौन समझावे कि परमात्मा तथा सत्य-धर्म-न्याय और नीति को
स्वीकार करना ही पड़ेगा। बन्दीगृहों में बन्द कर देने से परमात्मा का कार्य नहीं
बन्द होता है बल्कि उसमें और ही तेजी आती है। आज अत्याचारी और भ्रष्टाचारी ही
शासक-प्रशासक तथा अन्यायी ही न्यायकर्ता बनकर दोनों आपसी ताल-मेल से सन्तोष और
पारमार्थिक कल्याणकारी नीतियों के तरफ से दृष्टि मोड़कर, लूट-खसोट में लगे
हुये हैं। उसमें बाधा न हो इसलिए सदानन्द तथा सदानन्द के समस्त अनुयायी जिनसे गलती
या अपराध चाहने पर हो ही नहीं सकता क्योंकि ये सभी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा
के कर्मचारी हैं जिन्हे परिवारिकता एवं सांसारिकता की चाह और परवाह है ही नहीं। इससे तो ये लोग पूर्ण संतुष्ट हो चुके हैं। अब इन लोगो की मात्र इतनी ही चाह है
कि परमात्मा के निर्देशन और सेवा मेन कायम रहते हुए सत्य-धर्म-न्याय और नीति की
स्थापना हो जिससे सकल समाज शान्ति और आनंदमय रहते हुये मुक्ति और अमरता के बोध के
साथ जीवनयापन पूर्ण संतुष्टि के साथ जीवें और सत्पुरुष ही कर्मचारी और अधिकारी, विधायक और सांसद तथा मन्त्री और राजा होवें। जिससे कि किसी भी व्यक्ति को अशान्ति और कष्ट,कमी और परेशानी न रहे। तब यत्र-तत्र-सर्वत्र
ही सन्तोष की छत्रछाया दिखलायी देगी। अन्ततः बतला देना चाहता हूँ जब तक हम-हमार, तू-तोहार कायम है, तब तक तो सन्तोष करते हुए रहना ही पड़ेगा
क्योंकि सन्तोष के बगैर शान्ति और आनन्द की अनुभूति हो ही नहीं पाती।
गोपालगंज जेल ४/१२/१९८२ ई॰
सन्तोष होना
भगवद् प्रेमी सद्भावी बंधुओं ! जब हम अपने-अपने हम-हमार तू-तोहार को
यथार्थतः विद्या तत्त्वम् या तत्त्वज्ञान पद्धति द्वारा यथार्थतः जान-देख-समझ कर
कि यह समस्त मैं-मैं, तू-तू कहाँ से उत्पन्न होता है, कैसे शरीरों में प्रवेश करता है, अंततः कहाँ को चला जाता है आदि। अपने गंतव्य लक्ष्य को पाकर उनकी
यथार्थता का परीक्षण तत्त्वतः लेने के पश्चात् तुरन्त इस शरीर को इसके परमलक्ष्य रूप
संचालक के शरणागत करके पूर्णरूपेण या सर्वतोभावेन उसी के निर्देशन में कर देने पर, उसकी सारी इच्छा
मात्र अपने यथार्थ स्वामी रूप परमात्मा के प्या-सेवा-भक्ति में ही अपनी पूर्ण
संतुष्टि मिलती है और न भी पूर्ण संतुष्टि मिलती हो तो जिधर चाह जाती हो, उसे भी अपने असल
स्वामी रूप परमात्मा के प्रति समर्पित करते हुए, निस्सन्देह अपने अनन्य सेवा-भक्ति के रूप में
परमात्मा में ही संतुष्ट होना चाहिए। ऐसा होने पर उरी जिम्मेदारी उसी परमात्मा कि
हो जाती है।हालांकि परमात्मा किसी की जिम्मेदारी लेता नहीं है, फिर भी जो उसका
अनन्य भाव से हो जाता है, उसका सारा भार वहन करता है। यदि परमात्मा प्रयत्क्षतः न भी पूरा करता
हो, फिर भी परोक्ष रूप
में सारी पुष्टि-तुष्टि वही करता है। परन्तु यदि किसी सेवक को पूर्णतः
पुष्टि-तुष्टि न होती हो या पूर्ण रूपेण सन्तोष न मिलता हो, उस व्यक्ति को अपने
भीतर झांक कर देखना चाहिए। उसमें अवश्य कमी होगी। उसकी वृति किसी और शरीर और
सम्पत्ति या व्यक्ति और वस्तु में लगी होगी। तभी उसको परमात्मा के प्या-सेवा-भक्ति
एवं आज्ञा पालन में पूर्ण संतुष्टि नहीं मिलती होगी।अन्यथा यह प्रश्न ही नहीं
बनता कि हम-आप को परमात्मा मिले, हम-आप उसे यथार्थतः या तत्त्वतः जान –देख-पहचान कर उसके
प्यार-सेवा-भक्ति हेतु अनन्य भाव से उसके शरणागत हो जायें और पूर्णरूपेण
पुष्टि-तुष्टि या सन्तोष न हो ।
अंततः मैं बतला देना चाहता हूँ कि किसी भी व्यक्ति को जब तक वह सन्तोष
के अनुसार अपना जीवन नहीं ले चलेगा या अपने जीवन को सन्तोष प्रधान नहीं बनायेगा, तब तक शान्ति और
आनन्द अथवा मुक्ति और अमरता के बोध रूपी सच्चिदानन्द रूप परमानन्द रूप तत्त्वबोध
का परम आनन्द भी कभी भी नहीं समझ पाएगा। श्री रामचन्द्रजी ने भी अपने सेवकों को कहा था कि –
मोर दास कहाइ नर आशा । करहिं तो कहहु कहाँ विश्वासा ।।
अर्थात् मेरा दास (सेवक) होकर भी यदि कोई
किसी और व्यक्ति या वस्तु या शक्ति या किसी कि भी आशा करता हो, तो कहिये न कि उसका मेरे पर विश्वास ही कहाँ
है । इस प्रकार प्रत्येक को चाहिए कि किसी दूसरे व्यक्ति और वस्तु अथवा परिवार और
संसार पर स्वार्थपरक या अपना बनाने की दृष्टि से कदापि नहीं देखना चाहिये । यदि
देखना ही है, तो एक मात्र परम प्रभु
रूप यथार्थ स्वामी रूप परमात्मा के तरफ भी देखना चाहिये क्योंकि सबका सर्वश्रेष्ठ
एवं सर्वोत्तम स्वामी परमात्मा के तरफ,खुदा,गाँड या सर्वोच्च
शक्ति-सत्ता-सामर्थ्यवान् ही है ।परमसत्य,सच्चा न्यायप्रिय एवं सर्व कल्याण कारी भी
एकमात्र वही होता है। शेष कोई भी हो, उनके प्रतिनिधि ही हो सकते हैं।चाहे वह कोई देवी-देवता आदि क्यों न हो। अतः मानव को शान्ति और आनन्द प्रिय या मुक्ति और अमरता रूप बोधानन्द मय मुक्त
जीवन हेतु संतोष एक अनिवार्य विषय है।
‘’स्वार्थ संतोष को खाता है और परमार्थ संतोष
को खिलाता (जीवन देता) है।“
इस प्रकार संतोष को खाना हो, तो स्वार्थी बने परन्तु एक बात जन लेवें, कि स्वार्थी कभी भी शान्ति और आनन्द का भी
लाभ नहीं पा सकता है, चिदानन्द या आत्मानन्द
तथा सच्चिदानन्द या परमानन्द की कहाँ ? संतोष को कायम रखने हेतु परमार्थिक कार्य या जीवन जीना पड़ेगा और आजीवन
सत्य-धर्म-न्याय-नीति पर रहना पड़ेगा। संतोष व्यक्ति शान्ति और आनन्द क्या
चिदानन्द और सच्चिदानन्द को भी पाता है ।
स्वाध्याय :- ‘स्वाध्याय’ का तात्पर्य ‘स्व’ मात्र के अध्ययन (मनन-चिन्तन)से है। जहाँ तक
स्वाध्याय का सवाल है कि भौतिक-जानकारियों के समक्ष तो इसकी विशेष महत्ता है
परन्तु ‘आध्यात्मिक’ में कुछ और ‘तात्त्विकता’ में तो यह बिल्कुल ही समाप्त कर दिया जाता
है। यदि भौतिकता के अन्तर्गत रहने वाले व्यक्ति के समक्ष ‘स्वाध्याय’ कि बात चलायी जाय, तो एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता
है, क्योंकि विचारक एवं दार्शनिक भी इसी के
अन्तर्गत आते हैं। इन बंधुओं की की दृष्टि में ‘स्वाध्याय’ से ऊपर या श्रेष्ठ कोई विद्या या जानकारी या
कुछ है ही नहीं, जब कि यथार्थता यह है कि
स्वाध्याय ही यथार्थ जानकारी की पहली सीढ़ी या सोपान है क्योंकि स्वाध्याय से मात्र
वैचारिक जानकारी भर हासिल हो सकता है ‘आध्यात्मिक’ नहीं। ‘आध्यात्मिकता’ यथार्थ जानकारी की दूसरी सीढ़ी या सोपान है
जिसके अन्तर्गत जीव (स्व )और आत्मा (आत्म-ज्योति ) के मध्य की मात्र अनुभूति परक
जानकारी भर ही हो सकता है, ‘तात्त्विक’ नहीं। क्योंकि ‘तात्त्विकता’ यथार्थ जानकारी की तीसरी और अन्तिम सोपान है
जिसके अन्तर्गत संसार-शरीर-जीव-जीवात्मा-आत्मा तथा परमात्मा तक की समस्त
जानकारियाँ सैद्धांतिक, प्रयौगिक के साथ ही साथ व्यावहारिक भी होती है। स्वाध्याय शरीर और जीव
(स्व) के मध्य की वैचारिक जानकारी मात्र होता है। स्वाध्याय से हम-आप आत्मा या
ईश्वर या ब्रह्म या शक्ति की अनुभूति आदि भी नहीं कर-करा सकते हैं, परमतत्त्व (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या
परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा की जानकारी और दरश-परश तथा पहचान की तो बात
स्वाध्याय से स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती। सद्भावी बंधुओ! आइये अब यह
देखा जाय कि स्वाध्याय कैसे किया जाय।
स्वाध्याय-पद्धति :- स्वाध्याय के अन्तर्गत मनन-चिन्तन, निदिध्यासन आदि आता है। मनन-चिन्तन
निदिध्यासन आदि विचार कि ही एक प्रक्रिया है इसके अन्तर्गत विचारक बन्धुगण शान्त
एकांत स्थान में बैठकर अपने चित्त की वृत्तियों को विचार या चिन्तन के माध्यम से
बाह्य क्रिया-कलापों से खींच कर अन्तः करण में विचार-मन्थन किया करते हैं कि ‘हम’ क्या हैं? कहाँ से आये हैं? कैसे-कैसे आये हैं ? क्यों आये हैं ? क्या कर रहे हैं ? क्या करना चाहिये ? क्या हम यह शरीर हैं ? आदि आदि विषय-बातों को लेकर जो मनन-चिन्तन
किया जाता है, वही स्वाध्याय है। इसके
अन्तर्गत यह भी होता है कि-क्या ‘हम’ आँख हैं ? नहीं, क्योंकि बिना आँख वाले नेम भी ‘हम’ हैं।फिर ‘हम’ कौन हैं ? तो बहरे में भी ‘हम’ हैं । फिर ‘हम’ हाथ हैं ? तो बिना हाथ वाले में भी हम हैं। फिर ‘हम’ पैर हैं ? तो बिना पैर वाले में
भी ‘हम’ भी हैं । फिर क्या ‘हम’ शरीर हैं ? तो ‘हमारे’ निकल आने पर भी तो शरीर रहती है। तब आखिरकार
क्या ‘हम’ किसी के माई-बाप (माता-पिता), भाई-बहन, बेटा-बेटी
(पुत्र-पुत्री) या पति-पत्नी हैं, तो आखिरकार ये सब भी तो शरीर ही है, तब फिर ‘हम’ क्या है ? तो फिर क्या हम
स्वास-प्रस्वास है, तो विज्ञान की भाषा में
स्वास-आक्सीजन और प्रस्वास
कार्बन-डाई-आक्साइड है, और आक्सीजन तथा कार्बनडाई आक्साइडके रहने के
बावजूद भी शरीर मृतक बनी रहती है तो ‘हम’ आक्सीजन और
कार्बनडाईआक्साइड भी तो नहीं है। फिर तो प्रश्न का प्रश्न बना ही रह गया कि तब ‘हम’ मरते भी नहीं है, हम तो शरीर छोड़कर निकल कर कहीं चले जाते हैं। हालांकि स्पष्टतया यह भी
मालूम नहीं है कि ‘हम’ शरीर छोड़कर क्यों और कहाँ चले जाते हैं ? ऐसा लग रहा है कि ‘हम’ कोई ‘शक्ति’ है, क्योंकि हमारे रहने पर शरीर मानव है और हम
शरीर से निकल कर चले जाते हैं, तब यही शरीर मुर्दा कहलाने लगता है, इससे लग रहा है कि हम ही शक्ति हैं हम ही
ब्रह्म है—‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूँ’। यही स्वाध्याय पद्धति है और
स्वाध्याय-पद्धति की यही अन्तिम गति या उपलब्धि है। इसी अहंकारिक वृति में
स्वाध्यायी बराबर ही डूबे रहते हैं। सीधे ब्रह्मज्ञान की ही बात करेंगे, लेकिन करनी-भरनी शारीरिक और सांपत्तिक अथवा
पारिवारिक और सांसारिक रूप कामिनी और कांचन में इतना गुत्थे या चिपके रहते हैं की
जढ़ी ही हो जाते हैं। इनकी यथार्थता या असलियत का पता कब लगता है? जब किसी साधक सिद्ध योगी-यति, ऋषि-महर्षि तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं के
यहाँ पहुँचते हैं तो इनका सारा स्वाध्याय अध्यात्म में विलय करने या होने लगता है। तत्त्ववेत्ता से तो ये लोग थर-थर कांपते हैं, सामने ही नहीं होना चाहते हैं, यदि हो भी गये तो तुरन्त स्वीकार कर लेते
हैं।
ईश्वर-प्राणिधान:- ईश्वर-प्राणिधान से तात्पर्य ‘अपने’ को ईश्वर के भक्ति में लगाने’ से है। इसके अन्तर्गत ‘ईश्वरीय-धारणा’ करनी पड़ती है। यह स्वाध्याय से ऊपर (उत्तम
या श्रेष्ठ) विधान होता है क्योंकि स्वाध्याय एक अहंकारिक पद्धति या विधान होता है
जब कि ईश्वर-प्राणिधान ‘स्व’ को ‘ईश्वर’ के प्रति मिलाने तथा भक्ति करने-कराने का
विधान है। ईश्वर प्राणिधान के अन्तर्गत साधक व्यक्ति को अपने ‘स्व’ रूप ‘जीव’ को अन्य सांसारिक विधानों से खींचकर आत्मा
या ईश्वर में लगाना पड़ता है। बार-बार अपने चित्त को बाह्य वृतियों से समेट कर
ईश्वर-भक्ति के प्रति लगाना पड़ता है। इसीलिए इसे ईश्वर-प्राणिधान नाम से जाना जाता
है। चूँकि परमब्रह्म या गॉड या सर्वशक्ति सत्ता सामर्थ्यवान् परम सत्य रूप
परमप्रभु भू-मण्डल पर तो रहता नहीं है। यह तो सदा-सर्वदा अपने परम आकाश रूप परमधाम
या अमरलोक में निवास करता-रहता है, जो समय-समय पर अपने विशेष कार्यकर्ता रूप नारद, ब्रह्मा, पृथ्वी तथा शंकर जी के पुकार पर भू-मण्डल पर
अवतरित होकर अपने अपने लक्ष्य-सत्य-धर्म की स्थापना तथा दुष्टों का विनाश कर-कराकर
सत्पुरुषों का राज्य कायम कर चारों तरफ भू-मण्डल पर शान्ति और आनन्द तथा मुक्ति और
अमरता से युक्त मूलतः सत्पुरुषों का राज्य स्थापित कर, पुनः देवताओं के पुकार पर ही अपने परम आकाश
रूप परमधाम को वापस चले जाते हैं, जब कि ब्रह्म या ईश्वर या आत्मा या नूर या डिवायन लाइट या शक्ति या हंस तो
सदा-सर्वदा (मुक्ति तक) सर्वव्यापी एवं निराकार रूप दिव्य-ज्योति या आत्म-ज्योति
या ब्रह्म-ज्योति रूप में जड़-पदार्थों (शरीर और सम्पति) में ही गुप्त (छिपे) रूप
में कायम रहते हुये क्रियाशीलता तथा गतिशील रहता है। जो शरीरों में जीव-आत्मा
= जीवात्मा तथा वस्तुओं (पदार्थों) में शक्ति या विद्युत नाम से और आत्म-ज्योति तथा
ज्योति रूप में जाना, देखा तथा अनुभूति की
जाती या अनुभव किया जाता है। यहाँ पर ईश्वर-प्राणिधान को ही धारणा और ध्यान नहीं
मानना चाहिए। ईश्वर-प्रणिधान को ही धारणा और ध्यान नहीं मानना चाहिये। ईश्वर-प्राणिधान भी एक वैचारिक गति-विधि ही है, इसमें कोई साधना आदि नहीं होता बल्कि विचारों
से ही अपनी वृति को स्वाध्याय से भी आगे बढ़ कर ईश्वर के प्रति जोड़ने से होता है
अर्थात् स्वाध्याय रूपी अहंकारिक भावना से पृथक ईश्वर के प्रति समर्पण-भाव
तत्पश्चात् भक्ति-भाव में लगना ही ईश्वर-प्राणिधान है।
भगवद् प्रेमी सद्भावी बंधुओं ! अब तक हम
लोगों द्वारा यम और नियम को उनके अंगो-उपांगो सहित देखा-जाना रहा और अब योग के
अन्तर्गत तीसरा सोपान या अंग, जो ‘आसन’ नाम से जाना जाता है को जाना देखा जायेगा। आइये अब ‘आसन’ करें ।
“आसन”
आसन योग का तीसरा सोपान या तीसरा अंग है
जिसके द्वारा शरीर हष्ट-पुष्ट एवं नाडियाँ योग-साधना के योग्य बनती है। आसन
शारीरिक गठन मात्र के लिये ही नहीं, अपितु योग-साधना की एक अनिवार्य कड़ी है। साधक के लिये आसनों की यथार्थ
जानकारी तथा उसी के अनुसार अभ्यास करने से शरीर चुस्त और दुरुस्त तो होती ही रहती
है, अन्तःकरणमें तेजी भी बढ़ता है जिसके माध्यम से
सिद्धियाँ भी आकर सेविका का कार्य करती है, हालाँकि यथार्थ योगीया सिद्ध-साधक सिद्धियों
के चक्कर में न पड़कर सदा अपने लक्ष्य की ओर दृष्टि लगाये रखता हैपरन्तु सामान्य
साधक जन पथ-भ्रष्ट होकर चमत्कार के रूप में फंस-फंसाकर चमत्कार प्रदर्शन में लग जाते हैं जो योग सिद्धि को समाप्त करने
या होने के लिये पर्याप्त है। जहाँ तक योग-साधना का सवाल है आसन को अनिवार्यतः अंग
मानना ही पड़ेगा। आसन ही वह शारीरिक क्रिया है जो नस-नाड़ियोंको अपने मनमाना
गति-विधियों से नियंत्रित रखते हुये साधना हेतु उत्प्रेरित करता है।
आसन कितने प्रकार के हैं तो इसका सीधा
सामान्य उत्तर तो यही होगा कि जितनी योनियाँ है, उतने ही आसन हैं जैसे चौरासी लाख योनियाँ हैं
तो चौरासी लाख आसन भी है, अब मुख्य बात यह है कि कितने प्रकार के आसनों की योग-साधना में विशेष
आवश्यकता या विशेष उपयोगिता हैं, तो मात्र आसन की साधना में रत रैगने वाले चौरासी आसन का अभ्यास करते रहते
हैं, परन्तु राजयोग या मन्त्र-योग वाले मुख्यतः
चार आसनों की ही प्रमुखता देते हुये योग को स्वीकार करते हैं। इसका यह भी अर्थ
नहीं समझना चाहिये कि आसन के योग्य किसी की शरीर नहीं होगी ।तो चाहे वह व्यक्ति
जिस प्रकार का भी हो उसके सुविधानुसार आसन में व्यवस्था है नाजानकार लोग उसे योग
के अयोग्य करार देते हैं, जबकि योग-साधना प्रत्येक व्यक्ति हेतु अनिवार्य पहलू है ।
सद्भावी बंधुओं ! हम आप यहाँ पर कुछ ऐसे आसनों
को जनाने-जानने का प्रयत्न करेंगे, जो शारीरिक गठन और योग-साधना में विशेष उपयोगी हो। अंततः बतलाऊँ हर
व्यक्तियों को हर क्रिया-कलापों के विषय में ही कुछ ना कुछ जानकारी और अभ्यास
करते-कराते रहना चाहिये, जिससे कि मानवता की यथार्थ अनुभूति हो सके। परन्तु इस बात को सदा-सर्वदा
याद रखना चाहिये कि किसी भी परिस्थिति में परमात्मा तथा सत्य-धर्म-न्याय-नीति के
प्रतिकूल तो जाना ही नहीं चाहिये, जहाँ तक हो सके अनुकूल ही चलना चाहिये, परन्तु परमात्मा सृष्टि के किसी भी विधानों
से परे तथा ‘परम’ होता है, इसलिये परमात्मा तथा परमात्मा के अवतार वाली
अवतारी सत्पुरुष की शरीर पर सृष्टि के किसी सिद्धान्त को थोपते हुये उसमें बांधा
नहीं जा सकता है। अवतारी सत्पुरुष की सारी क्रियाएँ तथा उनके विशिष्ट सेवकों के
क्रिया-कलाप पर किसी को भी प्रतिकूल दृष्टि से देखना ही नहीं चाहिये। परमात्मा
योग-साधना या अध्यात्म का भी पिता होता है, इसलिये योग का विधान भी उस पर लागू नहीं होता।
सिद्धासन :- योग-सिद्धि अथवा साधना-सिद्धि हेतु यह आसन
सिद्धासन ही श्रेष्ठतम् तथा सर्वोत्तम आसन है ।सिद्धासन के अन्तर्गत बायाँ पैर की
एड़ी को गुदा-मूल तथा दायाँ पैर की एड़ी को लिंग-मूल के नीचे करके सीना-गर्दन और
ललाट एक सीध में करके सीधा बैठना होता है ।अभ्यास में सबसे सुगम या आसन तथा लाभ
में अच्छा गुणकारी सिद्धासन ही है ।तो उसे सर्वप्रथम आसनों का अभ्यास करना चाहिये
।आसनों को मात्र कसरत ही नहीं समझना चाहिये क्योंकि कसरत+दिव्यभाव =आसन होता है
।कोई पहलवान किसी भी आसन-प्राणायाम वाले योग-सिद्ध पुरुष के समक्ष किसी भी स्तर पर
ठीक (बराबरी) नहीं कर सकता है ।
स्वस्तिकासन:- स्वस्तिकासन से तात्पर्य ‘स्वस्तिक’ चिन्ह जैसे आसन से है सनातन धर्म के
अन्तर्गत कर्म-कांडी विधानोंमें स्वस्तिक चिह्न एक मर्यादित तथा मान्यता प्राप्त
धर्म-चिह्न के रूप में स्थान पाता है। सेठ-साहूकार इसको विशेष महत्व की दृष्टि से
देखते हैं तथा इसे शुभ-मंगलमय दृष्टि से देखते हैं। उसी स्वस्तिक चिह्न जैसे आकृति
होने के कारण इस आसन का नाम स्वस्तिकासन पड़ा। इसके अन्तर्गत बायाँ पैर को दायाँ
जंघा के नीचे दायाँ पैर को बायाँ जंघा पर रखकर सीना-गर्दन तथा ललाट एक सीध में
रखते हुये स्थिरता पूर्वक बैठना ही स्वस्तिकासन है।आसनों को कसरत-भाव से नहीं, अपितु दिव्य-भाव से करना चाहिये। किसी भी
आसन का अभ्यास करते हुये जबर्दस्ती नहीं करना चाहिये। अभ्यसानुसार समय बढ़ाना
चाहिये ।
पद्मासन:- पद्म जैसे आकार वाला होने के कारण इस आसन को
पद्मासन कहा जाता है। यह आसन गुण में तो किसी भी आसन से कम नहीं, अपितु अधिक ही होता है परन्तु इसके करने में
थोड़ी कठिनाई या परेशानी या कष्ट होता है, इसीलिये इसको सिद्धासन के बाद स्थान मिलता है। इसके साथ ही पद्म से
स्वस्तिक का भावनात्मक महत्त्व अधिक है इसीलिये स्वस्तिकासन भी इसके पहले ही अपना
स्थान ले लेता है क्योंकि योग-आसन, कसरत प्रधान नहीं अपितु भाव प्रधान होता है।पद्मासन में बायाँ पैर को
दायाँ जंघा पर तथा दायाँ पैर को बायाँ जंघा पर रखकर सीना-गर्दन तथा ललाट को एक सीध
में करके सीधा बैठना होता है। पद्मासन का अभ्यास प्रारम्भ करने में थोड़ी परेशानी
या कष्ट अवश्य होता है परन्तु धीरे-धीरे अपने अभ्यास को बढ़ाते जाय तो यह आसन बहुत
ही गुणकारी होता है।
वीरासन :- वीर पुरुषों जैसा उत्तान सीना अथवा उभरा हुआ
सीना जैसा आसन होने के कारण ही यह ‘वीरासन’ नाम से जाना और
कहा-सुना जाता है। वीरासन शेर जैसा बैठने वाला आसन होता है, इसके अन्तर्गत दोनों पैरों को दोनों जंघाओं
(अपने-अपने) के नीचे करके उभरा हुआ सीना तथा गर्दन और ललाट सीधा थोड़ा तना हुआ
बहादुर जैसा बैठने वाला विधान ही आता है। वीरासन यदि भोजन के पश्चात् किया जाय, तो पेट सम्बन्धी गड़बड़ी तो होता ही नहीं, यदि पहले से होगा भी तो दूर होते देर नहीं
लगेगा। इस देर से तात्पर्य घण्टा मिनट से नहीं, अपितु निकला हुआ पेट भी पचककर सीना उभरने
लगता है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को बहादुरी में परिवर्तित किये बिना नहीं छोड़ता। मर्दानगी वीरासन में ही झलकती है।
शवासन :- सब के समान ही उत्तान लेटकर किया जाने वाला
शवासन होता है। जहाँ तक पर-काया-प्रवेश तथा शरीर से बाहर निकाल कर कार्य करना या
विचरण करना अथवा देवलोकों का भ्रमण करके लौटना आदि-आदि समस्त गति-विधियों इसी
शवासन के माध्यम से ही होता है।इच्छानुसार शरीर से बाहर-विचरण करना तथा वापस आकार
शरीर में प्रवेश कर सामान्य मानव के बीच रहना इसी आसन की देन है। यह आसन अतिशीघ्र
ही अति-प्रभावकारी होता है। इसका प्रयोग सक्षम गुरु के अनुपस्थिति में कदापि नहीं
करना चाहिये। शरीर को छोड़ कर बाहर गया हुआ जीवात्मा पुनः वापस लौटेगा या नहीं इसकी
गारण्टी नहीं दी जा सकती है। यह कारण है कि जब आत्म-नियंत्रण की क्षमता आने के
पूर्व यह आसन वर्जित होता है। यह भी संभाव्यता रहती है कि निकला हुआ जीवात्मा कुछ
दिनों तक न लौट सके, तब तक इधर शरीर समाप्त
कर दी जाय। यह आसन बिल्कुल शव के समान ही लेटना है।
शीर्षासन :- शीर्षासन सिर के बल अर्थात् ऊपर पैर और नीचे
सिर करके सीधा खड़ा होने वाला आसन ही शीर्षासन होता है। शीर्षासन शारीरिक एवं रक्त
शुद्धि के लिये विशेष गुणकारी आसन है इस आसन से रक्त की गति उल्टी हो जाती है
जिससे रक्त सम्बन्धी काफी दोष दूर हो जाया करता है परन्तु इस आसन की मर्यादा
योग-साधना के अन्तर्गत विशेष तो नहीं है परन्तु शरीर शुद्धि हेतु रक्त-शुद्धि और
रक्त-शुद्धि हेतु यह आसन भावप्रधान न होकर कसरत प्रधान होता है। फिर भी शरीर हेतु
यह आसन अवश्य ही करने योग्य है। यह अनेक बीमारी की अचूक औषधि भी है।
सद्भावी बंधुओं !अब तक हम लोगों ने आसनों का
अध्ययन किया कराया। यहाँ पर यह नहीं समझना चाहिये की हम पढ़ लिये और आसनों को
जन-समझ लिये। यथार्थ बात तो यह है कि आसनों का अभ्यास किये बगैर इसके यथार्थता की
जानकारी हो ही नहीं सकती है तो फिर इसके महत्व को कैसे समझा जायेगा ? जिस प्रकार छप्पन व्यंजन (भोजन) को
पाक्-शास्त्र पढ़कर कोई कहे कि मैं छप्पनों व्यंजनों का स्वाद जन गया, ठीक वैसे ही आसनों को पढ़कर कहना है कि मैंने
आसनों के आनन्द की अनुभूति कर लिया है। लकीन बंधुओं ! कहने मात्र से न तो व्यंजनों
का स्वाद मिलेगा और न भूख मिटेगी, ठीक वैसे ही कहने मात्र से ही न तो आसनों के आनन्द की अनुभूति होगी और न
शान्ति और आनन्द की जिज्ञासा ही मिटेगी (समाप्त) होगी। व्यंजनों का यथार्थ स्वाद-
मनमाना पढ़कर बनाने लगिये और खाने लगिये, तब भी यथार्थतः नहीं मिल पायेगा,अच्छा अनुभवी भण्डारी जो भोजन करायेगा, तब यथार्थ स्वाद मिल पायेगा। ठीक उसी प्रकार
मनमाना पढ़कर योगासनों का आनन्द बिना समक्ष गुरु के अनुभूति नहीं हो सकती। सक्षम
गुरु ही योगासनों का आनंदानुभूति करा सकती है जो स्वयं नहीं जानता वह क्या जनायेगा।
गोपालगंज जेल ६/१२/९१८२ ई.
“प्राणायाम” :- प्राणायाम प्राणों का आयाम तथा उसकी जानकारी ही है। अर्थात् ‘यथार्थ’ जानकारी के साथ
प्राणों का आयाम ही प्राणायाम हैं। प्राणायाम मात्र शरीर का ही प्राण नहीं हैं अपितु योग-साधना का भी प्राण प्राणायाम ही
है। जहाँ तक हमारे समझ की बात है कि आठों अंग सहित योग-साधना में प्राणायाम और
ध्यान ठीक उसी प्रकार प्रयुक्त होता है जिस प्रकार संसार में व्यक्ति और वस्तुओं
का नाम और रूप। जैसे नाम और रूप से अलग व्यक्ति और वस्तु कुछ है ही नहीं, ठीक उसी प्रकार
प्राणायाम और ध्यान से रहित या पृथक योग-साधना हो ही नहीं सकता। यह बात मुमकिन या
सम्भव है कि मात्र ‘व्यक्ति और वस्तु’ ‘व्यक्ति और वस्तु या ‘नाम और रूप’, ‘नाम और रूप’ मात्र कहने से ही किसी व्यक्ति और वस्तु का परिचय नहीं हो सकता है और
जब परिचय नहीं होगा तो उसका लाभ और आनन्द भी नहीं मिल सकता। सारा संसार तो व्यक्ति
और वस्तु अथव नाम और रूप ही है परन्तु परिचय और अपनत्व का सम्बन्ध हुये बिना किस
कम का ? ठीक उसी प्रकार शक्ति और सामर्थ्य तो चारों तरफ है ही परन्तु ‘धारणा’ से युक्त प्राणायाम
और ध्यान के बगैर किस काम का ? संसार में सामान्य व्यक्ति और वस्तु जैसा ही योग-साधना में सामर्थ्य
और शक्ति हैं; संसार में नाम और रूप जैसा ही योग-साधना में प्राणायाम और ध्यान है; शारीरिक नाम तथा रूप
या वस्तु गत नाम तथ विशेष जैसे ही सामर्थ्य और शक्ति का नाम और विशेष ही धारणा है
तथा व्यक्ति और वस्तुओं से अपनत्व का सम्बन्ध जैसा हिओ धारणा से युक्त प्राणायाम
और ध्यान का अभ्यास है और व्यक्ति और वस्तुओं से अपनत्व से मिलने वाले रक्षा और
व्यवस्था,सेवा और सहयोग जैसे धारणा से युक्त प्राणायाम और ध्यान निरन्तर का
अभ्यास करने से उपलब्ध शक्ति और सामर्थ्य शान्ति और आनन्द है। सारे संसार से क्या
लाभ,जबकि उसमें अपना कुछ (व्यक्ति या वस्तु) हो ही नहीं, ठीक उसी प्रकार सारी
शक्ति और सामर्थ्य के होने या रहने से क्या लाभ, जबकि उसमें (धारणा से युक्त प्राणायाम और ध्यान
से) सम्बंधित ही नहीं हुये यानि धारणा से युक्त प्राणायाम और ध्यान किये ही नहीं। एक-आधदिन या एक-आध सप्ताह या एक-आध मास आदि किया हुआ प्राणायाम और ध्यान, चोरों और लुटेरों की
तरह मनमाना सम्पति चोरी और लूट के समान है तथा किसी सक्षम गुरु के शरण में रहकर निरन्तर
प्राणायाम और ध्यान की अनिवार्यता है। अंततः यह जानना अत्यावश्यक है कि शारीरिक और
पारिवारिक विकास के लिये जितनी आवश्यकता श्रम और सम्पत्ति की होती है, उससे रत्ती भर भी कम
आवश्यकता जीव के कल्याण तथा शान्ति और आनन्द हेतु प्राणायाम और ध्यान की ही नहीं
है। जिस प्रकार व्यक्ति और वस्तु तथा श्रम और संपत्ति से हीन मनुष्य या साधक
जीव-समुदाय (प्रेत और देव योनियों) में तथा वर्तमान में योग-साधना वाले महापुरुषों
के समाज में न तो महत्व और न आदर-सम्मान ही पाता है, वह महान दरिद्र के समान ही होता है। कोई
प्राणायाम और ध्यान से हीन व्यक्ति न तो कल्याण ही जन सकता है और न शान्ति और
आनन्द ही ।
यहाँ पर एक बात याद रखना अनिवार्य है, कभी भी नहीं भूलना चाहिये कि प्राणायाम और ध्यान
का भी कोई महत्व ‘तत्त्वज्ञान’ के सक्षम नहीं है क्योंकि योग-साधना रात्रि के अन्तर्गत प्राप्त कि
जाने वाली रोशनी या ज्योति है तो ‘तत्त्वज्ञान’ दिन में सूर्य की रोशनी या ज्योति है अर्थात् योग-साधना की मर्यादा
अज्ञान रूप अन्धकार से युक्त सांसारिक व्यक्ति के लिये है परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा से युक्त तत्त्वज्ञानी
के लिये नहीं। अतः प्राणायाम और ध्यान तो प्राणायाम और्व ध्यान ही है योग-साधना के
आठों अंगों का श्रेष्ठतम् सिद्ध भी सेवा-भक्ति में लगे हुये तुच्छ (सामान्य से भी
सामान्य) तत्त्वज्ञानी से निम्नया नीचे का ही होता है। यह प्रमाण है मात्र कथनी
नहीं। उदाहरणर्थ-हनुमान, अर्जुन, सेवरी-राधा गोपियों, जटायू, कुब्जा आदि को देखें की किस महात्मा, ऋषि- या तथा देवर्षि से कम हैं अर्थात् किसी से भी कम नहीं, जहाँ तक हो सकता है
अधिक ही है। इसीलिये समस्त अध्यात्मवेत्ताओं से सपष्टतः बतला देना चाहता हूँ कि
अध्यात्म के मिथ्याज्ञानाभिमान रूपी गुमान में न फूलें। आवें शान्ति और आनन्द के
साथ जानकारी, दर्शन एवं बात-चीत करते-कराते हुये पहचान के साथ तत्त्वज्ञान या
विद्यातत्त्वम् को जानने-समझने का प्रयत्न कर परीक्षण भी कर-करा कर एक साथ एकरूप
तथा एकाकार होकर सकल समाज को यथार्थतः ‘तत्त्वज्ञान’ या विद्यातत्त्व के माध्यम से परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप
शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या अल्लातsला या गॉड या परम
सत्य या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामर्थ्य से सम्बन्ध स्थापित करते-कराते हुये चारों
तरफ पूरे भू-मण्डल पर शान्ति और आनन्द तथा मुक्ति और अमरता से युक्त, पाप-मुक्त और
भव-मुक्त जीवन-व्यवहार रूप सत्य-धर्म को लागू कर या संस्थापित कर सत्पुरुषों बनाया
जाय। सत्य से सम्बंधित एवं सत्यमय मति-गति में कर-करा देना तथा बन-बना देना ही
सत्पुरुष बनाना होता है। कोई कुछ भी कहे या समझे परन्तु अंततः वर्तमान में ऐसा होना
ही पड़ेगा। महत्व इसमें है कि इसमें भाग लेकर कौन यशी तथा विरोध करके कौन-अपयशी बन
रहा है। अब यही देखना है तथा देखा भी जा रहा है।
समस्त अध्यात्मवेत्ता बंधुओं से सपष्टतः बतला दे रहा हूँ कि अध्यात्म
की यथार्थ जानकारी भी किसी भी और
अध्यात्मवेत्ता के पास वर्तमान में भू-मण्डल पर नहीं है। इसकी भी यथार्थ जानकारी
लोगों को हमारे पास से यानी यहाँ से ही लेनी या करनी पड़ेगी, वह दिन अब दूर नहीं है। हालाँकि यह बात
अहंकारियों को अहंकार जैसे ही दिखलायीदेगी, तो इसमें मेरा क्या दोष है ? यदि कोई अहंकार से रहित या पृथक् होकर इस सद्ग्रंथ
(यह ‘मत’ देखें) को देखें और गुनें तब विचार-मन्थन (गुनने) में आये हुये अपने
आंतरिक निर्णय को सत्यता के साथ समाज के समक्ष प्रस्तुत करके समाज से भी इसके
असलियत के प्रति विचार मांगे, तब इसकी यथार्थता समझ में आ जायेगी तथा इसके प्रस्तुतीकरण से उपलब्ध होने
वाला लाभ या उपलब्धि भी जानने, देखने और समझने में तथा अनुभूति और बोध भी हो जायेगा कि यथार्थतः सत्य-धर्म
कितना प्रभावकारी, गुणकारी, हितकारी तथा लाभकारी होता है। यथार्थता कथनी
और करनी दोनों की एकरूपता में होती है, मात्र कथनी में नहीं।अतः अध्यात्म मात्र जीव और आत्मा के मध्य की
अनुभूतिपरक जानकारी ही है इसके सिवाय कुछ भी नहीं। जब कि विद्या-तत्त्वम् या ‘तत्त्वज्ञान’ संसार-शरीर-जीव-जीवात्मा-आत्मा तथा
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा तक की
यथार्थतः समस्त जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान भी है।
तत्त्वज्ञान किसी का विरोधी नहीं अपितु सबका सहयोगी और पूरक
कर्म-कांडी, शास्त्री, पण्डित, विद्वान, मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, मांत्रिक तथा तांत्रिक के साथ ही समस्त योगी-यति, ऋषि- तथा अध्यात्मवेत्ता गण झूठ-मूठ में, व्यर्थ ही टकराते या
विरोध करते हुये, व्यर्थ में ही संघर्ष पर उतारू हो जाते हैं और हो रहे हैं। मैं किसी
का विरोध करने नहीं आया हूँ और न किसी के गरिमा को ही समाप्त करना चाहता हूँ। मैं
इस यथार्थता को किस प्रकार समझाऊँ कि प्रत्येक के सहयोगार्थ या सहायतार्थ तथा
प्रत्येक के गरिमा को दृढ़ एवं मजबूत करते हुये बढ़ाने के लिए आया हूँ, बशर्ते कि वह
परमात्मा तथा सत्य-धर्म-न्याय-नीति के अनुकूल हों, प्रतिकूल न हो और पूरे भू-मण्डल को यथार्थता के
साथ यह दिखला देने के लिए ही भू-मण्डल पर आया हूँ कि ऐ सद्भावी भगवद् प्रेमी
बंधुओं ! आप यह स्पष्टतः जान लेवें कि – किसी भी शर्त पर सत्य असत्य से कमजोर
नहीं,बल्कि मजबूत होता है;धर्म अधर्म से कमजोर नहीं,बल्कि मजबूत होता है; नीति-अनीति से कमजोर नहीं,बल्कि मजबूत होता है;सत्ता और शक्ति किसी भी स्तर के व्यक्ति और वस्तु से कमजोर नहीं,बल्कि सबसे मजबूत
होती है,यहाँ पर सत्ता से तात्पर्य सार्वभौमसत्ता रूप परमप्रभु परमात्मा या
परमसत्य से है और शक्ति से तात्पर्य परमात्मा के पत्नी या सेविका रूप आदि-शक्ति से
है और अंततः बतला दूँ कि संसार का कोई कारण सांसारिक के लिये है,योगी-यति,ऋषि-महर्षि तथा
आध्यात्मिक सन्त-महात्मा,आलिम-औलिया,पीर-पैगम्बर और ‘तात्त्विको’ के लिये नहीं ।जिस प्रकार सेना के लिये पृथक कानून है इसी प्रकार
वेद-पुराण,गीता,रामायण,बाइबिल,कुरान महात्माओं के लिये कानून की किताबें (सद्ग्रन्थ) हैं और यह
जना-बतला और दिखला देने आया हूँ कि कोई आध्यात्मिक साधक-सिद्ध सरकारी कर्मचारी तथ
अधिकारी से कम या कमजोर नहीं बल्कि अधिक और बलजोर या मजबूत होता है;कोई सन्त-महात्मा
किसी विद्वान,मनोवैज्ञानिक,मांत्रिकों और तांत्रिकों से नाजानकार और कमजोर नहीं बल्कि अधिक
जानकार और बलजोर या मजबूत होता है तथा कोई विधायक,सांसद तथा मंत्री और
मुख्यमंत्री आदि किसी भी यथार्थतः तत्त्वज्ञानी (सेवक) से उच्च और उत्तम नहीं,बल्कि निम्न और अधम
हैं और अंततः बतला दूँ कि तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष के सेवक के योग्य भी किसी
भी देश का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नहीं,सेवक के समकक्ष होने के लिये उन्हें भी सेवक ही
बनना पड़ेगा ।अन्य कोई पद संसार क्या सृष्टि में भी तुलनीय है ही नहीं। ये बातें
भले ही आप बन्धुगण कुछ भी समझे परन्तु बहुत जल्द ही वह समय आ रहा है वही परमसत्य
बन कर –सबके सिर पर नाचेगा। हमें तो देखना मात्र ही है और सब देख रहा हूँ,यह भी देख रहा हूँ
और वह भी देखूंगा,साथ ही यहीं चाह है कि आप पाठक बन्धु भी दृष्टा बन कर परमार्थ में
मेरे साथ सहयोग कर्ता या सहभागी बनें।
सद्भावी बंधुओं! यह प्राणायाम का प्रकरण चल रहा है जिसमें
तत्त्वज्ञानी का भी एक पैरा आ गया है क्योंकि जब सत्य को दबाया जाता है तब और
दुगनी-चौगुनी दबाव के साथ विस्फोट करते हुये उभर कर सामने आ जाता है तब सोचने की
बात है कि परम सत्य को दबाने या रोकने का क्या परिणाम होगा? ठीक यही बात यहाँ
कि भी है। प्राणायाम प्राणों का आयाम तथा उसकी जानकारी मात्र ही है जबकि
तत्त्वज्ञान या सत्य-ज्ञान जीव, आत्मा, परमात्मा का यथार्थ ज्ञान है।