‘मुक्ति –अमरता’ प्रदान करना एक मात्र अवतारी हेतु सुरक्षित

मुजफ्फरपुर जेल २/११/१९८२ ई॰
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! आप हम सभी को यह विशेष ध्यान देने की बात है कि मुक्ति और अमरता कितना गम्भीर विषय है कि इसे अवतारी के सिवाय और कोई प्रदान ही नहीं कर सकता है। यह सम्भव है कि कर्म करते हुये कोई ब्रह्मा के समान या खुद ब्रह्मा ही बन जाययोग साधना करते हुये शंकर के समान या खुद शंकर ही बन जायभक्ति करते हुये नारद के समान या खुद नारद ही बन जायसेवा करते हुये हनुमान के समान या खुद हनुमान ही बन जायअनुगामी और त्याग करते हुये लक्ष्मण के समान या खुद ही जटायु ही बन जाय; सहयोग करते हुये जटायु के समान या खुद ही जटायु ही बन जायशक्ति प्रदर्शन या संहार करते हुये दुर्गा के समान या खुद दुर्गा और कालिका ही बन जाय; प्रेम प्रदान करते हुये राधा के समान या खुद राधा ही बन जायदृढ़ता और विश्वसनीयता में ध्रुवप्रहलाद या मीरा के समान या खुद ध्रुवप्रहलाद या मीरा ही बन जायआदि आदि सब कुछ मुमकिन (सम्भव) हैपरन्तु परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् या शब्द ब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या खुदा या अल्लाहतआला या गॉड आदि नामों से उच्चारित होने वाली सर्व शक्ति-सत्ता सामर्थ्यवान् परमप्रभु का अपने परम आकाश रूप परमधाम या अमरलोक या सातवाँ आसमान से अवतरित होकर शरीर धारण करते हुये धर्म संस्थापनार्थ एवं दुष्ट-दलन तथा सज्जन-प्रतिष्ठा-प्रतिस्थापन हेतु भू-मण्डल पर गुप्त रूप से विचरण करते हुयेके सिवाय अन्य कोई भी इस मुक्ति और अमरता को प्रदान नहीं कर सकता है। जब करेगा तब ही एकमात्र अवतारी सत्पुरुष ही मुक्ति और अमरता को प्रदान कर सकता है क्योंकि यही एकमात्र कारण होता है जिसके लिये खासकर अवतार होता है।
 “परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् शब्दब्रह्म जब स्वयं ही अवतरित होकर शरीर धारण कर समाज-सुधार और समाजोद्धार हेतु अपने शरणागत श्रद्धालु एवं उत्कट जिज्ञासु भक्ति को तत्त्वज्ञान पद्धति से अपना यथार्थ तत्त्व का उपदेश कर्ता है अथवा ज्ञान देता है मात्र वही विद्यातत्त्वम् हैक्योंकि अथवा ज्ञान वही है,जो मुक्ति और अमरता का तुरन्त बोध करा देवे।
मुक्ति और अमरता यदि परमात्मा के अवतार रूप अवतारी हेतु सुरक्षित नहीं रहतातो विश्व –व्यवस्था ही छिन्न –भिन्न हो जाती । यही कारण है कि और तो और है ब्रह्मा और शंकर सहित आदि-शक्ति को भी यह अधिकार नहीं है कि मुक्ति और अमरता प्रदान कर देवें । मधु-कैटभ ने अपने पुजा-आराधना से आदि-शक्ति को प्रसन्न कर प्रकट करा लिया था आर वह (आशीर्वचन) में अमरता ही मांगा थापरन्तु आदि शक्ति ने स्पष्टतः उत्तर दिया था कि हम तेरे पुजा-आराधना से अति प्रसन्न हैंजो कुछ माँगना हो माँग लो-परन्तु अमरता हमारे वश की बात नहीं अर्थात् अमरता प्रदान करने को मेरा अधिकार नहीं हैहालाँकि इसके स्थान पर इच्छा –मृत्यु दिया था जिसके अहंकार में ब्रह्मा और खुद विष्णु को समाप्त करने तक पर भी तुल (तैयारहो) गया था। ठीक यही दशा हिरण्यकश्यप और रावण के साथ शंकर और ब्रह्मा के साथ भी हुआ था की हिरण्यकश्यप ने भी शंकर से अमरता ही माँगा था और रावण ने भी ब्रह्मा से अमरता ही माँगा थापरन्तु ये लोग स्पष्टतः इंकार कर गये की मेरे वश (अधिकार) में यह नहीं है। परन्तु जटायुबालिसेवरी आदि परमात्मा के अवतार रूप श्री रामचन्द्र जी महाराज से अमरता ही माँगे थे जिसे श्री रामचन्द्र जी महाराज ने सहर्ष प्रदान किया था। अहिल्या ने भी मुक्ति और अमरता ही मांगी थी और मिला भी था। केवट ने भी कहा था की हम आप लोगों को नदी से पार उतार दे रहे हैं और आप हमें भवसागर से पार उतार दीजियेगाजिसे श्री रामचन्द्र जी महाराज ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था । 

जीव और आत्मा अविनाशी होते हुये भी मुक्त और अमर नहीं
सद्भावी भगवद् प्रेमी पाठक बंधुओं जीव और आत्मा के अविनाशी होने की बात तो सत्य हैफिर भी आश्चर्यमय बात तो यह है की अविनाशी हो और मुक्त तथा अमर न होयह कैसे हो सकता है ?अब यही देखना है। जीव आत्मा का अंश और आत्मा परमात्मा का अंश होता है यह प्रतिपादन और मान्य सिद्धान्त है कि हर अंश अपने अंशी के अधीन में ही क्रियाशील रहता है अर्थात् प्रत्येक अंश अंशी द्वारा ही संचालित एवं नियंत्रित रहता है। किसी भी अंश का अपना कोई स्वतंत्र विधान नहीं होता है। यही कारण है कि अंश रूप जीव अंशी रूप आत्मा और अंश रूप आत्मा अंशी रूप परमात्मा द्वारा ही संचालित एवं नियंत्रित होता रहता है यही कारण है कि जीव और आत्मा मुक्त नहीं होते हैंइन्हें भी मुक्ति हेतु परमात्मा में अपने नाम-रूप को विलय करना ही पड़ता है ।    

चूँकि आत्म-ज्योति रूप आत्मा ,अहम् शब्द रूप जीव रूप में और जीव शरीरमय स्थिति में बराबर परिवर्तित होता रहता है जिससे मूलतः अपने यथार्थ परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम)शब्द रूप से पृथक एवं परिवर्तित होते हुये अज्ञान के कारण आत्माआत्मा से जीव;पुनः जीव से शरीरमय होते हुये सांसारिक बन जाता है जिससे इनकी अमरता रूप एकरूपता और स्थिरता ही समाप्त हो जाती हैजो परमात्मा रूप परमतत्त्वम (आत्मतत्त्वम्)में कभी नहीं होता है । परमात्मा ही एकमात्र अमर है और वही अमरता प्रदान भी कर सकता हैआत्मा आदि कोई भी अन्य नहीं ।
सद्भावी भगवद् प्रेमी पाठक बंधुओं ! विद्यातत्त्वम् के मूलभूत सिद्धान्त रूप कि –सा विदध्या या विमुक्तये अर्थात् विद्यातत्त्वम् वही हैजो मुक्ति देवे । तत्पश्चात् विद्या तत्त्व के तीन प्रधान लक्षण बताये गये हैंजो क्रमशः-असतो मा सद्गमय अर्थात् असत्य (की ओर) न (चलें)सत्य (की ओर)चलें । तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात् अन्धकार (की ओर) न (चलें) ज्योति (की ओर)चलेंअर्थात् अज्ञान रूप अन्धकार की ओर न चलेंज्ञान रूप ज्योति की ओर चलेंमृत्योर्मा अमृतमगमय अर्थात् मरने की ओर नहीं अमरता की ओर चलें हैं । अपने मूलभूत सिद्धान्त एवं लक्षणों से हीन कोई जानकारी यथार्थतः विद्या–तत्त्वम् या परम विद्या या तत्त्वज्ञान नहीं कहला सकेगाभले ही वह परा विद्या या विद्या या श्रेय विद्या कहला लेवें परन्तु विद्या –तत्त्व तो कदापि नहीं कहला सकेगा ।
शिक्षा को विद्यातत्त्वम् का पर्याय मानना ही मानव का अधः पतन है -----
वास्तव में विद्यातत्त्वम् को शरीर –तन्त्र और सृष्टि-तन्त्र की रचना या उत्पत्तिरक्षा –व्यवस्था एवं विलीनीकरण के आधार पर ही होना चाहिये । विद्यातत्त्वम् की सार्थकता इसी में निहित है की सर्वप्रथम परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्)शब्द रूप परमात्मा से लगायत आत्मा –शक्तिव्यक्ति-वस्तु एवं परिवार-संसार या सृष्टि की उत्पत्ति एवं रक्षा-व्यवस्था के साथ ही साथ विलिनीकरण के सिद्धान्तों को रहस्यों के साथ यथार्थतः जानने –देखने एवं पहचान करते हुये बोध –ज्ञान की यथार्थतः जानने –देखते एवं पहचान करते हुये बोध-ज्ञान की यथार्थतः जानकारी श्रेणी बद्धता एवं क्रम-बद्धता के रूप में करनी चाहिए। शिक्षा मात्र एक भौतिक जानकारी हैजो जड़ पदार्थों का अध्ययन मात्र ही हैजबकि विद्या–तत्त्वम् जड़-चेतन तो जड़ चेतन है,  जड़-चेतन के उत्पत्ति केन्द्र अथवा उद्गम स्रोत रूप परम तत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्)शब्द रूप परमात्मा तक की समस्त जानकारियों को रहस्यों के साथ ही प्रदान करने वाली पूरी जानकारी ही विद्यातत्त्वम् है। इस प्रकार मात्र जड़-पदार्थों की जानकारी को ही शिक्षा पर्याय रूप में विद्या को और विद्या के पर्याय रूप में शिक्षा मान लेना मानव जाति को जड़ –प्रधान बन जाना होता है और मानव जब जड़ प्रधान ही हो जायेगा तो उसकी माटी-गति भी जढ़ता की ओर हो जाती हैजिसका परिणाम ही चोरीलूटडकैतीघूसखोरीव्यभिचार एवं हत्या आदि भ्रष्टाचार की उत्पत्ति एवं विकास होने लगता है जिससे शान्ति और आनन्द का स्थान हा-हाकार एवं भ्रष्टाचार का विकास अन्तिम रूप लेता हैतब जड़ और चेतन –दोनों का उत्पत्ति कर्ता रूप परमात्मा का परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता हैतत्पश्चात परमात्मा के अवतार रूप अवतारी सत्ता द्वारा पुनः जड़ प्रधान –शिक्षा के स्थान पर जड़-चेतन की सम्पूर्ण जानकारियों के साथ ही साथ जड़- चेतन के उद्गम –स्रोत या उत्पत्ति केन्द्र रूप सर्व-शक्ति-सत्ता-सामर्थ्य रूप परमब्रह्मपरमेश्वर या परमात्मा की यथार्थ रूप तात्त्विक जानकारियों से युक्त विद्या-तत्त्व को प्रतिस्थापित  या प्रतिपादित एवं लागू किया जाता है तत्पश्चात अध्यात्म की सम्पूर्ण जानकारी कराने वाली परा-विद्या तथा कर्मों की सम्पूर्ण जानकारी कराने वाली अपरा –विद्या के रहस्यों को स्पष्ट करते हुये मानव समाज के बीच प्रस्तुत एवं प्रदान किया जाता है,जिससे मानव जड़ता से चेतनता की और बढ़ते हुये परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्म शब्द रूप परमात्मा तक को जन –देख एवं बात-चीत करते हुये पहचान कर तत्त्व –प्रधान रूप अपने मूल रूप में पहुँच जाता हैजिससे जड़ एवं चेतन के टकराव के प्रति घृणा एवं तुच्छता की दृष्टि उत्पन्न हो जाती है और वह ज्ञानी मानव समाज वस्तु,व्यक्ति एवं संसार की तरफ से अपनी माटी – गति मोड़ कर परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप परमात्मा में लगा देता है जिससे चोरीलूटडकैतीघूसखोरीव्यभिचार एवं भ्रष्टाचार तो समूल ही समाप्त हो जाता है परिणामतः चारो तरफ आनन्द और शान्ति की लहर गूँजने लगती है ।      
वर्तमान कालिक हा-हाकर एवं चोरीडकैतीलूटघूसखोरीव्यभिचारअत्याचार रूप भ्रष्टाचार का एक मात्र आधार विद्या का गलत एवं प्रतिकूल रूप शिक्षा का लागू होना है। अत्याचार एवं भ्रष्टाचार उन्मूलन की सबसे मजबूत प्रभावी एवं तुरन्त लाभ पद कोई उपाय हैतो वह है एकमात्र शिक्षा के स्थान पर विद्या-तत्त्वम्की यथार्थःप्रायोगिक एवं क्रियाशील अध्ययन पद्धति को लागू किया जाना। इसके अलावा दूसरा कोई ही नहीं है। क्योंकी जब तक मानव की मति-गति जड़ता से तात्त्विकता की ओर नहीं होगीजब तक किसी भी स्थिति में मानव सुधार एवं मानव-उद्धार का होना असम्भव के साथ ही साथ अकाल्पनिक भी है। आइये अब विद्या-तत्त्वम् के अध्ययन-पद्धति को जानादेखा एवं मानव समाज में तेजी से लागू किया जाय ।
मुजफ्फरपुर जेल १३/११/१९८२ ई॰
विद्यातत्त्वम्:- परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या परमहंस या परम सत्ता या परमशक्ति या परमभाव या परमअक्षर या परम’ की यथार्थतः तत्त्वज्ञान-पद्धति’ से जानकारीदर्शन एवं बातचीत कराते हुये स्पष्टतः पहचान करानाजिसके साथ ही साथ अद्वेत्तत्त्वबोध अथवा एकत्वबोध तथा भावमुक्त पापमुक्त और अमरता का बोध कराते हुये ब्रह्मपद एवं परमपद दिलाने वाली जानकारी या बोध ही विद्यातत्त्वम् या परमविद्या या यथार्थतः तत्त्वज्ञान-पद्धति हैजिसके अन्तर्गत विद्या या पराविद्या तथा अविद्या या अपरा विद्या सदा सर्वदा निहित रहती हैजो आवश्यकतानुसार समय-समय पर योगी-यतिऋषि-महर्षिआलिम-औलियापीर-पैगम्बर आदि काल से वर्तमान काल तक के समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्मा आदि द्वारा विद्या या पराविद्या को तथा विद्वानतांत्रिक –मांत्रिकमनोवैज्ञानिकवैज्ञानिकरामायाडी एवं समस्त शास्त्रीय महात्मा आदि द्वारा अविद्या या अपरा विद्या को समाज में उसी परमसत्ता की प्रेरणा से प्रस्तुत या प्रकट कराया जाता है या होता रहता है। अर्थातः विद्या या परा विद्या तथा अविद्या या अपरा विद्या विद्या –तत्त्वम् या परम विद्या या तत्त्वज्ञान का ही अंश मात्र है। विद्या-तत्त्वम् या परम विद्या या तत्त्वज्ञान-पद्धति एक मात्र परमात्मा के अवतार रूप अवतारी सत्पुरुष हेतु ही सुरक्षित रहता है।‘’ इसकी यथार्थतः जानकारी परमात्मा के सिवाय किसी भी अन्य कर्म-प्रधान या साधन-प्रधान मात्र शरीर से संसार तक की शास्त्र एवं मूर्ति एवं शिक्षा से मूर्त रूप पदार्थों-वस्तुओं तक तथा योग प्रधान या साधना-प्रधान मात्र जीव से आत्मा तक की योगाभ्यास या साधना के माध्यम से ही कर पाते हैं। इसके बाद तो कर्म-प्रधान या योग-प्रधान कोई महापुरुष भी कुछ भी नहीं जानता है। यहाँ तक कि परा विद्या वाले अपरा विद्या की यथार्थता को बिल्कुल ही नहीं जानते हैजिसका परिणाम यह होता है कि दोनों एक दूसरे की निंदाएक दूसरे के साथ घृणा का सा व्यवहार करते हुये एक –दूसरे पर हावी (प्रभावी)भी होना चाहते हैंजबकि विद्या-तत्त्वम् या परम-विद्या या तत्त्वज्ञान-पद्धति में इस प्रकार का किसी से भी सिद्धान्त्ततः किसी भी प्रकार का टकराव होता ही नहींक्योंकि विद्या-तत्त्वम् तो यथार्थतः स्पष्टतापूर्वक यह दिखला देता है कि परा-विद्या एवं अपरा विद्या दोनों ही हमारे हैंहमारे अन्तर्गत सदा-सर्वदा निहित रहते हैंहमारे ही प्रेरणा से उत्पन्न होते हैं और समय-समय पर संघर्ष एवं हा-हा कार के बेला  में अवतारी-सत्पुरुष द्वारा मुझ विद्या-तत्त्व के अन्तर्गत ही परा-विद्या एवं अपरा-विद्या दर्शा दिये जाते हैं। दूसरे शब्दों में विद्या –तत्त्व या परम विद्या या तत्त्वज्ञान-पद्धति के अन्तर्गत सम्पूर्ण अध्यात्म एवं सम्पूर्ण कर्मों की रहस्यात्मक जानकारियाँ तो रहती ही हैसाथ ही साथ परमतत्त्व (आत्मतत्त्वम्) शब्द-रूप शब्द ब्रह्म या परम ब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा तक की यथार्थतः जानकारी रहती है जो तत्त्वज्ञान-पद्धति द्वारा उत्कट जिज्ञासु एवं परम श्रद्धालु रूप में पूर्णतः समर्पण करने वाले को ही प्राप्त हो पाता हैशेष लोग ब्राहय व्यवहारों को ही जान-देख पाते हैं और भटक जाते हैंक्योंकि कर्म प्रधान वाले योग प्रधान एवं योग प्रधाम वाले कर्म प्रधान मानकर दोनों ही भ्रमित होकर भटक जाते हैंजब कि अवतारी दोनों  की यथार्थपूर्ण जानकारी समाज में प्रस्तुत या प्रकट करते हैं और स्पष्टतः दिखला देते हैं की अध्यात्मवेत्तायोग –साधनाभ्यास भी अध्यात्म या योग साधना के रहस्य को नहीं जानते एवं कर्म-वेत्ता भी कर्मों के रहस्यों को नहीं जानते हैंक्योंकि  अध्यात्म या योग साधना एक अत्यन्त गूढ़ विषय है तथा कर्मों की गति भी अति गहन है,जिसकी यथार्थ जानकारी तत्त्ववेत्ता रूप अवतारी को ही रहती हैक्योंकि सम्पूर्ण अध्यात्म एवं सम्पूर्ण कर्मों की  उत्पत्ति संचालन और नियमन या विलीनीकरण भी तत्त्ववेत्ता रूप अवतारी से ही होता हैअन्य किसी से नहीं।
अध्यात्मवेत्ताओं द्वारा भ्रामक उपदेश
सद्भावी भगवद् प्रेमी पाठक बंधुओं ! हम यहाँ पर आदि कालिक अध्यात्म या योग के प्रणेता सतयुगीन श्री शंकर जी से लगायत त्रेतायुगीन वशिष्ठ आदि के समकालिक अध्यात्मवेत्ताओं या योग-साधना के प्रक्रियात्मक उपदेशकों एवं द्वापरयुगीन व्यास आदि के समकालिक से लगायत वर्तमान कालिक समस्त अध्यात्मवेत्ताओं या योग-साधना के प्रक्रियात्मक उपदेशों एवं लिखित सद्ग्रंथों द्वारा भगवद् प्रेमी जिज्ञासु एवं श्रद्धालु भक्तों के बीच भ्रामक उपदेशों की यथार्थता को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा हैहो सकता है कि इष्ट-भक्ति के कारण अपने आध्यात्मिक गुरुओं के प्रति लगाव को देखते हुयेआप बंधुओं को कष्ट होवे, जो स्वाभाविक हैपरन्तु हम भी यहाँ सत्य कहने एवं लिखने हेतु मजबूर हैं। यह बात तो अवश्यम्भावी है कि अध्यात्मवेत्ताओं कि मर्यादा भंग होवेंपरन्तु उन बंधुओं की मात्र उतनी ही मर्यादा भंग होगीजितनी की परमात्मा या सत्य की मर्यादा वे लोग भंग किये हैंक्योंकि हम परमात्मा या सत्य की मर्यादा को संस्थापनार्थ ही धरती (भू-मण्डल) पर आये हैं जिसको पूरा करना मात्र ही हमारा एकमात्र लक्ष्य या उद्देश्य है। यदि परमात्मा या सत्य की मर्यादा को स्थापित करने में जिन अध्यात्मवेत्ताओं एवं कर्म-वेत्ताओं की मर्यादा के समक्ष किसी के भी मर्यादा का मेरी दृष्टि में उतना ही महत्व हैजितना परमात्मा एवं सत्य को है । इसलिये हम परमात्मा या सत्य के प्रति गलत फहमियों एवं मिथ्या या गलत अंश को समाप्त कर उसके स्थान पर परमात्मा या सत्य की यथार्थता एवं सत्यता को प्रतिस्थापित एवं प्रभावी तरीको से लागू करते हुये समाज सुधार एवं समाजोद्धार करना ही हमारा एक मात्र लक्ष्य है। अंततः एक बार फिर बता देना चाहता हूँ की मेरा लक्ष्य किसी भी अध्यात्मवेत्ता एवं कर्मवेत्ता तथा देवी-देवता एवं योगी-महात्मा आदि की निन्दा एवं मर्यादा भंग करना नहीं हैअपितु परमात्मा या सत्य की यथार्थ मर्यादा को स्थापित करना है ।यदि ऐसे परम पुनीत कार्य में किसी को कष्ट भी होता है,तो वह स्वयं यह सोचे की वह कौन और क्या है? की परमात्मा या सत्य की स्थापना या धर्म की स्थापना में सबको कष्ट हो रहा है,क्योंकि परमात्मा से युक्त सत्य ही धर्म है एवं सांसारिकता से युक्त सत्य,सत्कर्म एवं सद्व्यवहार है । अब हम लोग अध्यात्मवेत्ताओं के भ्रामक उपदेशों को देखेंगे । 
स्वाध्याय को ही अध्यात्म और अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान का चोला न पहनावें अन्यथा स्वाध्याय और स्वाध्याय दोनों ही पाखण्डी या आडम्बरी शब्दों से युक्त होकर अपमानित हो जायेगा । आत्मा को ही परमात्मा का या ब्रह्म को परम ब्रह्म का या ईश्वर को परमेश्वर का चोला न पहनावें क्योंकि इससे आत्मा कभी भी परमात्मा नहीं बन सकताईश्वर कभी भी परमेश्वर नहीं बन बन सकता;ब्रह्म कभी परमब्रह्म नहीं बन सकता । इसलिये परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रह्म का चोला आत्मा – ईश्वर या ब्रह्म को पहनाने से पर्दाफास होने पर आप महात्मन् महानुभावों को अपना मुख छिपाने हेतु जगह या स्थान भी नहीं मिलेगा ।
------------------परम पूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

अध्यात्मवेत्ताओं के शिक्षा और दीक्षा में महान अन्तर
आदि काल से लगायत वर्तमान काल तक के समस्त अध्यात्मवेत्ता महानुभाव हीयहाँ तक की शंकरब्रह्मावशिष्ठश्वेताश्वतरसप्तर्षिगणनवयोगेश्वरअंगीअंगीरसशौनकवेदव्यासशुकदेवअष्टावक्रगौतमबुद्धजैन महावीर, आद्शंकराचार्य,  ईशामसीह,  नानकदेव,  कबीरदास,  तुलसीदास,  रविदास, दरियासाहबराधास्वामीरामकृष्णपरमहंसस्वामी विवेकानन्द जीएवं वर्तमान कालिक सतपालआनन्दमूर्तिमहर्षि में हीप्रजापिता ब्रह्मकुमारीमहर्षि अरविंदयोगानन्द जीमुक्तानन्दअवधूतरामजय गुरुदेवश्री राम शर्माआनंदमयीरजनीश एवं समस्त आध्यात्मिक सन्त-महात्मागण तथा बनने वाले समस्त अवतारी एवं भगवानों (नकली)द्वारा ही शिक्षा-प्रवचन में तो भगवद् प्रेमी श्रद्धालु भक्तों के बीच आकर्षक एवं लच्छेदार प्रवचनों में गुण गाते हैं---परमात्मापरमेश्वर एवं परम ब्रह्म तथा परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) का और दीक्षा को गुप्त बताते हुयेजानकारी देते हैं---आत्माईश्वरब्रह्म एवं सोsहँहँसो का। पुनः योग साधना की क्रिया –प्रक्रियाओं को ही तत्त्वज्ञान घोषित कर –करवा देते हैं। इतना ही नहीं ये महानुभावभ्रम एवं मिथ्याज्ञानाभीमान के कारण ब्रह्म को ही परम ब्रह्मईश्वर को ही परमेश्वरआत्मा को ही परमात्माशक्ति को ही परम या आदि-शक्तिसोsहँस-हँसो तथा ज्योति को ही परमतत्त्वम (आत्मतत्त्वम)तथा योग-साधना की क्रिया-प्रक्रियाओं को ही तत्त्वज्ञान-पद्धति घोषित कर –करवा कर,ग्रंथों की रचना भी,इसी को आधार बनाकर कर करवा दिये और स्वयं गुरु के स्थान पर बनावटी सद्गुरु,सन्त-महात्मा के स्थान पर बनावटी अवतारी बन बैठे थे एवं बन बैठे हैं ।हम तो आज यही कहेंगे की ऐबनने वाले अवतारी एवं भगवानों !अब तक बने सो बने,अब से भी बनना छोड़ दें,इसलिये अब से भी चेत जाओ अन्यथा इसका परिणाम क्या होगा ?स्वयं सोच लेवें या पिछला इतिहास देख लेवें ।हमारी दृष्टि से तो वही होगा,जो असल के समक्ष नकल या पाखण्ड का होता है ।सतयुग में श्री विष्णु जी महाराज,त्रेतायुग में श्री रामचन्द्र जी महाराज एवं द्वापर युग में श्री क़ृष्ण चन्द्र जी महाराज के अतिरिक्त किसी को भी –परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या परमसत्ता या परम शक्ति या परमतत्त्वम् आत्मतत्त्वम् या परम अक्षर या परम भाव या परमपद या परम’—की जानकारी ही नहीं थी और वर्तमान में भी किसी भी आध्यात्मिक सन्त –महात्मा तथा बनावटी भगवानों तथा बनावटी अवतरियों में से किसी को भी जानकारी नहीं हैं ।जिन योग-साधना प्रक्रिया कोये लोग अपने अनुयायियों का प्रदान कर रहे हैंवह कदापि तत्त्वज्ञान नहीं है। अपने पीछे धन-जन का मोह एवं मान-प्रतिष्ठा रूपी अहंकार ही हैजो यथार्थतःपरमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम) शब्द रूप परमात्मा से अपने अनुयायियों को विमुख किये हुये हैं। यही कारण है कि (अध्यात्मवेत्ता)महानुभाव विद्या–तत्त्वम् की यथार्थता को नहीं जन पाते हैं। और परा विद्या को ही परा विद्या को ही विद्या –तत्त्वम् भी घोषित करउसी में डूबते –उतराते रहते हैंअपने सकल समाज को भी बिछुड़ा करसकाल समाज सहित पुनः सृष्टि –चक्र रूपी जनम-मरण के चक्कर में फँस-फँसा कर चक्कर काटते और कटवाते रहते हैं। ऐसे के लिये ही यह दोहा बना है कि----
झूठा गुरु अजगर भया,लख चौरासी जाय।
चेला सब चींटी भये,कि नोच-नोच के खाय॥  
यह उपरोक्त पंक्ति ऐसे बंधुओं पर ही सार्थक होती है । 

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