गोपालगंज जेल ९/१२/१९८२ ई॰
सद्भावी बंधुओ ! विषय और इन्द्रियों स्वतः ही दोषी नहीं, दोष तो हम आप जीवों
का है कि इन्द्रियों को मन के अधीन कर दिया जाता है जिससे इंद्रियाँ मनमाना
व्यवहार करने लगती है। जीव को चाहिए कि इन्द्रियों को मन के अधीन न करके स्वयं
अपने अधीन रखें; हालांकि यह भी सत्य है कि मन इतना चंचल होता है कि इसको बांधने या
मनमाना करने से रोकने के लिए बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि, योगी-यति आजीवन प्रयत्न करते रहते हैं, जिसमें शायद ही किसी
का मन अपने वश में करने हेतु ही इन्द्रियों को उनके विषयाभिमुखी वृति से ही रोककर
मन को अपने गति-विधियों से रोककर अजपा-जप रूप ब्रह्म-जाप रूप शब्द रूप खूंटा (कील) में जाप रूप रसरी में बांधकर अपने जीव
रूप अहं को आत्म-ज्योति रूपी सःसे योग-साधना के माध्यम से मिलाकर दरश-परश करते हैं
तथा अपने अनुयायियों को कराते भी हैं। यानी इनके द्वारा कि जाने वाली आजीवन साधना
का मुख्य ध्येय यही रहता है कि इंद्रियों को बार-बार अंतर्मुखी बनाने या करने का
अभ्यास करते हैं। ये लोग विषयों से इतना भयभीत रहते हैं कि जीवन को ही सामान्य गति-विधियों
से रोककर एक स्थान विशेष पर बैठकर इन्द्रियों को ही अपने वृतियों को रोककर
साधनाभ्यास में आजीवन लगे रहते हैं, फिर भी सामाजिक व्यवहार से भयभीत रहते हैं कि हम गिर न जायें या फँस न
जायें।यथार्थ बात तो यह है कि ये लोग वृतियों को दबाये रखते हैं जिससे विषयों के
सामने पड़ते ही उभर जाती है और ये उसे रोक नहीं पाते हैं जब कि ये लोग बजाय साधना
द्वारा वृतियों को पृथक्-पृथक् इंद्रियों और विषयों कि जानकारी करते हुये उसके
गुण-दोष क्या उसके प्रभाव को यथार्थतः समझ लें तो न ही विषय का भय ही होता है और न
ही इन्द्रियों पर रोक लगाने की आवश्यकता ही नहीं रहती। परन्तु यह जानकारी
तत्त्वज्ञानी सत्पुरुष से ही हो पति है जो समय-समय पर समाज-सुधार तथा समाज उद्धार
हेतु या युग परिवर्तन हेतु अवतरित होते हैं ।
कर्म-प्रधान, कर्म-कांडी बंधुगण इन्द्रियों की मजबूती हे मेरी आँखें हेतु रात-दिन परिश्रम
तथा नाना तरह के विटामिन्स से युक्त भोज्य पदार्थों का सेवन करते-कराते हैं इससे
भी सन्तोष नहीं हो पाता तो देवी-देवताओं से भी यही प्रार्थना करते हैं कि मेरी
आँखें सौ वर्षों तक देखें, मेरे कान सौ वर्षों तक सुने आदि यानी मेरी इंद्रियाँ सौ वर्षों तक
प्रभावी रहें। इतना ही नहीं ये सभी विषय आवश्यकतानुसार ही नहीं अपितु इच्छानुसार
उपलब्ध या प्राप्त हों आदि आदि,जब कि ठीक इसके विपरीत योगी जन पैर मोड़ लेते हैं कि आसान हैं। न रहेगा
पैर सीधा न विषयों के तरफ ले जायेगा। आँख न विषयों को दिखलायेगी, कान बन्दकर लेते
हैं कि अनहद-नाद है। न रहेगा सुनने लायक कान न विषयों को सुनायेगा। जीहवा को उलट
देते हैं कि खेंचरी-मुद्रा है। न रहेगी बोलने और स्वाद लेने लायक जीहवा, न विषयों की तरफ ले
जायेगी आदि आदि। अर्थात् एक ही विषय और इन्द्रियाँ कर्म-प्रधान कर्म-कांडियों
द्वारा वर में माँग की जाती है कि हमारा सहयोगी और अभीष्ट साधन है जबकि योग-साधना
वाले अध्यात्मवेत्तागण इसे शत्रु मानते हुये त्याग भाव के साथ दूर-से भी दूर
एकान्त स्थान पर रहते हैं ।