सद्भावी भगवद् प्रेमी पाठक बंधुओं ! आइये अब अहिंसा की यथार्थता को
देखा जाय कि आखिरकार अहिंसा क्या है ? जैसा कि पहले ही बतलाया जा चुका है कि किसी जीव को किसी भी प्रकार से
कष्ट का दिया जाना हिंसा एवं कष्ट का न दिया जाना अहिंसा है । यहाँ पर प्रश्न यह उठ
खड़ा होता है कि यदि कोई सत्य-न्याय एवं धर्म का विरोध करता है और विरोध करने तक तो
कोई बात नहीं, परन्तु वह विरोधी यदि किसी सत्य-न्याय एवं धर्म के पथिक-प्रचारक एवं
पोषक तथा धार्मिक,सत्यवादी एवं न्यायप्रिय व्यक्ति को कष्ट देते, तंग या परेशान करते, सताते हुये हिंसा
करना-करानाऔर हिंसा पर उतारू हो जाता है तो ऐसे अधार्मिक, मिथ्याभाषी एवं
मिथ्याचारी तथा अन्यायी हिंसक के साथ क्या बर्ताव किया जाय? क्या चुप-चाप देखते
रहा जाय या अपनी आँख-कान बन्द कर लिया जाय या फोड़-फाड़ लिया जाय या उस हिंसक
अत्याचारी की हिंसा करके सैकड़ों हजारों व्यक्तियों के साथ अहिंसा का उच्चतम
पढ़ा-पढ़ाया जाय ? अथवा अपने समझ मिथ्याभाषण एवं मिथ्याचार, अन्याय एवं हिंसा
रूपी अत्याचार एवं भ्रष्टाचार होता तो, वहाँ पर हमें क्या करना चाहिये?यह एक जटिल प्रश्न या समस्या सत्यवादी, न्यायी एवं धार्मिक के समक्ष बराबर ही आता रहता
है ।यहाँ पर तो हमें प्रमुखतया तीन बातें ही दिखलायी दे रही है कि- प्रथमतः-
सांसारिक व्यक्ति, सज्जन, शान्त एवं आनन्द वाले टकराकर
हार कर एवं एवं भयभीत होकर सरकारी कर्मचारीयों एवं अधिकारियों का शरण-ग्रहण करते
हैं परन्तु देखते हैं कि सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारीगण तो उससे भी अधिक
मिथ्याभासी, मिथ्याचारी, घूसखोरी आदि में लिप्त है तथा जिससे सुरक्षा-व्यवस्था की मांग करता है, उससे तो वह पहले से
ही सम्बंधित या मेल-, मिलाप कर चुका है, तब पुनः सज्जन एवं शान्ति प्रिय रहने की जिज्ञासा लिये व्यक्ति समाज
में त्रसित एवं परेशान होकर शान्ति और आनन्द की तलाश हेतु महात्माओं के यहाँ पहुँचते
है लेकिन महात्माजन बेचारा क्या करे, चोर, डाकू, लुटेरा, बदमाश आदि के साथ ही साथ सरकारी कर्मचारी, अधिकारी, विधायक, सांसद एवं मंत्री तक
भी रक्षक के स्थान पर उनसे भी बड़ा भक्षक बनकर, उन्हीं के सहारे स्वयं बड़ा बनते हुये उन्हीं का संरक्षक एवं
सुविधानुसार रक्षा-व्यवस्था तक करते हैं अर्थात् सकल समाज ही अत्याचारी एवं जुल्मी, बनकर भ्रष्टाचार को
बढ़ाकर अपना गौरव कायम करते हुये शासन-प्रशासन भी अपनी प्रजा में फूट एवं लूट तथा
अनुशासन की नीति अपना कर तंग कर रहे हैं, तब हम (सन्त-महात्मा जन ) क्या कर सकते हैं, तब उन भक्त एवं सज्जन
तथा शान्तिप्रिय लोगों को भगवान भरोसे रहने तथा ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का पाठ या उपदेश भयवश देने लगते हैं तथा
योग-साधना या अध्यात्म की क्रिया-प्रक्रिया से सम्बंधित कर कराकर कुछ शान्ति और
आनन्द की अनुभूति करते-कराते हुये अन्दर ही अन्दर अन्तिम भाव से प्रभु के अवतार
हेतु करुण पुकार करने-कराने लगते हैं जिससे अपने प्रभाव को घटते एवं
सन्त-महात्माओं के प्रभाव को बढ़ते हुये मिथ्याभाषी संयुक्त साँठ-गाँठ से
सन्त-महात्माओं को भी कष्ट देने, परेशान करने, तंग करने लगते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि समाज में हा-हा कार एवं
त्राहिमम्-त्राहिमाम्-त्राहिमाम् की आवाज सारे संसार से ही उठने तथा आकाश को
विदीर्ण करती या चीरती हुई परम आकाश रूपी परमधाम में सदा-सर्वदा निवास करने वाले
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमात्मा, खुदा, गॉड के यहाँ
बारम्बार पहुँचने लगती है । तब वह परम प्रभु परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरित होकर
संसार के मध्य से ही एक किसी शरीर को धारण
(ग्रहण) कार उसी के रूप में गुप्त रूप में सर्वप्रथम सामान्य व्यक्तियों के
समान ही विचरण करता हुआ प्रत्येक अत्याचार एवं भ्रष्टाचार केन्द्र तथा
मिथ्याभाषियों, मिथ्याचारियों, अन्यायियों, अधार्मिकों अत्याचारियों एवं भ्रष्टाचारियों के स्थानों पर पहुँच-पहुँच
कर स्वतः ही निरीक्षण, सर्वेक्षण एवं परीक्षण करता हुआ विचरण करने लगता है तत्पश्चात् अपने
परिचय रूप तत्त्वज्ञान-पद्दती की घोषणा शान्ति एवं समझौता से प्रदान करते हुये
यथार्थता की जानकारी देते हुये, अपने प्रिय भक्तों जिज्ञासुओं, श्रद्धालुओं को इकट्ठा कार-करा कर सकल (समस्त संसार)समाज को शान्ति और
आनन्द तथा मुक्ति और अमरता प्रदान करते हुये सत्पुरुषों का राज्य कायम कर-करवा
देते हैं ।
मुजफ्फरपुर जेल २३/११/१९८२ ई॰
शब्दब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा के पूर्णावतार वाली शरीर श्री
विष्णु जी महाराज, श्री राम चन्द्र जी महाराज एवं श्री कृष्ण जी महाराज ने जैसा कि
अभी-अभी पहले वाले पैरा में जिस प्रकार से भी अवतार का वर्णन किया है, ठीक उसी परिस्थिति
में, उसी क्रिया-प्रक्रिया से ही अनेकानेक पूर्व घोषणाओं एवं भविष्यवाणियों, अभिशापों एवं
आशीर्वादों को पूरा करते हुये अवतरित हुये थे, फिर भी न तो ऋषि-ने, योगी-यतियों ने, न आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं आदि ने, न विद्वान-पण्डितों आदि ने तथा राजा-महाराजाओं
आदि में से किसी ने भी तत्कालीन वर्तमान कालिक किसी ने भी जबकि उन्हीं लोगों के
पुकार पर, तपस्या पर,नाना प्रकार की आहों पर तो अवतारी सत्पुरुष आये थे, फिर भी किसी ने भी
साथ नहीं दिया। यहाँ तक की देवी देवताओं में भी कोई प्रत्यक्षतः साथ नहीं दिया।
इतना ही नहीं कोई अयोध्यावासी भी साथ नहीं दिये। आश्चर्यमय बात तो यह है कि वशिष्ठ
जैसा अपने समय के लब्ध प्रतिष्ठित ब्रह्मर्षि तक भी सब कुछ का जिसे आभास भी हो रहा
था, फिर भी अपने
मिथ्याज्ञानाभिमान के कारण, अपने ब्रह्मर्षि होने के गुमान में फूले होने के कारण, श्रीरामचन्द्र जी
को उपदेश दिये थे, तो उपदेशों में बार बार अज्ञानी, अविचारी, अनभ्यासासी आदि दृष्टियों से देखा था, जो बाद में परिवर्तित हो गयी और भगवान कहकर
वन्दना करने लगे।