मुजफ्फरपुर जेल १६/११/१९८२ ई॰
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) शब्द रूप शब्द ब्रह्म या परमब्रह्म या
परमेश्वर या परमात्मा या खुदा या अल्लातsला को जब अपने परम आकाश रूम परम धाम या सातवां आसमान से भू मण्डल पर
आना होता है, तब आने के पहले अपने से ही उत्पन्न आत्म ज्योति रूप आत्मा को प्रेषित
कर दिया जाता है। ताकि संसार में छाये हुये घोर अज्ञान रूप जड़ता-मूलक घोर अन्धकार
के बीच चेतनता रूपी दिव्य-ज्योति या प्रकाश को फैलाकर समाज को नास्तिकता से
आस्तिकता की और मोड़े। आत्म-ज्योति ब्रह्म-ज्योति रूप आत्मा, परमतत्त्वम्
(आत्मतत्त्वम्) शब्द रूप शब्द ब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा से ही
उत्पन्न होकर, उसी के निर्देशन में उसी (परमात्मा) के प्रतिनिधि के रूप में समाज
सुधार हेतु प्रेषित किया जाता है अथवा प्रेषित होता है। इसी आत्म ज्योति रूप आत्मा
से युक्त शरीर ही योग या अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मा है। आत्म ज्योति रूप आत्मा
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) शब्द रूप परमात्मा से ही उत्पन्न,परमात्मा द्वारा ही
संचालित एवं सामान्य प्रक्रिया में सृष्टि के अन्त में एवं बीच-बीच में अवतार के
समय में अवतार द्वारा तत्त्वज्ञान-पद्धति से परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) शब्द रूप
शब्द ब्रह्म या परमात्मा में ही ‘अद्वैत्तत्त्व बोध’ या 'एकत्व बोध' रूप में परमात्मा के अवतार रूप अवतारी द्वारा सबके ‘मैं – मैं, तू-तू’ रूप जीव-आत्मा को
विलय भी कर-करा कर नियंत्रित किया जाता है अथवा होता रहता है। यही कारण है कि
आत्मा वाले समस्त आत्म-ज्योति के प्रचार करने वाले समस्त अध्यात्मवेत्ता या
प्रकाश-प्रचारक रूप प्रकाश दूत ही परमात्मा वाले या परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्)
शब्द रूप शब्द ब्रह्म या परमात्मा के अवतार रूप अवतारी के आध्यात्मिक अग्रदूत एवं
प्रकाश-दूत मात्र ही होते है।मैं अध्यात्म वेत्ता या प्रकाश-दूत आत्म-ज्योति रूप
ब्रह्म-ज्योति या दिव्य ज्योति या नूरे इलाही का घोर अज्ञान रूप जढ़ता रूप गोर
अन्धकार से आच्छादित, इस असार संसार में
प्रचार-प्रसार करते हुये समाज को जढ़ता के बीच चेतनता को भी सोचने विचारने को मजबूर
कर देते हैं, जिससे समाज जो जड़ प्रधान होकर परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा को तो
भूल गया है, चेतना रूप आत्मा को भी भूलकर जड़-संसार में शरीर एवं सम्पति रूप
कामिनी-कांचन में फंस गये होते हैं, उन्हे जड़-मूलक से चेतनता के तरफ मोड़कर चेतना-प्रधान बनाते हैं और तेजी
से सामान्य श्रधालु जिज्ञासु बन्धु जढ़ता रूप शरीर (परिवार) एवं वस्तु (संसार) का
त्याग कर आत्म-ज्योति रूप चेतन आत्मा से युक्त होने लगते हैं, उसी के बीच
परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) शब्द रूप शब्द ब्रह्म
परमात्मा का भू-मण्डल पर अवतरण होता है ।
चूँकि आदिकाल से वर्तमान काल तक के लगभग समस्त अध्यात्मवेत्ता या
प्रकाश-दूत रूप दिव्य-ज्योति के प्रचारक गण ही खुला प्रचार-प्रसार तो परमब्रह्म या
परमेश्वर या परमात्मा का करते हैं परन्तु ‘गुप्त-दान’ रूप ‘दीक्षा’ में आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति रूप आत्मा या
ब्रह्म या अपने को, सोsहँ-हँसो एवं आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति को ही
जनाते और दर्शाते हैं। यहाँ तक तो इन महानुभावों के क्रिया-कलाप तो ठीक रहता है की
आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति ही आत्मा या ईश्वर या ब्रह्म या नूर
है परन्तु इन बंधुओं की यह बात या घोषणा कि यही आत्मा ही परमात्मा है, यही ईश्वर ही
परमेश्वर है, यही ब्रह्म ही परम ब्रह्म है,यही नूर ही अल्लातsला है, यही डिवाइन लाइट रूप सोल (soul) ही गाँड है, यही हँसो-सोsहँ परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् है, यही योग-साधना रूप अध्यात्म ही
तत्त्वज्ञान-पद्धति रूप विद्यातत्त्वम् है, आदि-आदि कथन ही, इन बंधुओं का अभिमान है या अहंकार या भ्रम एवं मिथ्याज्ञानाभिमान को
प्रदर्शित करता है ‘कथनी और करनी’ दोनों एक ही होनी चाहिये, क्यों कि कथनी और करनी का ‘एक’ होना ही ‘सत्य’ एवं कथनी से पृथक करनी ही असत्य या मिथ्या है।कथनी परमात्मा की और
करनी (दीक्षा) आत्मा की कथनी परम ब्रह्म की और करनी ब्रह्म की; कथनी परमेश्वर की और
करनी ईश्वर की, कथनी परम हंस की और करनी हँसो-सोsहँ तथा ज्योति की, कथनी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् की और करनी हँसो-सोsहँ तथा ज्योति की, कथनी
तत्त्वज्ञान-पद्धति की और करनी योग-साधना रूप अध्यात्म की, कथनी सद्गुरु की और
करनी गुरु की; कथनी परम आकाश रूप परम धाम की और करनी शरीर के अन्दर ही मात्र की और
कथनी भगवान् एवं तात्त्विक अवतारी की और करनी आत्म-शक्ति एवं आध्यात्मिक
सन्त-महात्मा की है, तो सद्भावी भगवद् प्रेमी पाठक बन्धु ! अब जरा आप स्वयं सोचें एवं
बतायें की क्या यह उपरोक्त कार्य असत्य या मिथ्याचार एवं मिथ्याज्ञानाभिमान नहीं
तो और क्या कहा जाये ? और जब सन्त-महात्मा या प्रकाश के प्रचारक रूप प्रकाश दूत ही इस
प्रकार असत्य कथन, मिथ्या प्रवचन एवं मिथ्याज्ञान प्रदान करने लगेंगे तो समाज की क्या
दशा होगी ? अर्थात् सकल समाज ही अपने मूल कर्तव्यों से विचलित हो जायेगा, जिसका परिणाम यह
होगा की समाज तहश-नहश होते हुये विनाश के मुख में जाने लगेगा और चारों तरफ हा-हा
कार और त्राहि-त्राहि की आवाज आसमान को चिरती हुई परमात्मा को जगाती है जिससे
स्वतः परमसत्ता रूप परम प्रभु रूप परमात्मा को भू-मण्डल पर आने पड़ता है यही
परिस्थिति जब-जब उत्पन्न होती है, तब-तब ही परमात्मा का भू-मण्डल पर अवतरण होता है और वर्तमान में भी
यही पारिस्थिति हुयी है, तभी परमतत्त्वम्
(आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द ब्रह्म या परम ब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा या अल्लातsआला का अवतरण हुआ है।हर बार की तरह ही अवतारी सत्
पुरुष, इस बार भी अपने समस्त अध्यात्मवेत्ता रूप अग्रदूतों या प्रकाश के
प्रचारक रूप दिव्य प्रकाश-दूत के बीच ही धर्म के स्थापना एवं दुष्ट-दलन चक्र के
साथ ही साथ समाज सुधार एवं समाजोद्धार का कार्य
प्रारम्भ कार दिया है। विशेष आश्चर्य की बात तो यह है की परमात्मा के ही
अग्रदूत एवं दिव्य प्रकाश-दूत ही हर सूचना एवं आभास के बावजूद भी अपने पीछे
विशालकाय जन-समूह एवं बहुतायत मात्रा में धन-सम्पत्ति के कारण अपने स्वामी संचालक
एवं नियंत्रक से भी मुख मोड़कर यानि विमुख होकर, स्वयं ही भगवान् एवं अवतारी बनने में प्रयत्न शील हैं, जब कि ये बन्धु गण
स्पष्टतः जानते हैं कि भगवान् एवं अवतारी बनने-बनाने वाला पद नहीं होता है। यह तो
स्वतः ही रहता है भगवान् एवं अवतारी न समाप्त होता है और न बना -बनाया जाता है। भगवान् जब -जब भी भू मण्डल पर अवतरित होकर शरीर धारण कर संसार में 'सत्य-धर्म' स्थपना एवं सज्जनों
(भक्तों)कि रक्षा -व्यवस्था करते हुये, दुष्ट-दलन चक्र चलाता हुआ विचरण या भ्रमण करता रहता है, तब तो वह अवतारी
रहता है और पुनः शरीर छोड़ कर अपने परम आकाश रूप परम धाम को चला जाता है। अर्थात्
भगवान या अवतारी बना-बनाया नहीं जाता है अपितु स्वतः ही कायम है और सदा-सर्वदा
कायम रहता है, हालाँकि शरीर बदलती रहती है जिससे गुप्त रूप में कार्य करने में
सहायता मिलती है ।
अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मा द्वारा भ्रामक एवं मिथ्या वायदा (वचन)
सद्भावी भगवद्द प्रेमी पाठक बंधुओं ! आत्म-ज्योति रूप आत्मा वाले
समस्त आध्यात्मवेत्तागण ही अपने शिष्यों या अनुयायियों के बीच हमेशा ही
मिथ्या-वायदा किया करते हैं एवं मीठी –चुपड़ी बातें ही किया करते हुये झूठे-झूठे
वचन दिया करते हैं। यहाँ पर स्वाभाविक ही है की अध्यात्मवेत्ता बंधुओं के स्वाभिमान पर चोट लगे एवं कष्ट होवे, परन्तु हमारे समक्ष
भी तो जबर्दस्त समस्या है कि भगवद् भक्त जनमानस को सचेत करते हुये परमात्मा के तरफ
बढ़ने का अवसर प्रदान करूँ या अहंकारी एवं मिथ्याचारी रूप मिथ्याज्ञानाभिमानी के
स्वाभिमान के तरफ देखूँ। जहाँ तक परमात्मा या परमसत्य के तरफ से हमें तो यही दिखलायी
दे रहा है कि धार्मिक एवं जिज्ञासु भगवद् भक्तों के लिये ये समस्त
अध्यात्मवेत्तागण ही एक प्रकार से नहीं बल्कि अनेकों प्रकार से ही धर्म द्रोही या
भगवद् द्रोही का अच्छा-ख़ासा कार्यकर्ता बनकर परमात्मा या परमब्रह्म –परमेश्वर कि
यथार्थतः तत्त्वज्ञान-पद्धति से जानकारी, दर्शन एवं पहचान रूप यथार्थतः
सत्य धर्म के स्थान पर आत्म-ज्योति रूप आत्मा को ही दर्शाकर भगवद् भक्त जिज्ञासुओं
को परमतत्त्वम (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म रूप परमात्मा के दर्शन
एवं मिलन के अवसर को ही समाप्त कर अपने द्वारा प्रदत्त सोsहँ-हँसो एवं ज्योति
रूप आत्मा में ही फंसाकर परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् या परमब्रह्म या परमेश्वर
या परमात्मा के पृथक को ही समाप्त कर आत्मा को ही इनका पर्याय रूप घोषित कर –करवा
देते हैं और इस आत्मा की जानकारी और दर्शन की पद्धति को ही धर्म या
तत्त्वज्ञान-पद्धति या यथार्थतः विद्यातत्त्वम् घोषित कर देते हैं, जिससे परम ब्रह्म परमेश्वर
या परमात्मा से मिलने के बजाय भगवद् भक्त जिज्ञासु की दशा ठीक त्रिशंकू की तरह हो
जाती है क्योंकि ये न परमतत्त्वम
(आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा को ही पा पाते हैं और न
तो इनका संसार ही रह पाता है। ये जिज्ञासु भक्त संसार और परमात्मा के बीच जीवात्मा
(सोsहँ-हँसो एवं ज्योति) रूप योग साधनाभ्यास में त्रिशंकु की तरह लटके
रहते हैं। ये सारी ज़िंदगी योगाभ्यास करते करते शरीर छोड़ने पर शिव लोक तत्पश्चात्
पुनः संसार चक्र रूप मृत्यु लोक में पहुँचकर जनम –मरण चक्र रूप आवागमन रूप चक्कर
काटते रह जाते हैं और यह चक्र पुनः तब तक कायम रहता है,जब तक कि परमतत्त्वम
रूप आत्मतत्त्वम् रूप परमात्मा का पुनः अवतरण होकर पुनः इसी तत्त्वज्ञान –पद्धति
या विद्यातत्त्वम् के माध्यम से ही जानकारी, दर्शन एवं तत्त्व का पहचान कराकर अपने प्रति शरणागत पूर्ण समर्पण भाव
में स्वीकार कर नहीं लिया जाता है ।
अध्यात्म् यथार्थतः न तो धर्म है और न तो कर्म ही यह धर्म और कर्म के
मध्य दोनों से पृथक एक ऐसा लटका है, जिस पर परमतत्त्वम (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म रूप
परमात्मा कि खोज करके भी न पाने वाले विक्षुब्ध
हुये लोग लटके रहते हैं। इनमें से कुछ तो जो लटकना छोड़कर यथार्थतः परमात्मा
को जा न देख कर एवं पहचान कर श्रद्धालू भाव से मुसल्लम ईमान के साथ पूर्णतः समर्पण
रूप में शरीर पर्यन्त सदा-सर्वदा एक मात्र परमात्मा के ही सेवा में लग जाते हैं और
शेष समस्त ही परमात्मा एवं यथार्थतः सत्य –धर्म से विक्षुब्ध होकर योग-साधना रूपी
अध्यात्म विद्या कायम कर लेते हैं। जो न तो परमतत्त्वम (आत्मतत्त्वम्) रूप
शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा को ही मिलने देता है और न ही
सांसारिक कर्म करने देता है बल्कि दोनों से ही पृथक रूप में कर्म से ऊपर एवं
यथार्थतः सत्य-धर्म से नीचे का भ्रामक एवं मिथ्याहंकारिक लटका होता है, जो परमात्मा के नाम
पर सांसारिक लोगो को सांसारिक कर्मो से ऊपर उठाकर अपने अध्यात्म पर लटका कर दोनों
से ही विलग कर देता है, जिससे सांसारिक व्यक्ति मुक्ति और अमरता से वंचित तो रह ही जाता है, सांसारिक भोगो से
भी मानसिंक रूप से वंचित हो जाता है।
पुरातत्त्व-विभाग विद्यातत्त्वम् के अन्तर्गत जड़-तत्त्व की ही शाखा
मात्र
वर्तमान में पुरातत्त्व विभाग जड़-पदार्थों की आवश्यकतानुसार खोज एवं
पहचान करने वाली जानकारी करने या देने वाली एक शिक्षा
पद्धति है, जिससे जड़-पदार्थों की एतिहासिक जानकारियाँ अथवा पदार्थों के समय और महत्व से
सम्बन्धित जानकारी मिलती है। पुरातत्त्व विभाग को विद्या-तत्त्वम् का पर्याय मानना
जढ़ता एवं मूढ़ता के सिवाय और कुछ भी नहीं होगी क्योंकि पुरातत्त्व विभाग, विद्या-तत्त्वम् का
अंग भी नहीं है, बल्कि एक उपांग मात्र ही है
। जड़-चेतन तथा जड़-चेतन दोनों का उद्गम स्त्रोत या उत्पत्ति केन्द्र रूप कर्ता रूप
परमात्मा की जानकारी तो विद्या-तत्त्वम् है और मात्र जड़-विभाग की जानकारी ही
पुरातत्त्व विभाग है, हालांकि पुरातत्त्व तो पुरातत्त्व है, विज्ञान भी जड़-पदार्थ की भी पूर्ण जानकारी नहीं दे सकता है, जबकि
विद्या-तत्त्वम् वह जानकारी हाती है, जिसको जान लेने के
बाद सृष्टि के अन्तर्गत या परे भी कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता क्योंकि विद्यातत्त्वम् परमतत्त्वम्
(आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परम ब्रह्म या परमात्मा की जानकारी तो कराता ही
है साथ ही साथ सम्पूर्ण अध्यात्म एवं सम्पूर्ण
कर्मों तथा कर्म के रहस्यों की भी जानकारी
भी कराता है, जबकि पुरातत्त्व विभाग परमतत्त्वम् रूप परमात्मा की जानकारी तो करा
ही नहीं सकता, चेतन आत्मा की भी
जानकारी नहीं करा सकता है। इतना ही नहीं जड़-पदार्थों की भी पुर्णत: जानकारी नहीं
दे पता है, हाँ, जड़ पदार्थ से सम्बन्धित कुछ एतिहासिक जानकारी वह भी आनुमानिक ही
जानकारी दे पता है। इसके सिवाय कुछ भी नहीं।
तत्त्ववेत्ता (अध्यात्मवेत्ता एवं कर्मवेत्ता) का विरोधी नहीं; अपितु पोषक एवं
सरंक्षक
तत्त्ववेत्ता या अवतारी सत्पुरुष, अध्यात्मवेत्ता योगी, सन्त-महात्मा एवं कर्मवेत्ता समस्त गृहस्थ, कर्मचारी-अधिकारी
तथा कर्मकाण्डी एवं मूर्ख की दृष्टि से देखता एवं वैसा ही व्यवहार भी करता है और कर्मकाण्डी
या कर्मवेत्ता कर्मचारी-अधिकारी एवं शास्त्रीय कर्म-काण्डी, योगी-महात्मा
को पाखण्डी एवं अहंकारी की दृष्टि से
देखता एवं संघर्षात्मक व्यवहार भी करता है। इस प्रकार दोनों ही आपस में एक-दूसरे
को घृणा एवं पाखण्ड अहंकार की दृष्टि से देखते रहने एवं वैसा ही व्यवहार करते रहने
से इन दोनों की आदत भी वैसी ही बन जया करती है, जिससे दोनों ही अपनी उत्पत्ति, पालन एवं संहारकर्ता रूप स्वामी तत्त्ववेत्ता-अवतारी सत्पुरुष से भी घृणा
एवं पाखण्ड की दृष्टि एवं व्यवहार का ही व्यवहार करने लगते हैं, जिसका परिणाम यह
होता है की परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द–ब्रह्म या परम ब्रह्म या परमात्मा
के अवतार सत्पुरुष को अपना विरोधी मानने लगते हैं। जब कि अवतारी सत्पुरुष कभी न तो
अध्यात्म का ही विरोध करता है और न कर्म-प्रधान कर्मचारी या अधिकारी एवं शाष्त्रीय
कर्म-काण्डी सन्त महात्मा का ही। हालाँकि कर्मवेत्ता सन्त एवं महात्मा नहीं होता
है मात्र कर्मचारी-अधिकारी एवं शास्त्र-उपदेशक मात्र ही होता है।तत्त्ववेत्ता-अवतारी किसी के भी मात्र उतने अंश को ही विरोधी एवं समाप्त करता है, जितने अंश तक
अध्यात्मवेत्ता-योगी,सन्त-महात्मागण असत्य, आडंबर–पाखण्ड एवं मिथ्याज्ञानाभिमान तथा कर्म वेत्ता-कर्मचारी-अधिकारी
एवं शास्त्रीय उपदेशगण असत्य, अन्याय, अधर्म, मिथ्याभिमान से युक्त एवं लिप्त रहते हुये ममता-आसक्ति के कारण शरीर
एवं संसार में फँसा होता है। अध्यात्मवेत्ता योगी, सन्त-महात्मा को जीव,जीवात्मा, आत्मा से तथा
कर्मवेत्ता कर्मचारी-अधिकारी,शास्त्रीय एवं कर्मकाण्डी उपदेशकों को संसार, परिवार, शरीर, जीव, आत्मा से ऊपर उठाकर
परमात्मा, खुदा या गॉड को जनाकर, दर्शाकर एवं बात-चीत करते-कराते हुये पहचान कराकर सम्बन्ध स्थापित
कराना ही परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता-अवतारी सत्पुरुष का एक मात्र
उद्देश्य या लक्ष्य होता है। इस लक्ष्यपूर्ति में ही शान्ति और आनन्द या अमन – चैन
का राज्य स्वतः ही कायम हो जाता है। यह सत्य एवं प्रमाण्य है।
समाज सुधार एवं समाजोद्धार हेतु विद्यातत्त्वम् की अनिवार्यता
सद्भावी भगवद्द प्रेमी पाठक बंधुओं ! समाज सुधार एवं समाजोद्धार हेतु
विद्या-तत्त्वम् की मात्रा उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कि शरीर को क्रियाशील होने हेतु जीवात्मा
की। इस पर थोड़ा विचार-मंथन कर लेवें, क्योंकि मेरे दृष्टि में तो इसके समान और कोई उदाहरण इतना सटीक
दिखलायी ही नहीं देता है, हालाँकि उदाहरणों की कमी नहीं है अर्थात् दूसरे शब्दों में
विद्या-तत्त्वम् की यथार्थतः जानकारी के बगैर समाज सभी शिक्षा, अनुभूति आदि
जानकारियों से युक्त रहते हुये भी ठीक वैसी ही जैसे समस्त अंगों एवं वस्त्राभूषणों
से युक्त जीवात्मा विहीन शरीर ।
वर्तमान में सारे संसार में ही चोरी, डकैती, राहजनी, आगजनी, अपहरण, हत्या, घुसखोरी, अत्याचार एवं भ्रष्टाचार रूप हा-हा कार एवं त्राहि-त्राहि रूप पुकार
का एक मात्र आधार विद्या-तत्त्वम् के स्थान पर जढ़ता–मूलक गलत एवं भ्रष्ट शिक्षा-पद्धति का लागू होना
ही है और जब तक पुनः इस गलत एवं भ्रष्ट शिक्षा-पद्धति के स्थान पर विद्यातत्त्वम्
को प्रतिस्थापित नहीं कार दिया जाता, तब तक विश्व में कोई लाख सिर पटक कार मर जाय, फिर भी समाज को
शान्ति और आनन्द की उपलब्धि कदापि हो ही नहीं सकती है। अन्ततः बता देना चाहता हूँ, बात तो अविश्वसनीय
लग सकती है परन्तु परमसत्य है-पुनः परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता के अवतारी
सत्पुरुष का राज्य होने वाला है, इच्छामृत्यु और इच्छा भोग से युक्त सभी मानव ही होंगे।
परा विद्या या अध्यात्म विद्या या योग विद्या
मुज्जफ्फरपुर जेल १९/११/१९८२ ई॰
विद्या-तत्त्व के अंश रूप परा विद्या या अध्यात्म विद्या या योग
विद्या वह विद्या है जिसके अन्तर्गत हम आप सभी साधक बन्धु शारीरिक, पारिवारिक एवं
सांसारिक गति विधियों से अपने वृतियों को मोड़कर स्वास-प्रस्वास तथा ध्यान आदि आदि
नाना प्रकार के साधना से अपने अपने ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप आत्म-ज्योति के दरश-परश करते हुये मिलन एवं आत्मामय या ब्रह्ममय
स्थिति तक पहुँचाने एवं बनाने वाली जानकारी ही परा-विद्या या अध्यात्म विद्या या
योग विद्या या श्रेय विद्या अथवा साधना मार्ग है ।
संसार के अन्तर्गत श्रेष्ठता के क्रम में यह द्वितीय श्रेणी पर कायम
रहने वाली विद्या-पद्धति है, परन्तु परमात्मा, खुदा, गॉड के अवतार रूप अवतारी सत्पुरुष के संसार में अनुपस्थित में
अर्थात् परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म परमात्मा के
परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण के पूर्व एवं अवतार एवं कार्य-पूर्ति के पश्चात्
परमधाम वापसी के पश्चात् संसार के अन्तर्गत शान्ति और आनन्द के साथ कल्याणमय जीवन
हेतु भगवद् भक्ति के साथ यह परा विद्या या अध्यात्म विद्या ही प्रभावी रहती एवं
होती है। हालाँकि एक बात यह भी है कि भगवत् भक्ति से हीन, यह अध्यात्म-विद्या
मिथ्याज्ञानाभिमान रूप अहंकार के वशीभूत होकर माया (शरीर एवं सम्पत्ति) में
फंसते हुये काल के वशीभूत होकर जीव पुनः अपने पूर्ववत् पारिवारिक एवं सांसारिक
गति-विधियों में आसक्त एवं लिप्त हो जाता है और आवागमन के सामान्य गति-विधि में
घुल-मिल जाता है। यही कारण है कि अध्यात्म या योग के सर्वोच्च पद पर नारद, ब्रह्मा और शंकर जी
आदि को भी विष्णु-राम कृष्ण कि भक्ति करनी पड़ी। इतना ही नहीं, ये लोग सदा-सर्वदा
भक्ति में लीन रहते हुये ही अपने कार्यों का निष्पादन भी करते रहते हैं ।
परा विद्या या अध्यात्म् विद्या जड़-चेतन से निर्मित सृष्टि के
अन्तर्गत चेतन से सम्बंधित अनुभूति परक जानकारी है। जड़-चेतन का साधन मात्र होता है
और चेतन जड़ का चालक एवं नियंत्रक होता है। दूसरे शब्दों में जीवात्मा चेतन तथा
शरीर और जड़-जगत् जड़ हैं। यहाँ पर जगत् का भाव पूरी सृष्टि सेवही समझना चाहिये। ठीक
यही बात यहाँ पर भी है कि जीव-आत्मा के मध्य-आत्मा से जीव तथा जीव से आत्मा तक कि
समस्त क्रिया-प्रक्रियायों कि अनुभूति परक जानकारी ही परा विद्या या अध्यात्म विद्या
या योग विद्या है ।